विशेष

पूँजी की आततायी सत्ता सिर्फ़ दमन-तंत्र के बूते नहीं चल सकती, उसे प्रचार-तंत्र के अतिरिक्त एक विराट बौद्धिक-सांस्कृतिक मशीनरी की ज़रूरत होती है!

Kavita Krishnapallavi
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दलाल ( ब्रोकर ) को मैं मानव जाति का सदस्य नहीं मानता !
— बाल्ज़ाक
बाल्ज़ाक बुर्जुआ समाज और राजनीति के मानवद्रोही चरित्र और व्यावसायिक गतिविधियों के सूक्ष्म पर्यवेक्षक और तीक्ष्ण आलोचक थे I पर बुर्जुआ समाज के चरित्रों में शायद वह सबसे अधिक घृणा दलालों और सूदखोरों से करते थे I सूदखोरों से मेरा वास्ता कभी नहीं पड़ा और सट्टा बाज़ार तथा सत्ता बाज़ार के दलालों का भी कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है I इनके बारे में अनुभवी साथियों से सुनकर और पढ़कर बस अनुमान लगा पाती हूँ कि बाल्ज़ाक इस प्रजाति से इतनी नफ़रत क्यों करते थे ! दिल्ली और विभिन्न शहरों में किराए की जगह ढूँढते हुए प्रॉपर्टी डीलर्स से साबका खूब पड़ा और यह देखने का मौक़ा मिला कि दलाल चाहे जैसा भी हो, वह मनुष्य तो कत्तई नहीं रह जाता ! वह नीचता, पशुता, झूठ-फरेब, आने-पाई और हृदयहीनता के बदबूदार बजबजाते रसातल में पड़ा कोई सरीसृप होता है I

कला-साहित्य-संस्कृति की दुनिया में भी सत्ता और पूँजी अपना घिनौना खेल दलालों के जरिये ही खेलती हैं ! ये दलाल भी कई किस्म के होते हैं I जो पद-पीठ-प्रतिष्ठा-पुरस्कार से अघा चुके मठाधीश होते हैं, वे राजनेताओं के साथ मंच सुशोभित करते हैं, साहित्य-संस्कृति के ट्रस्ट चलाने और किताबें छपने वालें सेठों के घरों के ‘रामू काका’ होते हैं और विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों के अधिपति होते हैं, उनका अपना साहित्यिक-सांस्कृतिक साम्राज्य होता है, पर मूलतः वे सत्ता और पूँजी की दुनिया के दलाल ही होते हैं जो ज्यादा से ज्यादा लेखकों-कवियों-कलाकारों को सत्तासेवी और जन-विमुख बनाने का काम करते हैं ! जो इनके जाल में फँसकर इनके दरबार में हाजिरी बजा आता है, या वहाँ का स्थायी नागरिक हो जाता है, वह फिर दूसरों को इस ट्रैप में फँसाने का काम करने लगता है ! कभी इनका विरोध करने वाला भी कई बार इनकी पांतों में ठीक उसीतरह शामिल हो जाता है जिसतरह ड्रेक्युला से लड़ने वाले व्यक्ति के गले में ड्रेक्युला जब दांत धँसा देता है तो वह भी ड्रेक्युला बन जाता है !

जो लोग वैचारिक कमजोरी के कारण इस सिस्टम को नहीं समझते और यूटोपियाई किस्म के आदर्शवादी होते हैं, वे अक्सर इनके ट्रैप में फँस जाते हैं और पद-पुरस्कार-ख्याति की थोड़ी सी पंजीरी फाँकने के बाद उनकी निष्ठाएँ बदल जाती हैं और नसों में खून की जगह रंगीन शरबत बहने लगता है ! आदमी को पता ही नहीं चलता कि दलालों का विरोध करते-करते कब वह भी उन्हीं में से एक हो गया !

सत्ता और पूँजी के ऐसे सांस्कृतिक-साहित्यिक दलालों की मंडी में इन दिनों खुले दक्षिणपंथियों से कईगुना अधिक पूछ उन छद्मवेषी वामपंथियों की है जो ज्यादा विभ्रमकारी और भ्रष्टकारी क्षमता रखते हैं ! ये साहित्यिक-सांस्कृतिक दलाल ज्यादा ख़तरनाक इसलिए भी हैं कि बोली-भाषा और हाव-भाव से ये दलालों जैसे नहीं लगते ! ये मानवता, मानवीय मूल्य,और सौन्दर्य आदि की ही नहीं, मंच और मौक़ा देखकर बर्बरता, दमन आदि के विरोध की भी बातें करते हैं और बहुत संवेदनशील और ईमानदार दीखने का नाटक बहुत कुशलता से कर लेते हैं !

पूँजी की आततायी सत्ता सिर्फ़ दमन-तंत्र के बूते नहीं चल सकती ! उसे प्रचार-तंत्र के अतिरिक्त एक विराट बौद्धिक-सांस्कृतिक मशीनरी की ज़रूरत होती है ! लेकिन इतने से भी काम नहीं चलता ! उसे ऐसे बौद्धिक दलाल चाहिए जो जनता के शिविर में घुसकर जनता की भाषा में सत्ता के दूरगामी हित की बातें और काम करें ! तमाम ऐसे भगोड़े, रिटायर्ड वामपंथी हैं, छद्म-वामपंथी लम्पट-पियक्कड़ हैं, नाज़ुक मसलों पर चुप रहने वाले चतुर-चालाक सोशल डेमोक्रैट्स और जर्जर गांधीवादी-समाजवादी मुखौटों वाले बुर्जुआ डेमोक्रैट लिबरल्स हैं जो आज यही काम कर रहे हैं ! जो भले लोग इनके ख़िलाफ़ बोलने से बच रहे हैं या इनकी सच्चाई को समझ नहीं पा रहे हैं, वस्तुगत तौर पर वे भी जनता के दुश्मनों के शिविर को ही लाभ पहुँचा रहे हैं !

(चार वर्ष पुरानी पोस्ट एक बार फिर, क्योंकि याददिहानी ज़रूरी है)

 

Kavita Krishnapallavi
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(ये टिप्पणियाँ कुछ वर्षों पुरानी हैं! अभी के समय में बहुत प्रासंगिक लग रही हैं, इसलिए फिर से दे रही हूँ)
बाल्ज़ाक ने लिखा था कि ‘हर संपत्ति-साम्राज्य के पीछे कोई बड़ा अपराध होता है !’ बाल्ज़ाक का यह कथन पूँजीवादी समाज के एक ऐसे अन्तर्निहित तर्क को उद्घाटित करता है, जिसे हम जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी विस्तारित कर सकते हैं ! अपवादों को अगर छोड़ दें, तो यश-ख्याति, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा सत्ताधारियों और सेठों द्वारा प्राप्त प्रशंसा, पुरस्कार, पद आदि के भी जो साम्राज्य एक रुग्ण-पतित-अत्याचारी-अनैतिक बुर्जुआ समाज में जीते हुए कुछ भद्र-कुलीन-बौद्धिक जन सामाजिक-राजनीतिक जीवन या साहित्य-कला-संस्कृति-थियेटर आदि के क्षेत्र में खड़े कर लेते हैं, उनके जीवन की नीम-अँधेरी पार्श्वभूमि में यदि झाँका जाए और उनकी रंगशाला के तलघर की खोजबीन की जाए; तो वहाँ शातिर अपराधी के तमाम सरंजाम — दस्ताने, नकाब, छुरे, नक़बजनी और ठगी के सामान, भेस बदलनेके सामान आदि मिल जायेंगे ! वहाँ दरबारी पोशाकें भी मिलेंगी और स्टाम्प पेपर्स पर टंकित आत्मा और ज़मीर को गिरवी रखने के दस्तावेज़ भी !
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बाल्जाक का कहना है,”दिन दहाड़े जुआ खेलने वाले और रात को खेलने वाले के बीच वही फ़र्क़ होता है जो एक बेपरवाह पति और अपनी प्रेमिका की खिड़की के नीचे बेसुध पड़े प्रेमी के बीच होता है !”

साहित्य-कला-संस्कृति की दुनिया में खुले दक्षिणपंथी सत्ताधर्मियों और छद्म-वामपंथी सत्ताधर्मियों में भी बस इतना ही फ़र्क़ होता है I
पहले कुछ लोग होते थे जो धूप में चटाई बिछाकर सुड़क-सुड़क कर घी पीते थे, सबके सामने ! और कुछ कम्बल ओढ़कर पीते थे I धीरे-धीरे सभी जान गए कि कौन-कौन घी पी रहा है !

तब यह तर्क दिया जाने लगा कि ड्योढ़ी से जब घी बँट ही रहा है, तो पीने में कोई बुराई नहीं है ! अब जब भी किसी ड्योढ़ी से घी बँटता है, सभी मंदिर के बाहर बैठे भिखमंगों की तरह कतार लगाकर घी पीने बैठ जाते हैं ! कहते हैं कि घी पीने से हमारे कंठ में बहुत ताक़त आ जायेगी और हम और अधिक दहाड़ भरी आवाज़ में जनता के गीत गायेंगे !