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उन्मादी हिन्दू भीड़ के विचारक : इनमें से 50 या 60 प्रतिशत दंगाई सावरकर को जानते होंगे!


सावरकर : एक साक्षर हिन्दू अतिवादी

Ayush Chaturvedi

अभी हाल में बीती रामनवमी के दिन तमाम जगहों पर हिन्दू जत्थों ने मस्जिदों के सामने भगवा झंडे फहराए, नारे लगाए। बिहार शरीफ़ का 110 साल पुराना मदरसा अज़ीज़िया जलाकर ख़ाक कर दिया गया। ऐसा करने वाले सभी दंगाई हिन्दू थे। सभी एक विचारधारा, एक नेता, एक नीयत को मानने वाले थे। अनुमान लगाया जाए तो इनमें से 50 या 60 प्रतिशत दंगाई सावरकर को जानते होंगे। कुछ न भी तो सावरकर का नाम तो जानते ही होंगे। इनमें से शायद कुछ ने सावरकर का लिखा पढ़ा होगा। लेकिन यदि थ्योरी की बात छोड़ दें, तो प्रैक्सिस में वे जो कर रहे थे, वह एक निरा ख़ालिस सावरकरीय काम ही था।

बारह वर्ष की आयु में विनायक दामोदर सावरकर अपने स्कूली दोस्तों के साथ जाकर एक मस्जिद पर हमला करने की नीयत से उसपर पत्थर फेंकते हैं। वहाँ के मुस्लिम बच्चों को पीटते हैं। यह सब हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बाद होता है। ऐसा करने के बाद सावरकर खुशी से नाचते हैं। बारह वर्ष का वह बालक कितना घिनौना और फूहड़ लग रहा होगा ऐसा करके नाचते हुए। मस्जिद पर हमला करके खुशी से नाचने का भी अपना एक इतिहास रहा है। दिक्कत यह है कि यह वर्तमान में तब्दील हो रहा है। आज भी मस्जिदों और मदरसों पर हमले करके यूँ ही नाचकर खुशी मनाई जा रही है।

आज जब पाठ्यक्रम से मुग़ल इतिहास हटाया जा रहा है। इस बात को मिटाया जा रहा है कि गांधी की हिन्दू-मुस्लिम एकता हिन्दू अतिवादियों की आँख की किरकिरी थी। संघ पर कभी बैन नहीं लगा, अब ऐसा बताया जा रहा है। तब इस बीच सावरकर को हम किस तरह से देखें।

वह सावरकर जो लपालप गोश्त खाते हैं। यह मानते हैं कि भारत को गोश्त से ताकत मिलेगी अंग्रेज़ों से लड़ने की। सावरकर खुद को नास्तिक कहते हैं। कर्मकांडी नहीं हैं। कहते हैं कि गाय को एक उपयोगी जानवर मानें, माता नहीं। संघ के सदस्य नहीं होते हुए भी उसके प्रेरणा के स्रोतों में से एक रहते हैं। गांधी से मिलते हैं तो चर्चा से पहले उन्हें गोश्त ऑफर करते हैं। गांधी मना कर देते हैं। गोश्त खाना बुरी बात नहीं है। लेकिन बहुत से हिंदूवादी और सावरकरवादी भी आज इसे बुरा मानते हैं। नहीं मानना चाहिए।

आज देखने पर सावरकर दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ जेन-ज़ी/मिलिनीयल बच्चों सरीख़े लगते हैं। यह बच्चे एबीवीपी के मेम्बर भी होते हैं, और गाहे-बगाहे कूल दिखने के लिए थोड़े प्रगतिशील भी हो जाते हैं। कुछ बच्चों को मैंने देखा है कि एबीवीपी की रैली में कट्टर नारे लगाकर लौटते हैं, फिर कॉलेज की एलजीबीटीक्यू+ सोसाइटी में भी काम करते हैं। अभय कुमार दुबे ने “हाइफ़नेटेड आइडियोलॉजीज़” की जो बात की है, वह अपने सबसे अजीब स्तर पर यहाँ मौज़ू है।

गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष व जेपी के साथी रहे कुमार प्रशांत एक बातचीत में कहते हैं कि सावरकर ने अपने जीवन में एकमात्र वीरता का काम तब किया था जब अंग्रेज़ उन्हें पकड़कर एक पानी के जहाज़ में ला रहे थे, और सावरकर उस जहाज़ से समुंदर में कूद गए थे, तैरकर पार कर भी कर चुके थे, और फ्रेंच तट पर चले गए, लेकिन फिर पकड़ लिए गए। इसके अलावा उन्होंने अपने जीवन में ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया जिसे हम दूसरों के बनिस्बत आँकें और इन्हें वीर कह दें।

सावरकर का जीवन विवादित रहा। आजीवन वह वैचारिक डाउनफॉल के शिकार रहे। एक लेखक, एक नेता, एक कवि, या एक मनुष्य के रूप में भी वह कभी हमारे प्रेरणास्रोत नहीं हो सकते।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी शाखाओं व कार्यशालाओं में गोलवलकर, हेडगेवार, और सावरकर की तस्वीरें लगाता है। गोलवलकर को गुरुजी और हेडगेवार को डॉक्टर साहब कहते हैं। सावरकर को क्या कहते हैं, मैंने नहीं सुना। सावरकर कभी संघ के सदस्य नहीं रहे, फिर भी उनके विचार में ऐसा कौन-सा तत्व था जो संघ को इस कदर पसन्द आया कि वह एक उन्मादी हिन्दू भीड़ के विचारक बन गए।

आकार पटेल अपने एक हालिया लेख में लिखते हैं कि हिंदुत्व की विचारधारा नेपाल के हिन्दू राष्ट्र से अलग है। नेपाल का हिन्दू राष्ट्र एक क्षत्रिय राजा द्वारा मनुस्मृति के अनुसार चलाया जाता था मगर अल्पसंख्यकों को दबाने में विश्वास नहीं करता था। जबकि भारत में हिंदुत्व के सिद्धांत को राष्ट्र या हिंदुओं से कोई लेना-देना नहीं है। वह केवल इतना चाहता है कि अल्पसंख्यकों को दबाकर रखा जाए। लेयमेन लैंग्वेज में कहें तो वह चाहता है कि– “मुल्लों को टाइट रखा जाए”।

सावरकर का मानना था कि हिन्दू वही है जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि दोनों भारतवर्ष है। इससे वह किसे दरकिनार करना चाह रहे थे, स्पष्ट है। मुसलमानों की पुण्यभूमि काबा है, ईसाइयों की जेरुसलम। सावरकर स्वभाव से पुरातन सीएएवादी थे (सीए ए– सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट)।

सावरकर इस बात के भी समर्थक थे कि सिखों को एकजुट होकर “सिखिस्तान” बनाना चाहिए। साफ़ समझ आता है कि सावरकर मुसलमानों से अपनी चिढ़ की वजह से किसी भी हद तक जा सकते थे। क्या वह आज होते तो फ़रार हुए अमृतपाल सिंह का भी समर्थन करते? और 1984 में मारे गए जरनैल सिंह भिंडरावाले का भी?

सावरकर ने चित्रगुप्त के छद्म नाम से अपनी ही जीवनी लिखी, उसमें खुद की तारीफ़ की। खुद को ‘वीर’ के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। वह एक बड़े आत्ममुग्ध भी दीख पड़ते हैं। ऐसा कोई लोककल्याणकारी काम उन्होंने नहीं किया जिसकी वजह से उनकी प्रशंसा की जाए, इसलिए उन्हें खुद ही तारीफ़ करनी पड़ी।

गांधी की हत्या के केस में सावरकर भी अभियुक्त रहे। सबूतों की कमी की वजह से छूट गए। फिर से कपूर कमीशन बैठने पर शक की तमाम उंगलियां उन्हीं की तरफ उठीं। गांधी की हत्या के षणयंत्रकारी के रूप में। जैसे-तैसे बच ज़रूर गए, मगर मराठी उन्मादी चितपावन ब्राह्मणों के सरदार विनायक दामोदर सावरकर के सिर से यह कालिख़ आजतक नहीं मिटी। मिटाने की तमाम कोशिशें जारी हैं।
लेकिन क़य्यूम नाशाद का वही शे’र फिर-फिर याद आता है–

” अदब के नाम पर महफ़िल में चर्बी बेचने वालों
अभी वो लोग ज़िंदा हैं जो घी पहचान लेते हैं “

सावरकर ने आजीवन कोशिशें कीं कि हिंदुस्तान की अवाम उन्हें सीरियसली ले। उन्हें एक बड़ा विचारक और उससे भी बड़ा नेता माने। लेकिन गांधी की आभा के आगे यह सभी छोटी लुत्तियाँ दिखाई नहीं पड़ती थीं। यही चिढ़ थी इनकी। वह और चमकदार दिखना चाहते थे। इस चमक की चाहत में उन्होंने ऐसी-ऐसी चीजें कीं और लिखीं, जो एक पूरे मुल्क़ को जेनोसाइड की ओर धकेल सकती हैं।

सावरकर कालापानी से माफी माँगकर छूटे। यह कहकर कि राजनीति और क्रांतिकारी गतिविधियों से दूर रहेंगे। लेकिन निकलने के बाद उन्होंने राजनीति की। एक बड़ी ही विषैली किस्म की राजनीति। भड़कावे और बंटवारे की राजनीति। यह बातें ज़ाहिर हैं और पब्लिक डोमेन में हैं कि सावरकर ने दो राष्ट्र के सिद्धांत की बात की थी। उनके लिए हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग देश थे। उनके इसी मत के लिए और इस मत हेतु की गई हत्यारी मेहनत के लिए उन्हें 60 रुपये महीने पेंशन मिलती थी ब्रिटिश सरकार से।

आज यदि हम किसी दंगाई को लिखना-पढ़ना सिखा दें। तो वह बहुत हद तक वही बातें लिखेगा जो सावरकर ने लिखी हैं। इसलिए हम अंत में इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि कुल मिलाकर विनायक दामोदर सावरकर एक साक्षर हिन्दू अतिवादी थे।

डिस्क्लेमर : लेखक के निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है
वाया : ट्विटर

 


IrAm😍
@iram_word
मोनू मानेसर लोगों को जुल्म करने के अपने धंधे में वापस आ गया है। राजस्थान पुलिस अताउल्लाह खान मोनू मानेसर का विरोध करने और उसकी गिरफ्तारी की मांग करने के आरोप में जेल भेज देती है और मोनू मानेसर जैसे आ✝️nकी को अभी भी पुलिस की पहुंच से बाहर बता रही

sonu sood
@SonuSood
जितना भी मैं मनीष कश्यप को जानता हूँ उसने हमेशा बिहार के लोगों के भले के लिए ही आवाज़ उठाई है। हो सकता है उस से कुछ गलती भी हुई हो। पर यह बात मैं यक़ीन से कह सकता हूँ कि वो देशहित के लिये ही लड़ा है। न्याय और क़ानून से ऊपर हमारे देश में कुछ नहीं। जो भी होगा सही ही होगा। 🙏

Ali Sohrab
@007AliSohrab

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