साहित्य

पुरुष के पैरों की ज़ंज़ीर क्या है?

Sarvesh Kumar Tiwari
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पुरुष के पैरों की जंजीर क्या है? दायित्वों का बोझ! परिवार और समाज की उम्मीदों का दबाव! स्वयं से जुड़े हर व्यक्ति की आवश्यक्ताओं को पूरा करने की सहज मासूम जिद्द … मजा यह कि पुरुष अपने पैरों में यह जंजीर स्वयं बांधता है। जीवन भर बंधा रहता है, कभी उफ नहीं करता। बल्कि इस जंजीर को ही सबसे प्रिय आभूषण मान कर प्रसन्न रहता है।

अधिकांश गृहस्थ तो यह भूल ही जाते हैं कि उनकी भी कुछ इच्छाएं थीं। उन्होंने अपने लिए भी कुछ चाहा था, उनके भी कुछ सपने थे। पैरों में बंधी कर्तव्यबोध की यह जंजीर उन्हें अपने बारे में सोचने ही नहीं देती।

समाज पुरुषों से यही उम्मीद रखता है कि वे अपने पैरों में यह जंजीर बाँधे रखें। पर वही समाज उसे खुल कर सांस भी नहीं लेने देता। एक तरफ हजार उम्मीदें, तो दूसरी ओर पितृसत्ता के नाम पर गाली…

तस्वीर में किसी कलाकार ने अपने एक पैर में जंजीर और दूसरे में घुंघरू बांधा है। अब पुरुष के पैरों के घुंघरू क्या हैं? मनुष्य अपने भीतर के आनन्द को व्यक्त करने के लिए जिस सर्वश्रेस्ठ मार्ग का प्रयोग करता है, वह नृत्य है। नृत्य को और प्रभावी बनाने का साज है घुंघरू, तो कह सकते हैं कि घुंघरू आनन्द का प्रतीक है।

तो भाई साहब! जबतक एक पैर में जिम्मेवारियों की जंजीर न बंधे, तबतक दूसरा घुंघरू के आनन्द नहीं ले सकेगा। यह व्यक्तिगत स्तर पर भी सही है, पारिवारिक स्तर पर भी और सामाजिक स्तर पर भी…

घर का एक व्यक्ति अरब की गर्म धूप में अपनी देह जला कर मजूरी करता है, तब बाकी लोग एयर कंडीशन में सो पाते हैं। समाज के कुछ लोग खेतों में पसीना बहाते हैं तो सबको अन्न मिलता है, कुछ सीमाओं पर रक्त बहाते हैं तो शेष अपने घरों में आराम से सोते हैं।

वैसे पुरुष के पैरों में घुंघरू होना कभी कभी हेय दृष्टि से भी देखा जाता है। कुछ गालीनुमा शब्द गढ़ दिए गए हैं उनके लिए… तो एक दृष्टि यह भी है कि पुरुष या तो पैरों में जिम्मेवारी की जंजीर बांध कर अपना पौरुष सिद्ध करे, या उसे घुंघरू वाला मान लिया जाएगा। या तो अर्जुन, अन्यथा शिखंडी… इस बीच में समाज यह जानना भी नहीं चाहता कि पुरुष स्वयं क्या चाहता है। उसकी इच्छा किसी के लिए महत्वपूर्ण नहीं… वह बस जोत दिया गया है स्थापित मान्यताओ के हल में…

वैसे इस तस्वीर पर एक भाव मेरे कवि अनुज अतुल कुमार राय देते हैं-

ज़िन्दाबाद करो उस आशिक का जो ज़ंजीरों में भी,
हँस कर बोल रहा पायल की छम छम ज़िन्दाबाद रहे!

कवियों के ऊपर एक अलग ही रुमानियत चढ़ी होती है। वह लेखकों के भाग्य में नहीं।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।