साहित्य

जेब कतरा : कुमार मुकेश की कृति

Kumar Mukesh ·

जेब कतरा:
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भक्क सल्ला इतना देर तक उसके पीछे-पीछे घुमता रहा लेकिन हाथ क्या लगा? दस रुपये के दो नोट. पाकीट (पॉकेट) तो इतना फुला लग रहा था मानो लाख-दो-लाख होगा, नहीं भी तो कम से कम बीस-पचास हज़ार तो होगा ही. पुरा चार घंटा उसके पीछे लगा रहा, मूड तो तब ख़राब हो गया था जब वो फ़क़ीर बेंच पर बैठ कर पसर गया था, पता नहीं कहाँ खो गया था, घंटे भर बाद उठा था.

मेरा पुरा दिन ख़राब हो गया इसके चक्कर में, नहीं तो दो-चार पाकीट मार ही लेता, कितना भी कम निकलता तो दो-चार सौ तो कमा ही लेता.
सिर्फ़ दो दस के नोट और इतना सारा काग़ज़, अरररे… इतना बड़ा काग़ज़ कौन रखता है पाकीट में, खोल कर देखता हूँ क्या है…
हे भगवान ए क्या? पाकीट मार के हाथ काँपने लगे, ए तो चिट्ठी है.

माँय-बाबु

पाय लागूँ, भगवान आप दोनों को लंबी आयु और अच्छा स्वास्थ्य दे.

मैं जानता हूँ बाबुजी, आपने बड़ा वाला खेत गिरवी रख कर पैसे भेजे थे, मेरा क्लेक्टर का आख़िरी परीक्षा था और आप सब को उम्मीद थी मेरे पास होने की, लेकिन मैं पास नहीं हो पाया, इंटरव्यू में मुझे छाँट दिया गया, उनका कहना था की मैं गाँव और शहर में सामंजस्य नहीं बैठा पाया जवाब देने में. आप ही बताइए बाबुजी मैं तो शहर सिर्फ़ पढ़ाई करने आया था न की इसको समझने, तो जवाब कैसे दे पाता? कैसे बोल पाता की गाँव के भोले इंसान को शहर में किसी को कैसे बेवक़ूफ़ बनाया जाता है?

ख़ैर, क़र्ज़ के पैसों से ही मैंने पिछले सप्ताह इंश्योरेंस ले लिया, मेरे नहीं रहने के बाद वो लोग इतना दे देंगे की छुटकी की शादी हो जाएगी, खेत वापस मिल जाएगा और इतना बच जाएगा की आपके बुढ़ापे तक किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा. इंश्योरेंस का काग़ज़ भी चिट्ठी के साथ भेज रहा हूँ.
प्रणाम 🙏🏻

जेब कतरा चिट्ठी पढ़ कर पसीना-पसीना हो गया, कान के निचे से बहता पसीना गले तक आ गया:
“हे भगवान, कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी दे दी इस जेब कतरे को?”

बड़बड़ाता हुआ वो प्लेफॉर्म की तरफ़ भागा, वो आदमी कहीं नहीं दिख रहा था, जेब कतरा लगभग रोते हुए इधर-उधर भाग ही रहा था, देखा दूर पटरी तक वो आदमी जा चुका था. भाग कर गया और दनादन थप्पड़ मारने लगा.

भाई तुम क्या कर रहे हो? सिर्फ़ अपनी सोच रहे हो? कभी सोचा, क्या गुज़रेगी माँ-बाप पर? क्या गुज़रेगी छोटी बहन पर?
सब समझता हूँ भाई, लेकिन क्या करूँ? कोई रास्ता नहीं बचा है. चिट्ठी लिखने को तो लिख दिया लेकिन पोस्ट करने की हिम्मत न कर पाया.
रास्ता कैसे नहीं बचा है? तुम पढे-लिखे हो, कुछ भी कर के कमा सकते हो.
हाँ, लेकिन माँ-बाबु का सपना तो पुरा नहीं कर पाया न?
अरे भाई, तुम ज़िंदा रहोगे तो कुछ और सपना पुरा कर लेना.

जेब कतरा उसको कंधे से पकड़ कर अपने खोली ले आया, पानी पिलाया, और फिर से बात शुरु की:

देख भाई, मैं तेरी तरह ज़्यादा पढ़ा नहीं, लेकिन परिवार चलाने के लिए जेब काटने लगा, गाँव में सब समझते हैं की हम यहाँ फ़ैक्ट्री में काम करते हैं.
आज से मैं भी चोरी-चकारी बंद करता हूँ, यह शहर बहुत बड़ा है, इमानदारी से कमाई करेंगे दोनों भाई, मैं समोसे और जलेबी बनाऊँगा तुम गल्ले पर बैठना, देखना साल भर में ही हम अपनी पक्की दुकान कर लेंगे, तुम्हारे परिवार को भी इज़्ज़त की कमाई भेजना और मैं भी अपने परिवार को.

भाई, मैं ज़िंदगी से डर गया था, तुम मिले हो तो कुछ अच्छा करेंगे अब, साहब नहीं बन पाया कोई बात नहीं, अब दोबारा नहीं सोचूँगा परिवार को अकेला छोड़ने का, पता नहीं तुम भाई बन कर आए की भगवान का दुत बन कर, लेकिन मेरी छुटकी तुम्हारे जैसा एक और भैया पा कर ख़ुशी से पागल हो जाएगी, माँ-बाबु भी चाहते थे की उनको दो बेटे होते तो घर भरा-भरा लगता.

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)