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तालिबान और अहमद मसूद के बीच के बीच अफ़ग़ानिस्तान के परवान प्रांत में वार्ता जारी

अहमद मसूद और तालिबान के बीच अफ़ग़ानिस्तान के परवान प्रांत में वार्ता जारी रहने तक युद्ध विराम पर सहमति बन गई है।

ग़ौरतलब है कि पिछले साल अगस्त में अमरीकी सेना के बाहर निकल जाने के बाद, तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया था, जिसके बाद पंजशीर के इलाक़े में तालिबान और अहमद मसूद के संगठन अफ़ग़ानिस्तान राष्ट्रीय प्रतिरोधी मोर्चे के बीच लड़ाई भड़क उठी थी। तालिबान ने पाकिस्तान की वायु सेना की मदद से पंजशीर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था, लेकिन तालिबान की ओर से अहमद मसूद के साथ वार्ता के प्रस्ताव को स्वीकार करने का मतलब है कि तालिबान, अभी भी मसूद को अपना सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली विरोधी मानते हैं और बातचीत द्वारा उनके साथ मतभेदों का समाधान चाहते हैं। हालांकि हमें यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान द्वारा वार्ता की मेज़ पर आने का मतलब सत्ता में भागीदारी को स्वीकार करना नहीं है।

इस संदर्भ में अफ़ग़ानिस्तान के मामलों के जानकार अली वाहेदी का कहना है कि तालिबान से उलझने का विरोधियों का मक़सद, सत्ता में भागीदारी और एक समावेशी सरकार का गठन है, लेकिन तालिबान इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

मसूद और तालिबान के वार्ताकार किसी समझौते पर पहुंचने की उम्मीद ऐसी स्थिति में कर रहे हैं, जब दोनों के बीच बुनियादी मतभेद हैं। तालिबान का कहना है कि अहमद मसूद को हथियार ज़मीन पर रख देने चाहिएं, लेकिन इसके बावजूद वे देश में समावेशी सरकार के गठन और ग़ैर तालिबान गुटों और अल्पसंख्यकों को सत्ता में शामिल करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसके बावजूद, दोनों गुटों का बातचीत की मेज़ पर बैठना यह दर्शाता है कि दोनों ही लड़ाई को लेकर चिंतित हैं, ख़ास तौर पर तालिबान जानते हैं कि देश में अशांति की कोई भी चिंगारी, उनकी नई नई सत्ता के लिए कितनी घातक साबित हो सकती है।

एक अफ़ग़ान विश्लेषक हुसैन हुसैनी का मानना है कि तालिबान दूसरे राजनीतिक दलों और संप्रदायों को सत्ता में शामिल करने के लिए राज़ी नहीं हैं, हालांकि यह रणनीति हमेशा ही विफल रही है और तालिबान अपनी सत्ता के पहले चरण में भी इसका अनुभव कर चुके हैं।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान की चाबी इस वक़्त तालिबान के हाथ में है और अगर उन्हें इसे सुरक्षित रखना है तो अपने व्यवहार में नर्मी दिखानी होगी और मौजूदा वास्तविकताओं को मान्यता देनी होगी। दूसरी स्थिति में तालिबान देश में एक लोकप्रिय सरकार का गठन नहीं कर सकेंगे और विश्व समुदाय भी उनके शासन को मान्यता प्रदान नहीं करेगा, जिसके परिणामों से वे ख़ुद भी वाक़िफ़ हैं।