देश

चीन अरुणाचल प्रदेश में 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर अपना दावा करता है, चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत बताता है : रिपोर्ट

 

भारत ने कहा है कि नौ दिसंबर को अरुणाचल प्रदेश के तवांग में चीनी सैनिकों और भारतीय सैनिकों में झड़प हुई है.

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में दिए बयान में कहा है कि चीनी सैनिकों ने तवांग सेक्टर के यांग्त्से इलाक़े में, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अतिक्रमण कर यथास्थिति को एकतरफ़ बदलने का प्रयास किया था लेकिन भारतीय सैनिकों ने इसे नाकाम कर दिया था.

उन्होंने ये भी स्पष्ट किया कि इस झड़प में किसी भी भारतीय सैनिक की मौत नहीं हुई है और न ही कोई सैनिक गंभीर रूप से घायल हुआ है.

राजनाथ सिंह ने कहा, ”चीन के इस प्रयास का हमारी सेना ने दृढ़ता के साथ सामना किया. इस तनातनी में हाथापाई हुई. भारतीय सेना ने बहादुरी से चीनी सैनिकों को हमारे इलाक़े में अतिक्रमण करने से रोका और उन्हें उनकी पोस्ट पर वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया. इस झड़प में दोनों ओर के कुछ सैनिकों को चोटें आईं लेकिन किसी सैनिक की मौत नहीं हुई है.”

चीन अरुणाचल प्रदेश को लेकर भारत के दावे पर हमेशा से सवाल उठाता रहता है. वो किसी भी भारतीय नेता के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर भी आपत्ति जताता रहा है.

हालाँकि भारत ने बार-बार ये कहा है कि अरुणाचल भारत का अभिन्न हिस्सा है और इसे अलग नहीं किया जा सकता है. भारत ने कहा कि अरुणाचल में भारतीय नेताओं के दौरे पर आपत्ति का कोई तर्क नहीं है.

इससे पहले चीन ने 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अरुणाचल जाने पर भी विरोध जताया था. 2020 में गृह मंत्री अमित शाह के अरुणाचल जाने पर भी चीन ने आपत्ति जताई थी.

हर बार भारत चीन की आपत्ति को ख़ारिज करता रहा है. चीन अरुणाचल प्रदेश में 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर अपना दावा करता है जबकि भारत कहता है कि चीन ने पश्चिम में अक्साई चिन के 38 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर रखा है.

भारतीय नेताओं के दौरे पर चीन की आपत्ति को लेकर भारत के जाने-माने सामरिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने कुछ महीने पहले ट्वीट कर कहा था, ”चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग तिब्बत गए तो भारत ने कुछ नहीं कहा था. यहाँ तक कि भारतीय सीमा से महज़ 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के बेस पर शी जिनपिंग एक रात रुके भी थे. इसे चीन की युद्ध तैयारी के रूप में देखा गया. भारतीय नेताओं के दौरे पर चीन की आपत्ति कोई हैरान करने वाली नहीं है.”

चीन के इतिहास पर किताब लिख चुके माइकल शुमैन ने अरुणाचल प्रदेश में भारतीय नेताओं के जाने पर चीन की आपत्ति को लेकर ट्वीट कर कहा था, ”चीन भारत के साथ रिश्ते बहुत ही ख़राब तरीक़े से हैंडल कर रहा है. यह चीन की विदेश नीति की बड़ी नाकामी हो सकती है.”

दक्षिणी तिब्बत
चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत बताता है. दोनों देशों के बीच 3,500 किलोमीटर (2,174 मील) लंबी सीमा है. 1912 तक तिब्बत और भारत के बीच कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं खींची गई थी.

इन इलाक़ों पर न तो मुग़लों का और न ही अंग्रेज़ों का नियंत्रण था. भारत और तिब्बत के लोग भी किसी स्पष्ट सीमा रेखा को लेकर निश्चित नहीं थे.

ब्रितानी शासकों ने भी इसकी कोई जहमत नहीं उठाई. तवांग में जब बौद्ध मंदिर मिला तो सीमा रेखा का आकलन शुरू हुआ. 1914 में शिमला में तिब्बत, चीन और ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों की बैठक हुई और सीमा रेखा का निर्धारण हुआ.

चीन ने तिब्बत को कभी स्वतंत्र देश नहीं माना. उसने 1914 के शिमला समझौते में भी ऐसा नहीं माना था. 1950 में चीन ने तिब्बत को पूरी तरह से अपने क़ब्ज़े में ले लिया. चीन चाहता था कि तवांग उसका हिस्सा रहे जो कि तिब्बती बौद्धों के लिए काफ़ी अहम है.

चीन और तिब्बत

1949 में माओत्से तुंग ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का गठन किया. एक अप्रैल 1950 को भारत ने इसे मान्यता दी और राजनयिक संबंध स्थापित किए.

चीन को इस तरह प्राथमिकता देने वाला भारत पहला ग़ैर-कम्युनिस्ट देश बना.

1954 में भारत ने तिब्बत को लेकर भी चीनी संप्रभुता को स्वीकार कर लिया. मतलब भारत ने मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है. ‘हिन्दी-चीनी, भाई-भाई’ का नारा भी लगा.

साल 1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया, लेकिन 1954 में नेहरू ने तिब्बत को एक समझौते के तहत चीन का हिस्सा मान लिया.

जून 1954 से जनवरी 1957 के बीच चीन के पहले प्रधानमंत्री चाउ एन लाई चार बार भारत के दौरे पर आए. अक्तूबर 1954 में नेहरू भी चीन गए.

1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला शुरू कर दिया और उसे अपने नियंत्रण में ले लिया. तिब्बत पर चीनी हमले ने पूरे इलाक़े की जियोपॉलिटिक्स को बदल दिया.

चीनी हमले से पहले तिब्बत की नज़दीकी चीन की तुलना में भारत से ज़्यादा थी. आख़िरकार तिब्बत एक संप्रभु मुल्क नहीं रहा.

भारतीय इलाक़ों में भी अतिक्रमण की शुरुआत चीन ने 1950 के दशक के मध्य में शुरू कर दी थी. 1957 में चीन ने अक्साई चिन के रास्ते पश्चिम में 179 किलोमीटर लंबी सड़क बनाई.

सरहद पर दोनों देशों के सैनिकों की पहली भिड़ंत 25 अगस्त 1959 को हुई. चीनी गश्ती दल ने नेफ़ा फ़्रंटियर पर लोंगजु में हमला किया था. इसी साल 21 अक्तूबर को लद्दाख के कोंगका में गोलीबारी हुई.

इसमें 17 भारतीय सैनिकों की मौत हुई थी और चीन ने इसे आत्मरक्षा में की गई कार्रवाई बताया था. भारत ने तब कहा था कि ‘उसके सैनिकों पर अचानक हमला कर दिया गया.’


एलएसी भी बना एलओसी?
चीनी हमले के बाद ही तिब्बती बौध धर्म गुरु दलाई लामा को भागना पड़ा था. 31 मार्च 1959 को दलाई लामा ने भारत में क़दम रखा था. 17 मार्च को वो तिब्बत की राजधानी ल्हासा से पैदल ही निकले थे और हिमालय के पहाड़ों को पार करते हुए 15 दिनों बाद भारतीय सीमा में दाखिल हुए थे.

अप्रैल, 2017 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने अरुणाचल प्रदेश की यात्रा की थी तो चीन ने कड़ा विरोध करते हुए कहा था कि भारत को इसकी इजाज़त नहीं देनी चाहिए थी और इससे भारत को कोई फ़ायदा नहीं होगा.

दो जून 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में इंटरनेशनल इकोनॉमिक फ़ोरम के पैनल डिस्कशन में कहा था कि “चीन और भारत में भले सीमा विवाद है, लेकिन दोनों देशों के बीच सीमा पर पिछले 40 सालों में एक भी गोली नहीं चली है.”

चीन ने प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान का स्वागत किया था और हाथोंहाथ लिया था.

लेकिन भारत अब यह भी कहने की स्थिति में नहीं है. जून 2020 में गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिक के बीच हिंसक संघर्ष हुआ था. भारत के 20 सैनिकों की मौत हुई थी और चीन से आई जानकारी के मुताबिक़ उसके चार सैनिक मरे थे.

इस बीच कई इलाक़ों में हल्की-फुल्की झड़पें होती गईं.

और अब तवांग में दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़प हुई है.