मध्यप्रदेश में छतरपुर ज़िले के ऐतिहासिक खजुराहो मंदिर दुनियाभर के लोगों का ध्यान खींचते हैं.
ये मंदिर और यहाँ की मूर्तियाँ कलाकारी का शानदार उदाहरण हैं.
इसी खजुराहो की ओर दिल्ली से जाती ट्रेन अक्सर छतरपुर के पास रुकती है. ये कोई स्टेशन नहीं है. ये वो जगह है, जहाँ ख़ासकर मंगलवार, शनिवार को चेन खींचकर ट्रेन रोकी जाती है.
ट्रेन से बड़ी संख्या में लोग उतरते हैं. इन लोगों के लिए बस या ऑटो, टैम्पो खड़े होते हैं.
ये लोग जिस जगह जा रहे हैं, उसका नाम है बागेश्वर बाबा धाम, जहाँ 26 साल के ‘बाबा’ धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री बैठते हैं.
धीरेंद्र शास्त्री फिर चर्चा में हैं. वजह- अंधविश्वास फ़ैलाने के आरोप, मीडिया कवरेज और आरोपों पर धीरेंद्र शास्त्री के जवाब.
ये पहली बार नहीं है, जब धीरेंद्र शास्त्री ख़बरों में हैं. ताली बजाते चुटीले अंदाज़, पर्चे पर भक्तों के सवाल, सनातन धर्म की बातें, चमत्कार, केंद्रीय मंत्रियों को आशीर्वाद, अजीब बर्ताव, विवादित बयान, ज़मीन पर क़ब्ज़े के आरोप… धीरेंद्र शास्त्री की शख़्सियत की कई परतें हैं.
इस कहानी में हम ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब और कहानी तलाशने की कोशिश करेंगे.
ग़रीबी में दक्षिणा से लेकर प्लेन तक
खजुराहो मंदिर से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है- गढ़ा.
इसी गाँव में रामकृपाल और सरोज के घर साल 1996 में धीरेंद्र पैदा हुए.
धीरेंद्र स्कूल के लिए निकलते, लेकिन मंदिर पहुँच जाते. छोटी उम्र से ही धीरेंद्र धोती-कुर्ता पहनने लगे थे.
स्थानीय लोगों का कहना है कि धीरेंद्र बेहद ग़रीब परिवार से थे, परिवार कई बार मांगकर खाना खाता था.
धीरेंद्र शास्त्री की वेबसाइट के मुताबिक़, ”धीरेंद्र शास्त्री का बचपन तंगहाली में बीता. कर्मकांडी परिवार था. पूजा पाठ में जो दक्षिणा मिल जाती, उसी से पाँच लोगों का परिवार चलता.”
धीरेंद्र कुल तीन भाई-बहन हैं. धीरेंद्र सबसे बड़े हैं. बहन रीता गर्ग और शालीग्राम गर्ग धीरेंद्र के बहन और भाई हैं.
बहन की शादी हो चुकी है और भाई आश्रम का काम देखते हैं.
गढ़ा में धीरेंद्र की उम्र के कुछ युवाओं ने बीबीसी को बताया, ”ज़्यादातर तो वो पंडिताई ही किया करते थे. पर हाँ, कभी कभार बैट-बॉल भी खेलते थे. आठवीं तक की पढ़ाई गढ़ा के सरकारी स्कूल में हुई.”
धीरेंद्र के दादा सैतू लाल गर्ग भी पूजा-पाठ और धार्मिक काम करते थे. दादा से पंडिताई के गुण धीरेंद्र ने सीखे और कम उम्र से ही पंडिताई करने लगे.
एक वीडियो में धीरेंद्र शास्त्री बताते हैं, ”हमें लगातार तीन बार सपने में हमारे दादा जी महाराज आए. हमसे अज्ञातवास पर जाने के लिए कहा. तब हम जानते नहीं थे कि अज्ञातवास क्या होता है. फिर हमें पता चला कि पांडवों ने भी किया था. तब हमें समझ आया कि अज्ञातवास से भी भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हो सकता है. हम जब अज्ञातवास से लौटे तो दरबार लगाने लगे. लोगों का साथ मिलता रहा.”
धीरेंद्र शास्त्री के साथ स्कूल में पढ़ चुके एक व्यक्ति बीबीसी को बताते हैं, ”स्कूल में धीरेंद्र एक क्लास मुझसे छोटा था. मालूम नहीं कि दसवीं पास हुआ या नहीं. पहले तो वहीं घूमा करता था. पढ़ाई में भी कोई बहुत ख़ास नहीं था. कहता था कि बड़े होकर धंधा करना है. फिर पता नहीं कहाँ, एक साल के लिए ग़ायब हो गया था. लौटा तो अलग ही था. धीरे-धीरे विधायकों, बाहुबलियों का आना शुरू हुआ. आप ये समझो कि ये बना तो कांग्रेस नेताओं के कारण है पर आज जो हो रहा है, उसमें भाजपा का रोल है. वरना पाँच साल पहले तक साइकिल, मोटर-साइकिल से घूमा करता था. ”
धीरेंद्र शास्त्री की वेबसाइट पर लिखा है, ”गुरुदेव (धीरेंद्र) को अपनी पढ़ाई बचपन में छोड़नी पड़ी. तीन भाई-बहनों में सबसे बड़े गुरुदेव का बचपन परिवार के ख़र्चे उठाने में बीता. फिर एक दिन दादा गुरु के आशीर्वाद से बालाजी महाराज की सेवा में जुट गए.”
इस सेवा का फल कितना मीठा है? धीरेंद्र शास्त्री की अब की ज़िंदगी जवाब देती है. धीरेंद्र शास्त्री अब प्लेन और कई बार प्राइवेट जेट से चलते हैं. भारत से लेकर लंदन तक उनका सम्मान होता है.
जब धीरेंद्र शास्त्री कहीं निकलते हैं, तो दर्जनों गाड़ियों का काफ़िला साथ चलता है. लेकिन ये सब संभव कैसे हुआ?
प्राचीन शिव मंदिर और बालाजी का मंदिर
गढ़ा में धीरेंद्र शास्त्री का जहाँ दरबार है, उसी के पास एक प्राचीन शिव मंदिर है. इसी मंदिर में एक संन्यासी बाबा होते थे, जिनकी विरासत और आशीर्वाद को आगे बढ़ाने की बातें धीरेंद्र करते दिखते हैं.
इसी शिव मंदिर परिसर में बालाजी का भी एक मंदिर है, जिसे देखने पर ये पता चलता है कि नया निर्माण है.
ऐसे वीडियो भी उपलब्ध हैं, जिसमें देख सकते हैं कि कुछ साल पहले तक इस जगह पर शिव मंदिर तो था, लेकिन बालाजी का मंदिर अभी जैसा नहीं बना था.
धीरेंद्र इस जगह से कुछ दूरी पर बैठते हैं.
चंदला विधानसभा के पूर्व विधायक और मौजूदा बीजेपी विधायक राजेश प्रजापति के पिता आरडी प्रजापति ने बीबीसी हिंदी से बात की.
आरडी प्रजापति धीरेंद्र शास्त्री के ख़िलाफ़ पहले भी मुखर रहे हैं.
आरडी प्रजापति कहते हैं, ”इस जगह पर शंकर जी का मंदिर था. बगल में हनुमान जी की मूर्ति थी. धीरेंद्र के बाबा यहाँ पूजा किया करते थे. इन लोगों के पास घर द्वार कुछ नहीं था. पास में एक सामुदायिक भवन था, जिसमें ये लोग बरसाती डालकर रहते थे. पूजा पाठ करते थे. गाँव वाले मदद कर देते थे. धीरे-धीरे इन्होंने दरबार लगाना शुरू किया.”
गढ़ा के रहने वाले उमाशंकर पटेल बीबीसी से कहते हैं, ”धीरेंद्र पर बाबा की कृपा हुई, तभी से सब बदल गया.”
कई मौक़ों पर धीरेंद्र शास्त्री ने रामभद्राचार्य जी महाराज को अपना गुरु बताया है.
रामभद्राचार्य बचपन से ही नेत्रहीन हैं और उनके भक्तों में यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ जैसे लोग भी शामिल हैं.
इंटरनेट से सफलता का रास्ता
जिस तरह भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ा, उसका फ़ायदा धीरेंद्र को भी मिला.
धीरेंद्र वीडियो यू-ट्यूब, वॉट्स ऐप और फिर संस्कार चैनल के ज़रिए बड़ी संख्या में लोगों तक पहुँचे. सोशल मीडिया ने भी अहम भूमिका अदा की.
आज धीरेंद्र के ज़्यादातर वीडियो पर लाखों व्यूज़ हैं. यू-ट्यूब पर 37 लाख से ज़्यादा सब्सक्राइबर्स और तीन साल में व्यू 54 करोड़ से ज़्यादा हैं.
फ़ेसबुक पर बागेश्वर धाम के 30 लाख, ट्विटर पर 60 हज़ार और इंस्टाग्राम पर 2 लाख से ज़्यादा फ़ॉलोअर हैं.
धीरेंद्र शास्त्री और बाबा बागेश्वर धाम की टीम इंटरनेट को कितना समझती है? कुछ उदाहरण:
बाबा बागेश्वर धाम की वेबसाइट गूगल सर्च को ध्यान में रखकर डिज़ाइन हुई है.
आसान भाषा में यूँ समझिए कि गूगल पर लोग क्या लिखकर सर्च करते होंगे, किस सवाल को सबसे ज़्यादा खोजते होंगे और किन कीवर्ड (शब्दों) के साथ खोजते होंगे, इसका ध्यान रखा गया है.
ताकि अगर गूगल पर कोई सर्च करे, तो सीधा धीरेंद्र की वेबसाइट तक पहुँचे.
23 जनवरी को वेबसाइट के होम पेज पर ‘बागेश्वर धाम श्री यंत्रम्’ का प्रचार हो रहा था.
इस प्रचार में दावा था कि ये यंत्र भारत के सिर्फ़ पाँच हज़ार ‘भाग्यशाली’ लोगों को ही मिलेगा और इसको घर में रखने से ग़रीबी दूर होगी.
रजिस्ट्रेशन करने के लिए जहाँ क्लिक करवाया जाता है, वहाँ अपना फ़ोन नंबर और नाम लिखने पर संस्कार टीवी की वेबसाइट पर अकाउंट बन जाता है.
ये संस्कार टीवी वही है, जिसके मालिक योगगुरु और उद्योगपति रामदेव हैं.
विवादों में घिरे धीरेंद्र के समर्थन में रामदेव भी आए हैं. रामदेव ने कहा, ”हर जगह पाखंड नहीं खोजना चाहिए.”
यू-ट्यूब में थंबनेल यानी वीडियो प्ले करने से पहले दिखने वाली फ़ोटो काफ़ी अहम मानी जाती है.
अगर आप बागेश्वर धाम के यू-ट्यूब चैनल के वीडियोज़ पर नज़र दौड़ाएँगे, तो वो सर्च और लोगों के मिजाज़ को ध्यान में रखकर बनाए दिखते हैं. कुछ उदाहरण:-
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धीरेंद्र शास्त्री के दरबार में जाने की प्रक्रिया
इंटरनेट से इतर बात करें, तो धीरेंद्र के दीवानों में ज़मीन पर भी काफ़ी लोग दिखते हैं.
धीरेंद्र के चेचेरे भाई लोकेश गर्ग बीबीसी हिंदी से बताते हैं, ”हर रोज़ लगभग 10-15 हज़ार लोग बागेश्वर धाम पर आते हैं. जब गुरु जी महाराज (धीरेंद्र) रहते हैं, तब मंगलवार, शनिवार को यहाँ आने वालों की संख्या डेढ़-दो लाख से ज़्यादा होती है.”
जनवरी में छत्तीसगढ़ के दरबार में पहुँचे एक पत्रकार ने बताया कि आयोजन में तीन लाख से ज़्यादा लोग पहुँचे थे.
लेकिन इन दरबारों में पहुँचा कैसे जाता है और ये पूरी प्रक्रिया क्या है? इसकी जानकारी बाबा बागेश्वर धाम की वेबसाइट पर है.
वेबसाइट के मुताबिक़, बागेश्वर धाम में वक़्त-वक़्त पर टोकन दिए जाते हैं. कमेटी महाराज के फ़ैसले के बाद श्रद्धालुओं को टोकन डाले जाने की तारीख़ बता देती है.
ये जानकारी दरबार और सोशल मीडिया से देते हैं. टोकन पेटी में श्रद्धालुओं को अपना नाम, पिता का नाम, गाँव, ज़िला, राज्य, पिन कोड और फ़ोन नंबर लिखकर डालना होता है.
फिर जिसका टोकन लगता है, उससे कमेटी संपर्क करती है. जिस दिन का टोकन, उसी दिन बागेश्वर धाम जाना होगा.
वेबसाइट में लिखा है, ”गुरुदेव ख़ुद बता देते हैं कि कितनी पेशी करनी है पर कम से कम पाँच मंगलवार पेशी करने का आदेश हर भक्त को आता है.”
ये प्रक्रिया निशुल्क है.
बागेश्वर धाम की वेबसाइट धीरेंद्र शास्त्री की ओर से कुछ और काम किए जाने का भी दावा करती है और ये काम बागेश्वर धाम में चढ़ने वाले रुपयों के आधे हिस्से और दान के पैसों से किए जाते हैं. जैसे:-
गौरक्षा
ग़रीब लड़कियों की शादी
मंगलवार, शनिवार को भूखों के लिए भंडारा
पर्यावरण के लिए बागेश्वर बाग़ीचा
वैदिक गुरुकल बनाने की योजना
धीरेंद्र शास्त्री की ‘मज़बूत’ होती ज़मीन
इन टोकन और बागेश्वर धाम में लोगों की श्रद्धा इस क़दर बढ़ रही है कि गढ़ा गाँव में ज़मीन के दाम भी तेज़ी से बढ़े हैं.
गढ़ा में दुकानें और दूसरी सुविधाएँ भी तेज़ी से बढ़ी हैं.
आलम ये है कि यहाँ आने वाले लोगों की संख्या के कारण ज़मीन के दाम काफ़ी बढ़े हैं.
जहाँ ज़मीन होती है, वहाँ विवाद की आशंकाएं होती हैं. धीरेंद्र शास्त्री भी इससे अलग नहीं हैं.
चंदला के पूर्व विधायक आरडी प्रजापति आरोप लगाते हैं, ”गढ़ा में जो सरकारी ज़मीन थी, उस पर धीरेंद्र शास्त्री ने अपना निर्माण करवा लिया.”
धीरेंद्र शास्त्री पर ज़मीन हड़पने के आरोप कुछ स्थानीय लोगों ने भी लगाया था और धरना भी दिया था और इस बारे में प्रशासनिक अधिकारियों को शिकायत भी की गई थी.
ये मामला कोर्ट तक पहुँचा और अदालत ने निषेधाज्ञा जारी करते हुए किसी तरह का हस्तक्षेप न करने का आदेश दिया था.
इस केस को दर्ज करने वाले कई लोगों में से 26 साल के एक संतोष सिंह भी थे.
संतोष सिंह ने बीबीसी हिंदी से कहा, ”इस जगह पर हमारी दुकानें थीं. एक रात ये लोग आए और दुकानें हटवा दीं. हमें पता तक नहीं चला. हम कलेक्टरेट भी गए लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. हम धरने पर भी बैठे. ये जगह मंदिर के पीछे है. फिर अभी कुछ दिन पहले हमसे इन लोगों ने कहा कि ज़मीन हमें दे दो और रजिस्ट्री हमारे नाम कर दो, इसलिए अब हमारे पापा, चाचा लोगों ने लगभग 30 लाख रुपए में ये ज़मीन बेच दी है.”
सरकारी ज़मीन, तालाब और श्मशान
धीरेंद्र की वेबसाइट पर पर्यावरण रक्षा के लिए पेड़ पौधे लगाए जाने की बातें दिखती हैं. लेकिन गढ़ा में ही उन पर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के आरोप भी हैं.
गढ़ा में एक तालाब है और साथ ही मंदिर के पास श्मशान भी था.
आरडी प्रजापति आरोप लगाते हैं, ”गाँव में एक तालाब था. श्मशान जहाँ मुर्दे जलते थे, उस पर क़ब्ज़ा कर लिया. गाँव के सामुदायिक भवन पर भी क़ब्ज़ा किया. ये ऐसा इलाक़ा है, जहाँ कुरीतियाँ और अंधविश्वास आज भी है. पाँच रुपये के लॉकेट को पाँच हज़ार तो कभी 51 हज़ार में देना शुरू किया. ऐसे ही करोड़ों में खेल गए. इस तरह से इनका व्यवसाय चलने लगा.”
धीरेंद्र शास्त्री पर लगे इन आरोपों को लेकर बीबीसी हिंदी ने छतरपुर के ज़िलाधिकारी से संपर्क किया, लेकिन ख़बर लिखे जाने तक कोई जवाब नहीं आया है.
जवाब आने पर उनका पक्ष कहानी में अपडेट किया जाएगा.
धीरेंद्र के चचेरे भाई और उनकी टीम के अहम सदस्य लोकेश गर्ग क़ब्ज़े के आरोपों को ख़ारिज करते हैं.
लोकेश बीबीसी हिंदी से कहते हैं, ”श्मशान की ज़मीन और तालाब आज भी है. स्वच्छ भारत अभियान को ध्यान में रखते हुए हमने श्मशान की ज़मीन की सफ़ाई करवाई थी. हम जहाँ रहते हैं, वो जगह भी हमारे दादाजी ने बनवाई थी. रही बात अंधविश्वास की, तो लोग खड़ा करते हैं किसी को भीड़ में से, हम थोड़ी कहते हैं कि इसको उठाओ या उसको उठाओ. ये तो बालाजी की कृपा है.”
गढ़ा से निकलकर अब दूसरे शहर में नौकरी कर रहे एक व्यक्ति बीबीसी हिंदी से कहते हैं, ”इन लोगों के पास इतना पैसा और ज़मीन कहाँ थी कि ये लोग सामुदायिक भवन बनवा दें. अगर इन लोगों ने नीचे वाले फ़्लोर पर पुताई वगैरह नहीं करवाई होगी, तो अब भी दिख जाएगा कि वो सरकारी जगह है.”
ज़मीन से जुड़े विवादों पर लोकेश कहते हैं, ”जब कोई आगे जाता है तो उसके पीछे कोई न कोई षडयंत्र रच ही दिया जाता है. जो ज़मीन है वो मंदिर के लिए पहले से ही थी. कोई विरोधी होता है, उनके कहने पर कुछ लोग बोल रहे थे. पर जब सच पता चला तो वो लोग पीछे हट गए.”
इस बीच गढ़ा को श्रद्धालुओं के लिए तैयार करने की कोशिशें भी तेज़ हुईं. इन कोशिशों की एक हक़ीक़त स्थानीय लोगों की भी है.
उमाशंकर का पैतृक घर गढ़ा में है और परिवार अब छतरपुर में रहता है.
उमाशंकर कहते हैं, ”गाँवों में सालों से लोग अपने घरों में रह रहे होते हैं. कोई दस्तावेज़ वगैरह थोड़ी होता है. पहले सरपंच ने जहाँ कह दी, वहाँ लोग घर बना लेते थे. अब ये लोग मशहूर हो गए, तो दस्तावेज़ों का मुद्दा बनाकर रास्ते में जो भी घर पड़े, उनको प्रशासन की मदद से हटवा दिया. प्रशासन में शिकायत की तो जवाब मिला- जाँच चल रही है.”