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“बेटे की अधजली लाश पर भी नहीं रोया वरना मेरे आँसू पूरे शहर को जला देते”इमाम इमदादुल रशीदी

“मैं शांति चाहता हूं। मेरा बेटा चला गया है। मैं नहीं चाहता कि कोई दूसरा परिवार अपना बेटा खोए। मैं नहीं चाहता कि अब और किसी का घर का जले। मैंने लोगों से कहा है कि अगर मेरे बेटे की मौत का बदला लेने के लिए कोई कार्रवाई की गई तो मैं आसनसोल छोड़ कर चला जाऊंगा। मैंने लोगों से कहा है कि अगर आप मुझे प्यार करते हैं तो उंगली भी नहीं उठाएंगे। मैं पिछले तीस साल से इमाम हूं, मेरे लिए ज़रूरी है कि मैं लोगों को सही संदेश दूं और वो संदेश है शांति का। मुझे व्यक्तिगत नुकसान से उबरना होगा।

भारत के हर नागरिक की ज़बान पर इन महान विचार को रखने वाले महान इंसान का नाम है जिसने अपनी सूझबूझ और विवेक से बड़ा दँगा या बहुत ज़्यादा जानी और माली नुक़सान होने से बचा लिया है,जिसके कारण उनकी हर कोई तारीफ करते हुए नही थक रहा है।

इस बारे में मौलाना इमदादुल राशीदी साहब ने बताया कि”त्यौहार का दिन था. बेटा नमाज़ पढ़ रहा था कि तभी बाहर हो-हल्ला हुआ. वो बाहर देखने गया कि मामला क्या है, तभी भीड़ में खो गया।

हम खोजने की कोशिश कर रहे थे. दंगे के दौरान बाहर निकला हर आदमी दंगाई लगता है. उसकी खोज में निकले बड़े बेटे को पुलिस ने पकड़ लिया, जैसे-तैसे उसे छुड़ाया. अगली सुबह अस्पताल से फोन आया. हमें एक लाश की तस्दीक़ के लिए बुलाया गया था. जैसे-तैसे खुद को संभालते वहां पहुंचे तो पाया कि वही था।

16 साल का मज़बूत कद-काठी का मेरा बच्चा. उसे बड़ी बेरहमी से मारा गया था. नाखून उखाड़ दिया, अधजला शरीर पड़ा था. ऐसे मारा था, जैसा करना तो दूर, देखना भी कोई बर्दाश्त नहीं कर सकता

मैं बिलख पड़ा, तभी याद आया कि मैं केवल बाप नहीं, 30 सालों से मोहल्ले का इमाम भी हूं. मेरे आंसू लोगों के भीतर गुस्से का सैलाब ला सकते हैं. पहले से जल रहा शहर पूरी तरह से खाक हो सकता है. मैंने आंसू पोंछ लिए.

हज़ारों लोग ताज़ियत के लिए मेरे पास आए. सारे गुस्से से बलबला रहे थे. मैंने समझाया कि बेटे की मौत पर ज़रा भी हिंसा हुई तो मोहल्ला छोड़ दूंगा, शहर छोड़ दूंगा. अपील का असर दिखा. जब जवान बेटे की लाश को देख चुका बाप कहता है तो असर तो होता है. सबसे बड़ी बात कि मेरे कहने ने उनके भरम तोड़े जो सोचते थे कि फलां कौम कभी सच्ची बात कह ही नहीं सकती. मैंने सच्ची बात की और सबने बेहद संजीदगी से ली।

उसकी मौत को आज कई रोज बीते. वक्त बहुत बड़ा मरहम है. भीतर से घाव चाहे जितना ज़िंदा रहें, बाहर से सूखता दिखता है.

मैं रोज़ मस्जिद जाता हूं. तसल्ली देने वालों से मिलता हूं. बात करता हूं लेकिन एक पल को भी बेटे का चेहरा आंखों से नहीं हटता. चंद ही दिनों पहले मुझे उसपर बेहद गुस्सा था. अम्मी को बिना कहे बाहर जाता और वो परेशान होती थी. मैंने इस बात पर बेटे को दो थप्पड़ भी जमा दिए थे. नई उम्र के लड़कों की तरह पलटकर उसने कुछ नहीं कहा, बल्कि रोने लगा।

उस दिन से वो बिना बताए कहीं नहीं जाता था, सिवाय रामनवमी के.

मैं खुद को तसल्ली दे लेता हूं कि उसकी उम्र अल्लाह ने इतनी ही लिखी थी. मुलाकातियों से बात से खुद को भरमा लेता हूं लेकिन उसकी मां की हालत खराब है. मेरे पास कहने के लिए अल्फाज़ हैं, उसके पास सिर्फ आंसुओं का पैगाम है. कोई मां इससे अलग भला कर भी क्या सकेगी, जिसका हंसता-बोलता बेटा अचानक कम हो जाए।

वो इतना दुखी रहती है कि मैं घर जाने से डरने लगा हूं. बाहरी लोगों को समझा पाता हूं लेकिन सच्चे आंसुओं के सामने तसल्ली के बोल कहां से पाऊं!

खैर, इसी बात से खुद को भरमा रहा हूं कि ऊपरवाले ने अभी ही हमें हमारी बर्दाश्त का सिला दे दिया. बदले की आग नहीं भड़की. बल्कि वो लोग भी शर्मिंदा होंगे, जिन्होंने उस बच्चे के साथ ऐसा किया. अब बस उसके मैट्रिक के रिजल्ट का इंतज़ार है. उसने बड़ी लगन से अपने इम्तिहान दिए थे.

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