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“ठीक है! अब आप हट जाइये, और भी लोग मिलने वाले हैं”

Sarvesh Kumar Tiwari
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“ठीक है! अब आप हट जाइये, और भी लोग मिलने वाले हैं।” आज के समय में अनुष्का और विराट कोहली जैसे ख्यातिप्राप्त लोगों को एक मिनट में ही हट जाने के लिए केवल एक संत ही कह सकता है।

विराट और अनुष्का वृंदावन में प्रेमानन्द गोविंद जी महाराज की शरण में पहुँचे थे। महाराज उनको नहीं पहचानते थे। उन्हें पहचानना भी नहीं चाहिए, संतों को सिनेमा और क्रिकेट से भला क्या ही प्रयोजन हो? सेवादार ने जब महाराज से उनका परिचय कराया तो उन्होंने दोनों को प्रसाद स्वरूप चुंदरी और माला पहनवाई, और तुरंत दूसरे भक्तों की सुनने लगे।

कितना सुन्दर है यह! कम से कम ईश्वर के दरबार में सबके साथ समान व्यवहार होना ही चाहिए। यदि वहाँ भी किसी को विशेष और किसी को सामान्य होने का बोध होने लगे तो यह ईश्वर का अपमान होगा।

सुखद यह भी था कि विराट और अनुष्का भी तुरंत शीश नवा कर उनके आगे से हट गए। उन्होंने कोई नौटंकी नहीं की, वीआईपी होने का दिखावा नहीं किया। ईश्वर के दरबार में जाते समय इतनी सहजता और इतना समर्पण होना ही चाहिए।

विराट अनुष्का कुछ दिन पूर्व ही नीम करौरी बाबा के दरबार में गए थे, और अब वृंदावन में शीश नवा रहे हैं। तनिक सोचिये! विराट और अनुष्का तो हर भौतिक सुख सुविधा पा चुके हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो उन्हें सहजता से उपलब्ध न हो। फिर उन्हें किसी संत के पास जाने की क्या आवश्यकता है? पर सच यह है कि सन्तों की आवश्यकता सफल और सम्पन्न लोगों को ही अधिक होती है।

व्यक्ति की सफलता तीन घटकों पर निर्भर करती है। प्रयत्न, काल और दैव, अर्थात परिश्रम, सुखद संयोग और ईश्वरीय कृपा। सफलता या तो इन तीनों का योग से मिलती है, या तीनों में से किसी एक के प्रबल होने पर… पर एक सफल मनुष्य के रूप में असली परीक्षा भौतिक सफलता के बाद ही शुरू होती है।

भौतिक सुख अपने साथ असँख्य उलझने ले कर आता है। व्यक्ति जितना ही सम्पन्न हो, उसके जीवन की उलझने भी उतनी ही अधिक होती हैं। फिर अंततः सन्तों की शरण में ही शान्ति मिलती है।
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सन्तों का सानिध्य व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। वस्तुतः कुछ चीजें ऐसी हैं जो सन्तों के पास जाने से ही मिलेंगी। हम व्यक्तिगत प्रयत्न से सफलता पा सकते हैं, पर उसे पचाने का ढंग हमें सन्तों की कृपा से मिलता है। हम व्यक्तिगत प्रयास से धनवान हो सकते हैं, पर उस धन का उचित व्यय हमें संत ही सिखाते हैं। सन्त के सान्निध्य में रह कर ही हम सीख सकते हैं कि असल सुख, और वास्तविक सफलता क्या है।

तात्कालिक विश्व के सर्वश्रेष्ठ शासकों में से एक चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र के रूप में अवतरित हुए नारायण भी मर्यादापुरुषोत्तम तब हुए जब उन्होंने महर्षि वशिष्ठ विश्वामित्र अगस्त्य आदि सन्तों की कृपा प्राप्त कर ली। फिर हम तो सामान्य जन हैं…
तो भाई साहब! जीवन में जब भी अवसर मिले….
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।