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भारत और चीन, दो महाशक्तियां श्रीलंका को अपने प्रभाव में करना चाहती हैं, क्या भारत कोलंबो की विदेश नीति को अपनी तरफ़ झुका सकेगा?

गहरे आर्थिक संकट में घिरे श्रीलंका की जनता का बड़ा हिस्सा चीन के इरादों पर शक करने लगा है. ऐसे में क्या भारत कोलंबो की विदेश नीति को फिर से अपनी तरफ झुका सकेगा? डीडब्ल्यू की स्पेशल रिपोर्ट.

श्रीलंका आजादी के 74 साल बाद सबसे बड़े आर्थिक भूकंप का सामना कर रहा है. महंगाई, कर्ज चरम पर हैं और देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली पड़ता है. इसके कारण भोजन, ईंधन और दवाओं जैसी बेहद जरूरी चीजों के लाले पड़ रहे हैं. ऐसे में इलाके में मौजूद दो महाशक्तियां श्रीलंका को अपने प्रभाव में करना चाहती हैं. भारत और चीन दोनों द्वीपीय देश को मदद की पेशकश कर रहे हैं.

अब तक नई दिल्ली ने कोलंबो को 1.5 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता दी है. इस सहायता से श्रीलंका भोजन, ईंधन, दवाएं और खाद खरीद रहा है. मुद्रा विनिमय और कर्ज के तौर पर भारत ने अतिरिक्त 3.8 अरब डॉलर की मदद भी दी है. वहीं बीजिंग ने श्रीलंका को अब तक करीब 50 करोड़ युआन (7.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर) की मानवीय मदद मुहैया कराई है. चीन ने यह भी भरोसा दिलाय है कि वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से बातचीत के दौरान श्रीलंका के पक्ष में सकारात्मक भूमिका निभाएगा.

श्रीलंका ने चीन से कर्ज माफ करने की भी मांग की है. बीजिंग ने कोलंबों की इस अपील का अब तक कोई जवाब नहीं दिया है.

श्रीलंका की लोकेशन सामरिक और व्यापारिक लिहाज से बेहद अहम हैं. एशिया को अफ्रीका और यूरोप से जोड़ने से वाला समुद्री मार्ग श्रीलंका के बगल से गुजरता है. हालांकि इसी अहमियत के कारण हाल के वर्षों में श्रीलंका भारत और चीन की होड़ में फंस गया. भारत और श्रीलंका के सिर्फ कारोबारी रिश्ते ही नहीं हैं, बल्कि दोनों देश धार्मिक और सामुदायिक संबंधों से भी जुड़े हैं.

श्रीलंका की सत्ता में राजपक्षा परिवार के एकाधिकार के दौरान कोलंबो और बीजिंग के रिश्ते बहुत मजबूत हुए. सिंगापुर से राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने वाले गोटाबाया राजपक्षा और पहले राष्ट्रपति, फिर पीएम बनने वाले उनके भाई महिंदा राजपक्षा के कार्यकाल में भारत की अनदेखी कर श्रीलंका और चीन के रिश्ते आगे बढ़े. चीन श्रीलंका का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार बन गया. देखते ही देखते चीन श्रीलंका को सबसे ज्यादा कर्ज देने वाले देशों में शामिल हो गया. आज श्रीलंका पर चढ़े विदेशी कर्ज का 10 फीसदी हिस्सा चीन का है, जिसकी अनुमानित रकम करीब 51 अरब डॉलर है.

2009 में तमिल विद्रोही संगठन लिट्टे को खत्म करने के बाद श्रीलंका ने आधारभूत संरचनाओं में बड़ा निवेश करना शुरू किया. नए पुलों, बंदरगाहों और एयरपोर्टों के निर्माण में चीन ने खूब पैसा लगाया. चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में श्रीलंका एक अहम ठिकाना बन गया. उसे समुद्री सिल्क रूट का अहम ठिकाना कहा जाने लगा.

कर्ज तले दबाने वाली कूटनीति के आरोप

चीन के साथ कोलंबो के करीबी रिश्तों ने भारत को परेशान किया. पारंपरिक रूप से श्रीलंका का करीबी आर्थिक और राजनीतिक साझेदार भारत खुद को अलग थलग महसूस करने लगा. हालांकि चीन और श्रीलंका की सारी साझा योजनाएं, हकीकत में बड़ी अलग दिखाई पड़ीं. हम्बनटोटा पोर्ट और मताला राजपक्षा एयरपोर्ट प्रोजेक्ट के कारण श्रीलंका कर्ज में डूब गया.

2017 में कोलंबो ने हम्बनटोटा पोर्ट और उसके आस पास की बड़ी जमीन बीजिंग को 99 साल की लीज पर दे दी. इसके बाद आरोप लगने लगे कि चीन ने कर्ज के जाल में फंसाकर श्रीलंका की अहम राष्ट्रीय संपत्तियां अपने कब्जे में कर ली हैं. श्रीलंका के राजनीतिक और सुरक्षा समीक्षक असांगा आबेयागुणासेकरा कहते हैं, पिछले साल की गई मेरी फील्ड रिसर्च बताती है कि इंफ्रास्ट्रक्चर डिप्लोमैसी के जरिए चीन ने द्वीप की विदेश नीति में अच्छी खासी पैठ बना ली. आबेयागुणासेकरा के मुताबिक इस बात की चिताएं बहुत वाजिब है कि चीन के कर्ज में पारदर्शिता की कमी थी. साथ ही ब्याज दर भी बहुत ऊंची थी. वह कहते हैं, “हमने 6.4 फीसदी की दर पर चीन से कर्ज लिया जबकि जापान के कर्ज में ब्याज दर एक फीसदी से भी कम थी.”

सुमित गांगुली अमेरिका में इंडियाना यूनिवर्सिटी ब्लूमिंगटन में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. दक्षिण एशिया मामलों के एक्सपर्ट गांगुली भी ऐसे ही विचार साझा करते हैं, “चीन के कर्ज के दम पर बने चमकदार इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट आखिर रेत का किला साबित हुए.”

‘पश्चिमी देशों की फैलाई अफवाहें’

चीन के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्ट्रैटजी की रिसर्च फेलो शियाओशुए लियु इसे एक साजिश की तरह देखती हैं. उनके मुताबिक चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट ने श्रीलंका को कर्ज के दलदल में फंसा दिया, ये अफवाहें पश्चिमी देशों ने फैलाई हैं.

लियु कहती हैं कि, “श्रीलंका ने बीते कुछ वर्षों में बहुत ज्यादा कर्मशियल लोन लिया. इन्हीं कर्जों के कारण श्रीलंका आज इतने बुरे आर्थिक संकट में है.”

मौजूदा आर्थिक संकट, बीजिंग के प्रति आम लोगों में उपजा शक और कर्ज माफ करने के बारे में चीन की टालमटोल, भारत इस मौके का फायदा उठाकर अपने पारंपरिक साझेदार श्रीलंका को फिर से अपने पाले में लाना चाहता है. गांगुली कहते हैं, भारत इस संकट को एक संभावना की तरह देख रहा है. उसने फौरन श्रीलंका को धन, दवाओं और कर्ज संबंधी मदद दी है.

गांगुली मानते हैं कि श्रीलंका के आस पास हिंद महासागर में चीन का असर कम करने के लिए भारत पुरजोर कोशिश करेगा. यही वजह है कि बीते कुछ महीनों में भारत ने श्रीलंका में अटके कुछ चाइनीज प्रोजेक्ट अपने हाथ में ले लिए हैं. मार्च में नई दिल्ली ने उत्तरी श्रीलंका में हाइब्रिड पावर प्रोजेक्ट्स की डील साइन की. पहले यह काम चीन कर रहा था, लेकिन दिसंबर 2021 में सुरक्षा कारणों का हवाला देकर चीन ने परियोजना निलंबित कर दी. इसी दौरान कोलंबो ने विंड फार्म के लिए चाइनीज कंपनी के साथ किया 1.2 करोड़ डॉलर का करार भी रद्द कर दिया. अब यह प्रोजेक्ट भारतीय कंपनी को मिला है.

इन फैसलों से पहले श्रीलंका ने लंबे समय से लटके सामरिक ऑयल टर्मिनल को भी मंजूरी दी. श्रीलंका के पूर्वी तट पर यह ऑयल टर्मिनल भारत बनाएगा. स्मृति पटनायक नई दिल्ली स्थित थिंकटैक इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस में फॉरेन पॉलिसी रिसर्च फेलो हैं. वह इसे एक दूसरे नजरिए से देखती हैं, “श्रीलंका के प्रति भारत की नीति, चीन को जवाब पर आधारित नहीं है. ये ऐतिहासिक है, जिसमें लोगों के बीच आपसी संबंध हैं और एक साझा संस्कृति है. अगर आप श्रीलंका में भारतीय निवेश को देखें तो वह आम लोगों पर केंद्रित है.”

विदेश नीति का कंपास रिसेट करने की जरूरत

भारत श्रीलंका में भले ही अपना खोया हुआ मैदान हासिल करना चाहता हो, लेकिन राह बहुत आसान नहीं हैं. श्रीलंका के कुछ समुदायों में भारत विरोधी भावना आज भी है. ऐसे धड़ों को लगता है कि भारत प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है. गोटाबाया राजपक्षा के देश छोड़ने के बाद श्रीलंका की संसद ने रानिल विक्रमसिंघे को कार्यकारी राष्ट्रपति चुना है. पहले कई बार प्रधानमंत्री रह चुके विक्रमसिंघे को भारत समर्थक के रूप में देखा जाता है.

असांगा आबेयागुणासेकरा को लगता है कि नई सरकार विदेशी नीति में बदलाव करेगी. उसमें चीन की अहमियत कम होगी, “एक द्वीपीय देश होने के नाते हमने हिंद महासागर में अंतरराष्ट्रीय नियमों और मूल्यों को समर्थन किया है. हमें इसी दिशा में जाना होगा और वो भी हमारे जैसी सोच रखने वाले साझेदारों के साथ.”

लियु का मानना है कि चीन श्रीलंका में भारत के साथ होड़ करने की मंशा नहीं रखता है, बल्कि चीन ऐसी आर्थिक योजनाओं को आगे बढ़ाना चाहता है जो चीन और श्रीलंका दोनों को फायदा पहुंचाएं. वह कहती हैं, “साफ है कि भौगोलिक लिहाज से श्रीलंका और भारत कितने नजदीक हैं और चीन कितना दूर है. चीन जानता है कि श्रीलंका में प्रभाव के लिए वह भारत से मुकाबला नहीं कर सकता, लेकिन भारत इसे इसी तरह देखता तो चीन उसे ऐसा करने से रोक नहीं सकता.”

रिपोर्ट श्रीनिवास मजूमदारू (बॉन), विलियम यांग (ताइपे)