धर्म

पैग़म्बरे इस्लाम ने मुसलमानों की एकता व एकजुटता और हर प्रकार के फूट और मतभेद से दूरी को ईमान की निशानी बताया!

इस्लाम से पहले के दौर में गहरा जातीय व क़बायली विवाद पूरे अरब जगत में फैला हुआ था।

इस बिखराव और मतभेद के कारण हमेशा रक्तरंजित लड़ाइयां होती रहती थीं। इन हालात में इस्लाम ने एकेश्वरवाद का संदेश दिया और इसी संदेश के आधार पर एकता, भाईचारे तथा हर प्रकार के द्वेष से दूर रहने की भावना जगाई। इस्लाम धर्म ने तक़वे को आधार बनाया तथा जातीया, क़बायली, नस्ली, व भाषाई अंतरों को नकारते हुए एकता की बुनियाद डाली। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपना मिशन शुरू करने के समय से लेकर अपने स्वर्गवास तक क़ुरआन की आयतों के माध्यम से ईश्वरीय शिक्षाओं से लोगों को अवगत करवाया और मुसलमानों के बीच भाईचारे और समरसता की भावना मज़बूत करने के लिए काम किया यहां तक कि आसमानी धर्म के मानने वाले ग़ैर मुस्लिमों से भी तालमेल उत्पन्न किया।

इस्लाम के आरंभिक दौर का इतिहास बताता है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने एकेश्वरवाद को इस प्रकार केन्द्र में रखा कि अज्ञानता के दौर में मतभेद और फूट पैदा करने वाले कारक हाशिए पर चले गए। पैग़म्बरे इस्लाम अरब थे और कुरआन भी अरबी भाषा में उतरा। उन्होंने अपना अभियान हर प्रकार के नस्ली, जातीय तथा भाषीय मतभेदों से ऊपर उठकर शुरू किया और अरब व ग़ैर अरब मुसलमानों के संबंध में उनकी समानता पर आधारित दृष्टि और बरताव उदाहरणीय है। सलमान फ़ारसी, बेलाल हबशी, सहीब रूमी जैसे लोगों का पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने में इस्लाम धर्म स्वीकार करना और फिर उन्हें पैग़म्बरे इसलाम के साथियों के बीच विशेष सम्मान मिलना इसी बात का प्रमाण है। यही वजह थी कि इसलाम धर्म अरब प्रायद्वीप में फैल जाने के बाद सीमाओं से बाहर निकला और दुनिया के अन्य भागों में फैलता चला गया। पैग़म्बरे इस्लाम ने जातीय व क़बायली भेदभाव और अत्याचार का रास्ता बंद करने के लिए मुसलमानों को एक दूसरे का भाई ठहराया और कहा कि मुसलमान कभी भी अपने भाई पर अत्यचार नहीं कर सकता और कभी भी उसे किसी अत्याचारी के हवाले नहीं कर सकता।

पैग़म्बरे इस्लाम ने मुसलमानों की एकता व एकजुटता और हर प्रकार के फूट और मतभेद से दूरी को ईमान की निशानी बताया। उन्होंने आख़िरी हज के अवसर पर एक बार फिर स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस्लाम में श्रेष्ठता का आधार तक़वा और ईमान है। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि किसी भी अरब को ग़ैर अरब पर और किसी भी ग़ैर अरब को अरब पर श्रेष्ठता नहीं है। श्रेष्ठता का आधार केवल तक़वा है। उन्होंने एकेश्वरवाद के आधार पर मुसलमानों की एकता को मज़बूत किया। पैग़मबरे इस्लाम की जीवनी में भी इस बात के अनेक व्यवहारिक उदाहरण हैं जिनसे यह साबित होता है कि एकता इस्लाम के संदेश का मूल तत्व है। जैसे कि उन्होंने मक्का से पलायन करके मदीना जाने वाले मुसलमानों और मदीने के स्थानीय मुसलमानों के बीच किसी भी प्रकार के मतभेद का रास्ता बंद करने के लिए और उनके बीच हार्दिक संबंध स्थापित करने के लिए बड़ा ठोस क़दम उठाया जिससे यहूदियों और मुनाफ़िक़ों की योजनाओं पर पानी फिर गया। वह मुसलमानों के बीच मतभेद फैल जाने की आशा लगाए बैठे थे। पैग़म्बरे इस्लाम ने मक्के से आने वाले मुसलमानों और स्थानीय मुसलमानों को एक दूसरे की धन संपत्ति का संरक्षक बनाया उन्हें एक दूसरे का भाई और अभिभावक बनाया। मदीने के मुसलमान मक्के से आने वाले मुसलमानों को अपने घरों में ठहराएं। मक्के से पलायन करके मदीना पहुंचने वाले मुसलमानों और मदीने के स्थानीय मुसलमानों के बीच आर्थिक अंतर को समाप्त करने की दिशा में यह बहुत महत्वपूर्ण क़दम था। यह भी दुशमन की साज़िश को विफल बनाने वाला क़दम था।

पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी यह प्रयास किया कि नस्ली और क़बायली मतभेद की जड़ ख़त्म कर दें। इसी लिए उन्होंने अंतिम क्षणों में एक ख़ुतबा दिया जिसमें उन्होने मुसलमानों को सचेत किया कि कहीं वह आपसी मतभेद में पड़कर उसी अज्ञानता के काल में न लौट जाएं जो इस्लाम के आगमन से पहले था। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस्लामी समाज को मतभेद से बचाने के लिए अपने अंतिम हज के बाद हज़रत अली को अपना ख़लीफ़ा निर्धारित किया लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम के इस स्पष्ट आदेश के बावजूद जो मुसलमानों की प्रतिष्ठा और गरिमा की रक्षा करने वाला था पैगम्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद उनके इस आदेश को नज़रअंदाज़ करते हुए कुछ मुसलमान सक़ीफ़ा नामक स्थान पर एकत्रित हो गए और पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी के चयन के बारे में बातचीत शुरू हो गई। खेद के साथ कहना पड़ता है कि सक़ीफ़ा में ही मतभेद और विवाद का बीज बो दिया गया। ख़लीफ़ के चयन की बहस में जम कर विवाद हुआ। इस तरह सक़ीफ़ा पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद मुसलमानों के बीच मतभेद और टकराव की जड़ बन गया। विवाद कहीं व्यापक लड़ाई का रूप न धारण कर ले इस उद्देश्य से हज़रत अली ने बड़ी सूझ बूझ के साथ क़दम उठाया और मुसलमनों की एकता की रक्षा की।

इतिहास के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर हज़रत अली अपने अधिकार से पीछे हट गए और उन्होंने मुसलमानों की एकता की ख़ातिर ख़लीफ़ा के विरुद्ध कोई भी क़दम उठाने से परहेज़ किया। जब सक़ीफ़ा की घटना घटी और उसके नतीजे में हज़रत अबू बक्र ख़लीफ़ा बन गए तो इस प्रकार से रहे और इस तरह से क़दम उठाए कि अबू बक्र के अन्य विरोधियों को लाभ उठाने का मौक़ा न मिले जो अपने कुछ स्वार्थों के कारण हज़रत अबू बक्र का विरोध कर रहे थे। हज़रत अली ने एसी रणनीति अपनाई कि इसलाम के वैभव और मुसलमानों की एकता को कोई नुक़सान न पहुंचे। जब अबू बक्र का विरोध बहुत बढ़ गया और इस बात पर ज़ोर दिया जाने लगा कि हज़रत अली की बैअत की जाए अर्थात उन्हें ख़लीफ़ा बनाया जाए तो हज़रत अली ने विरोध कर रहे लोगों को फ़ितने की ओर से सचेत किया। उन्होंने कहा कि जातीय व नस्ली द्वेष के तहत क़दम उठाने की कोशिश कदापि न की जाए।

हज़रत अली ने इस अवसर पर अपने भाषण में कहा कि फ़ितने की लहरें उठ गई हैं, इस्लाम की नौका भंवर में फंस गई है अरब दुनिया के हर कोने में नया फ़ितना खड़ा हो गया है और हर फ़ितने से एक लहर निकली है। मदीना जो इस्लाम का केन्द्र है इन्हीं लहरों में थपेड़े खा रहा है। आज हर क़दम से यह तूफ़ान तेज़ होगा तथा आंदोलनों के स्रोत को डुबो देगा। मतभेद भड़काने वाले कामों से हाथ खींच लेना चाहिए। जातीय द्वेष और घमंड को हाशिए पर डाल देना चाहिए इस लिए कि यह घमंड इंसानों के हाथों के बनाए हुए ताज की भांति हैं जिनकी कोई क़ीमत नहीं है।

मदीने के लोग बार बार हज़रत अली से कह रहे थे कि वह ख़लीफ़ा के विरुद्ध कार्यवाही करें तो हज़रत अली उन्हें शांत करते थे और आग्रह करते थे कि धर्म की रक्षा हर चीज़ से अधिक महत्वपूर्ण है। पहले ख़लीफ़ा के शासन काल में हजरत अली ने ख़लीफ़ा की भी बहुत मदद की। वह भी संचालन और प्रबंधन के मामलों तथा युद्ध की रणनीति के बारे में हज़रत अली से परामर्श लेते थे। हज़रत अली राजनैतिक व सामाजिक मंचों पर इस लिए मौजूद रहते थे और ख़लीफ़ा की मदद करते थे कि इस्लामी समाज की एकता बनी रहे। हज़रत अली की यह शैली बाद के दो ख़लीफ़ाओं के ज़माने में भी जारी रही। हज़रत उमर के ख़लीफ़ा बनने के बाद भी हज़रत अली ने उनकी मदद की इसलिए कि यदि हज़रत अली अपनी सलाह न देते और हज़रत उमर की मदद न करते तो संभव था कि इस्लामी समाज को नुक़सान पहुंचे। हज़रत अली ने हज़रत उमर की इतनी मदद की और इतने मुश्किल समय में काम आए कि हज़रत उमर ने कहा कि यदि अली न होते तो मैं मर जाता।

हज़रत उसमान को ख़लीफ़ा बनाने के लिए जो शैली अपनाई गई थी हज़रत अली उससे असहमत थे लेकिन फिर भी इस्लाम की रक्षा के लिए और मुसलमानों का गौरव बढ़ाने के लिए अपनी पुरानी शैली जारी रखी। जब उसमान के सामाजिक और राजनैतिक फ़ैसलों पर पूरे इस्लामी समाज में असंतोष भर गया तो ह़जरत अली ने हज़रत उसमान को नसीहत की कि अपने रिश्तेदारों को प्राथमिकता देने और लाभ पहुंचाने की अज्ञानता के दौर की परम्परा को इस्लामी समाज में न फैलाएं। जब आम मुसलमान हज़रत उसमान के शासन से तंग आ गए तब भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह प्रयास रहा कि मुसलमानों के बीच मतभेद न फैले और विद्रोह की आग न भड़के।

हज़रत अली ने लोगों को मुसलमानों के बीच मतभेद फैलाने की ओर से सचेत किया और इस्लामी समाज के भीतर मतभेद फैलने के ख़तरनाक परिणामों की ओर ध्यान केन्द्रित करवाया। हज़रत अली ने अपने भाषण में कहा कि मतभेद और फूट से परहेज़ करो इस लिए कि अलग राग अलापने वाला इंसान शैतान का चारा बन जाता है जिस तरह गल्ले से दूर हो जाने वाली भेंड़ भेड़िए का आहार बन जाती है।

हज़रत अली ने जब यह सुना कि बनी हाशिम के कुछ लोग क़ुरैश के लोगों से जातीय विषयों पर बहस कर रहे हैं तो उन्होंने मना किया और संदेश भेजा कि इन मतभेदों में न पड़े। हज़रत अली ने अपने पांच वर्षीय शासन में हमेशा यह कोशिश की कि विरोधियों से नर्मी के साथ पेश आएं। इस्लामी एकता की रक्षा करें। वह विरोधियों को उस समय तक सहन करते रहते थे जब कि वह इस्लामी शासन के विरुद्ध हथियार न उठा लें। उस समय तक राजकोष से उन्हें उनका हक़ भी देते रहते थे।

हज़रत अली ने अपने पुत्र हज़रत इमाम हसन से अपनी आख़िरी वसीयत में एकता को बनाए रखने और मतभेद से दूर रहने पर बल दिया। हज़रत अली ने कहा कि ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और मतभेद से दूर रहो मैंने पैग़म्बरे इस्लाम को यह फ़रमाते सुना कि लोगों के विवाद हल करके उन्हें आपस में मिला देना नमाज़ और रोज़े से भी श्रेष्ठ काम है।