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जोशीमठ शहर के कई हिस्से धीरे धीरे ज़मीन में धंसते चले जा रहे हैं : ख़ास रिपोर्ट

जोशीमठ में रहने वाले लोग कई महीनों से घरों की दीवारों में दरारें पड़ने की शिकायत कर रहे हैं. अब वैज्ञानिकों की एक सरकारी समिति ने अध्ययन के बाद कहा है कि शहर के कई हिस्से धीरे धीरे जमीन में धंसते चले जा रहे हैं.

उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ शहर का नाम पिछली बार फरवरी 2021 में सुर्खियों में आया था जब ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में अचानक बाढ़ आ गई थी और इस शहर के आस पास बसे कई गांव तबाह हो गए थे.

बीते कुछ महीनों में इस इलाके में रहने वाले कई लोगों ने प्रशासन को बताया कि सड़कों और उनके घरों की दीवारों पर दरारें आ गई हैं. जब शिकायतें बढ़ीं तो राज्य सरकार ने अध्ययन करने के लिए एक समिति नियुक्त की. विशेषज्ञों की इस समिति ने अब अपनी रिपोर्ट बना ली है और माना जा रहा है कि रिपोर्ट में चिंताजनक नतीजों के बारे में बताया गया है.

सरकार ने यह रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं है, लेकिन कई मीडिया रिपोर्टों में बताया गया है कि इसमें कहा गया है कि जोशीमठ में सिर्फ दीवारों में दरारें ही नहीं आ गई हैं बल्कि करीब 17,000 लोगों की आबादी वाले इस शहर के कई हिस्से धीरे धीरे जमीन में धंसते जा रहे हैं.

समुद्र से 6,150 फुट की ऊंचाई पर बसा जोशीमठ राज्य के लिए और इस इलाके के लिए एक महत्वपूर्ण शहर है. यहां से भारत-तिब्बत सीमा काफी करीब है और यहां बनी सेना की छावनी भारतीय सेना की महत्वपूर्ण छावनियों में से है.

एक अति-संवेदनशील इलाका
इसी छावनी को 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ के लिए बचाव कार्य का बेस कैंप भी बनाया गया था. जोशीमठ को बद्रीनाथ और हेमकुंठ जैसे तीर्थ धाम और औली और फूलों की घाटी जैसे जाने माने पर्यटन स्थलों तक जाने के लिए द्वार भी माना जाता है.

लेकिन इस पूरे इलाके की पारिस्थितिकी बेहद संवेदनशील है और अब ऐसा लगता है कि इस पर बढ़ते हुए बोझ के आगे यह जवाब देने लगी है. टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक विशेषज्ञों की समिति ने कहा है कि भारी बारिश, भूकंप, अनियंत्रित निर्माण और क्षमता से ज्यादा पर्यटकों की आबादी की वजह से जोशीमठ की नींव खिसक सकती है.

 

समिति में उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, रुड़की स्थित केंद्रीय बिल्डिंग रिसर्च संस्थान (सीबीआरआई), आईआईटी रुड़की, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग (जीएसआई) और वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान के विशेषज्ञ शामिल थे.

टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि जोशीमठ की नींव में भूस्खलन से जमा हुए पदार्थों की एक मोटी परत से ज्यादा कुछ नहीं है. इस वजह से नींव ही अस्थिर है और उपरोक्त कारणों की वजह से यह कभी भी दरक सकती है.

आ सकती है आपदा
समिति ने पाया कि दरारें सिर्फ घरों की दीवारों और जमीन पर नहीं आई हैं बल्कि छतों और आंगनों से होते हुए घरों के बाहर तक फैली हैं. इतना ही नहीं इनसे छतों के नीचे लगाई जाने वाली बीमें भी अपनी जगह से हिल गईं हैं और मकान एक तरफ झुक गए हैं.

समिति ने इन हालात के लिए जोशीमठ-औली सड़क पर अनगिनत घर, रिसॉर्ट और छोटे होटलों के निर्माण को जिम्मेदार ठहराया, जिन्हें शहर के क्षमता को नजरअंदाज करते हुए बनाया गया.

इसके अलावा समिति ने यह भी कहा है कि जोशीमठ-औली सड़क से और ऊपर पहाड़ों में कई बड़ी चट्टानों के नीचे गड्ढे हो गए हैं, जिसका मतलब है कि ये चट्टानें कभी भी गिर सकती हैं और नीचे के इलाकों में भारी नुकसान कर सकती हैं.

समस्या से निपटने के लिए समिति ने कहा है कि जोशीमठ में कम से कम नालों के पास तो निर्माण पर पूरी तरह से रोक लगा देनी चाहिए और अगर जरूरत हो तो प्रभावित इलाकों से लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पुनर्स्थापित करा देना चाहिए. लेकिन जोशीमठ में कई लोग इस समिति की रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं हैं.

विष्णुगाड बिजली परियोजना की भूमिका
एक्टिविस्ट और जोशीमठ बचाओ समिति के सदस्य अतुल सति कहते हैं कि रिपोर्ट में जोशीमठ में भूस्खलन और दरारों के लिए नदी के कटाव, पानी निकासी जैसी बहुत सी चीजों को जिम्मेदार ठहराया गया है लेकिन जोशीमठ के ठीक नीचे से गुजर रही ‘तपोवन विष्णुगाड जल विद्युत् परियोजना’ की सुरंग की भूमिका के बारे में कुछ नहीं कहा गया है.

फरवरी 2021 की बाढ़ का इविष्णुगाड बिजली परियोजना की भूमिकास परियोजना पर अच्छा खासा असर पड़ा था. 200 के आस पास मरने वाले लोगों में अधिकतर श्रमिक थे जो एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगाड परियोजना और ऋषिगंगा परियोजना में काम करते थे. माना जाता है कि कइयों के शव आज भी विष्णुगाड की सुरंग में दबे हुए हैं.

सति ने डीडब्ल्यू को बताया कि सुरंग की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है और इससे पहले स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक समिति ने भी इलाके का अध्ययन किया था और भूस्खलन के पीछे सुरंग की भूमिका को रेखांकित किया था.

दुनिया को संदेश
बल्कि सति ने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि सरकारी समिति के अध्यक्ष पीयूष रौतेला ने खुद 12 साल पहले ‘साइंस’ पत्रिका में छपे एक शोध पेपर में लिखा था कि परियोजना के लिए बनाई जा रही सुरंग से इलाके में भूस्खलन होने की संभावना है.

इन संवेदनशील इलाकों में जल विद्युत् परियोजनाओं, बांध, सड़कों का चौड़ीकरण, एयरपोर्ट, रेल जैसी परियोजनाओं का विरोध दशकों से होता आया है, लेकिन परियोजनाएं बढ़ती चली जा रही हैं.

एक्टिविस्ट मल्लिका भनोट कहती हैं कि जोशीमठ धंस रहा है और यहां भारी निर्माण गतिविधियां पूरी तरह से प्रतिबंधित कर देनी चाहिए यह तो 1976 में ही मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कह दिया था, लेकिन इन बातों को कभी माना नहीं गया.

भनोट ने डीडब्ल्यू से कहा, “कैसी विडंबना है कि ग्लासगो में कोप26 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया को डिसास्टर रेसिलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने का संदेश दिया था लेकिन देश के अंदर इतने संवेदनशील इलाकों में आपदा को न्योता दिया जा रहा है.”

आज भी कई ताजा परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई जा रही है. आने वाले दिनों में देखना होगा कि उत्तराखंड सरकार जोशीमठ को बचाने के लिए क्या कदम उठाती है.

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चारु कार्तिकेय