देश

भारत हिंदू राष्ट्र बनने के क़रीब पहुँच चुका है, मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक के तौर पर रहने को बाध्य कर दिए जाएँगे?

आठवीं सदी के शुरू में एक युवा मुसलमान शासक मोहम्मद बिन कासिम ने भारी लड़ाई के बाद सिंध पर कब्ज़ा जमाया था. यह इलाक़ा वैसे तो बहुत छोटा था लेकिन इस हार के नतीजे बेहद दूरगामी साबित हुए. इतिहासकारों के मुताबिक़ यह भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास के लिहाज़ से सबसे अहम मोड़ साबित हुआ.

इस युद्ध के बाद इस्लामी संस्कृति का भारतीय सभ्यता से संपर्क हुआ और इसके बाद पूरे उपमहाद्वीप में इस्लाम फैला, हालाँकि भारत की धरती पर क़दम रखने वाले पहले मुसलमान केरल में आने वाले व्यापारी थे जिनकी इबादत के लिए भारत की पहली मस्जिद बनाई गई थी, यह वह दौर था जब हज़रत मोहम्मद जीवित थे.

17 साल के मुसलमान शासक मोहम्मद बिन क़ासिम को इसका अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि उनकी यह जीत, शताब्दियों से चली आ रही राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को हिला देने वाली साबित होगी. उसके बाद से इतिहास की कई गलियों से गुजरते हुए भारत ने एक दिलचस्प सफ़र तय किया है. बीसवीं सदी में उसने एक ऐसे संविधान को अपनाया जो उसे एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का स्वरूप देता है. क्या 21वीं सदी में वो बदलने की कगार पर है?

2014 में शानदार जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के अंदर अपने पहले संबोधन में सदियों की ग़ुलामी पर दुख जताया था. उन्होंने इतिहास को विस्तार देते हुए कहा था कि:

1200 साल की ग़ुलामी भरी मानसिकता हमें परेशान कर रही है.

हालाँकि इतिहासकारों ने हमेशा ब्रिटिश शासन के 200 सालों को ही ग़ुलामी का काल बताया है.

लेकिन दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों में प्रधानमंत्री मोदी की राय से सहमति है जिसके मुताबिक़ भारत सदियों तक ग़ुलाम रहा और इसमें क़रीब एक हज़ार साल की ग़ुलामी मुसलमान शासकों के अधीन रही. इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मुस्लिम शासकों के आने से पहले, भारत विदेशी प्रभावों से मुक्त एक हिंदू राष्ट्र था.

हालाँकि प्राचीन भारत में बौद्धों का भी शासन था, लेकिन वह विदेशी नहीं थे. हिंदुत्ववादी विचारक सावरकर और गोलवलकर का मानना था कि हिंदू राष्ट्र का विचार प्राचीन काल से ही रहा है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक और राज्यसभा में बीजेपी के सांसद प्रोफ़ेसर राकेश सिन्हा का कहना है, “हिंदू राष्ट्र, भारतीय सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत से भारत की विशेषता रहा है और यह भारत की विरासत, वर्तमान और भविष्य है.”

हालाँकि हिंदू धर्म पर विशेषज्ञता रखने वाली अमेरिकी स्कॉलर प्रोफ़ेसर वेंडी डोनिगर, प्राचीन भारत में हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को ख़ारिज करती हैं. उनकी किताब ‘द हिंदूज़, एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को लेकर काफ़ी विवाद हुआ था जिसके बाद प्रकाशक ने भारत में किताब की बिक्री न करने का फ़ैसला किया था.

प्रोफ़ेसर डोनिगर ने बीबीसी से बात करते हुए कहा:

“भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं था. वैदिक काल में भी, भारत के छोटे-से हिस्से में वैदिक रीति रिवाजों से पूजा अर्चना होती थी. तब भी दूसरे धर्मों (बौद्ध, जैन, ईसाई और इस्लाम) के अलावा हिंदुओं में अलग-अलग देवी-देवताओं को मानने वाले थे. हिंदुओं में अलग-अलग पूजा-अर्चना के प्रारूप मौजूद थे और यही वजह थी कि कई विश्लेषक हिंदू को एक धर्म के तौर पर नहीं देखते थे. जब भारत में दूसरे धर्मों और संस्कृतियों का प्रवेश हुआ तो हिंदुओं की अलग -अलग विचारधाराएं कमज़ोर नहीं हुईं बल्कि और मज़बूत हुईं. इसलिए यह पूरा तर्क ही बेतुका है.”

लेकिन प्राचीन भारत की इतिहासकार शोनालीका कौल का मानना है कि प्राचीन काल में हिंदू राष्ट्र का अस्तित्व था.

ऐसे में सवाल यह है कि हिंदू राष्ट्र का विचार मूल रूप में कैसे आया जिस पर अब इतनी चर्चा गर्म है. क्या भारत के हिंदू राष्ट्र में तब्दील होने के संकेत मिल रहे हैं? हिंदू राष्ट्र के विचार को बढ़ावा देने के लिए कैसे इतिहास और शैक्षणिक सामग्री का पुनर्लेखन किया जा रहा है? इस हिंदू राष्ट्र में अल्पसंख्यकों के लिए क्या जगह होगी? क्या इसके लिए संवैधानिक संशोधन की ज़रूरत होगी या कि 2024 के आम चुनाव में यह चुनावी मुद्दा बनेगा? इन्हीं सवालो के जवाब तलाशने की कोशिश है इस रिपोर्ट में.

हिंदू राष्ट्र का विचार मूल रूप में किस तरह से बना?

इस मुहिम में बड़ी भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मानी जाती है. अपनी स्थापना से ही हिंदू राष्ट्र को ‘पुन: प्राप्त’ करने के लिए काम कर रहा है. जाने-माने इतिहासकार और हिंदुत्व के विशेषज्ञ क्रिस्टोफ जफ्रेलॉट इससे सहमति जताते हुए कहते हैं, “संघ परिवार के लिए हमेशा से हिंदू राष्ट्र का निर्माण प्राथमिकता रही है. वे इसके लिए समाज में ज़मीनी स्तर पर बदलाव चाहते हैं और शाखाओं और ज़िला स्तर पर अपने कार्यालय के ज़रिए ज़मीनी स्तर पर हिंदुओं की मानसिकता बदलना चाहते हैं. 1925 से उन्होंने यह शुरू किया था और क़रीब सौ साल बाद उन्होंने इस दिशा में काफ़ी कुछ हासिल कर लिया है.”

लेखक और इतिहासकार पुरुषोत्तम अग्रवाल का भी मानना है कि हिंदू राष्ट्र की मांग नई नहीं है. उन्होंने बताया:

“1925 में संघ की स्थापना हुई. उस वक्त हिंदुत्व विचारक विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी किताब “हिंदुत्व : कौन है हिंदू” में इस बारे में लिखा. अपनी इस किताब में सावरकर ने हिंदुत्व की विचारधारा को लेकर वैचारिक फ्रेमवर्क दिया था और इस विचारधारा के लोग आज सत्ता में हैं.”
सावरकर के मुताबिक हिंदुत्व हिंदू धर्म से कहीं ज़्यादा है और इस राजनीतिक फ़लसफ़े को केवल हिंदू आस्था तक नहीं बांधा जा सकता है. उन्होंने हिंदुत्व के लिए तीन आवश्यक मंत्र दिए हैं- राष्ट्र (देश), जाति (नस्ल) और संस्कृति (कल्चर). उन्होंने कहा था कि भारत में जन्म लेने के बावजूद मुसलमान और ईसाई, इन तीन आवश्यक तत्वों को हासिल नहीं कर सकते हैं. इसलिए हिन्दू ही हिन्दू राष्ट्र के हैं, एक ऐसे राष्ट्र के जो प्राचीन काल में भी अस्तित्व में था. इसके लिए सावरकर का तर्क था कि ‘भारत हिंदुओं की पुण्यभूमि है, मुसलमानोंं और ईसाइयों की पुण्यभूमि भारत नहीं है.’


हिंदू राष्ट्र की बढ़ती माँग

ताक़तवर धार्मिक गुरुओं और हिंदुत्ववादी संगठनों की ओर से हिंदू राष्ट्र की मांग तो लंबे समय से चली आ रही है लेकिन यह मौजूदा समय में, ख़ासकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से, ज़्यादा बढ़ी है. मसलन, दिल्ली के तालकटोरा इनडोर स्टेडियम में इस साल की शुरुआत में जगन्नाथ पुरी के प्रभावशाली शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने दृढ़तापूर्वक कहा कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित करना चाहिए. उन्होंने उम्मीद जताई कि भारत के हिंदू राष्ट्र बनते ही 15 दूसरे देश भी ख़ुद को हिंदू राष्ट्र घोषित करेंगे.

मौजूदा समय में, भारत और नेपाल ही दो ऐसे देश हैं जहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं.

प्रोफ़ेसर जफ्रेलॉट का कहना है , “हिंदू राष्ट्र की मांग पहले से बढ़ी है, अभियान बढ़ गए हैं, अभियानों की तीव्रता बढ़ी है और तो और इसका भौगोलिक दायरा भी बढ़ा है.”

हो सकता है कि आने वाले कुछ सालों में भारत हिंदू राष्ट्र घोषित हो जाए. इसके लिए ज़मीनी स्तर पर काम शुरू हो चुका है. विश्लेषकों की मानें तो कई संस्थान संघीय ढांचा, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक और आर्थिक असमानता जैसे मुद्दों पर समझौता करने के लिए तैयार हैं. मुसलमान शासकों के इतिहास और शहरों, गलियों के नाम बदलने से लेकर किताबों में बदलाव का काम बदस्तूर जारी है.

काँग्रेस में शामिल रहे और अब सपा के समर्थन से राज्यसभा पहुँचे कपिल सिब्बल अफ़सोस जताते हुए कहते हैं कि सभी महत्वपूर्ण संस्थानों पर कब्ज़ा कर लिया गया है. उन्होंने कहा, “न्यायपालिका को छोड़कर सभी संस्थानों पर मोदी सरकार ने कब्ज़ा कर लिया है. मीडिया को मैनेज किया जा रहा है. संसद पर उनका कब्ज़ा है. ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स जैसे सरकारी तंत्रों का इस्तेमाल करके स्वतंत्र आवाज़ों को दबाया जा रहा है.”

हालाँकि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी सरकार इन आरोपों का खंडन करती रही है. उनका कहना है कि देश में लोकतंत्र फल-फूल रहा है और पिछले कुछ सालों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में तेजी से विकास हुआ है.

भारत के हिंदू राष्ट्र बनने के संकेत कौन से हैं?

इस बात के कुछ संकेत इन उदाहरणों से मिलते हैं.

पिछले साल दिसंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “हर हर महादेव” के उद्घोष के बीच काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर का उद्घाटन किया था. गेरुआ भेस में एक साधु की तरह उन्होंने गंगा में डुबकी लगाई थी और काल भैरव मंदिर में पूजा-अर्चना की थी. कुछ ही देर बाद उन्होंने एक ट्वीट के ज़रिए, प्यार और आशीर्वाद के लिए पवित्र नदी का आभार जताया था.

राष्ट्रीय टेलीविजन पर एक बड़े आयोजन के रूप में इसका सीधा प्रसारण किया गया था. उस दौरान कुछ राजनीतिक टिप्पणीकारों ने कहा था कि उनके शब्दों में निश्चित रूप से एक हिंदुत्ववादी प्रधानमंत्री झलक थी, न कि एक धर्मनिरपेक्ष देश के लीडर की. उस समय मोदी ने कहा था:

“जब भी एक औरंगज़ेब आता है, एक शिवाजी का उदय होता है.”

टिप्पणीकार वीर सांघवी ने एक लेख में इस आयोजन के बारे में लिखा, “मोदी से पहले कोई भारतीय प्रधानमंत्री पूजा-आराधना को इतने बड़े पैमाने पर जन-जन तक पहुँचाने के लिए लाइव इवेंट में तब्दील नहीं कर पाया था.”

भारत का संविधान कहता है कि जाति, धर्म और जेंडर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा लेकिन नागरिकता संशोधन अधिनियम या सीएए को मुस्लिम विरोधी कानून की तरह देखा जा रहा है. इस अधिनियम के तहत कुछ पड़ोसी देशों के प्रवासी अगर हिंदू, सिख या बौद्ध हुए तो उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाएगी लेकिन अगर वे मुस्लिम हुए तो नागरिकता नहीं मिलेगी. बीजेपी सरकार की दलील है कि इस एक्ट का भारतीय मुसलमानों पर कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने इस पर चिंता जताई है और इसे मुसलमानों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण बताया है. मसलन, डीएमके सांसद कनिमोझी ने यहाँ तक कहा कि यह हिंदू राष्ट्र के निर्माण की दिशा में एक बड़ा क़दम है.

30 साल से भी पहले, ये बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी थे जिन्होंने काँग्रेस शासन के तहत मुसलमानों के “तुष्टीकरण” के ख़िलाफ़ एक तीखा अभियान चलाया था. शाहबानो मामले को अक्सर मुस्लिम तुष्टीकरण के उदाहरण की तरह पेश किया जाता है. 1986 में सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फ़ैसला सुनाया था लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार, मुसलमान धर्मगुरुओं को ख़ुश करने के लिए कोर्ट के आदेश को नाकाम करने के लिए एक क़ानून ले आई थी. इन मुसलमान धर्मगुरुओं को लगता था कि कोर्ट का मूल आदेश शरिया क़ानूनों के ख़िलाफ़ था. कई विद्वानों और लेखकों का मानना है कि तुष्टीकरण के ऐसे कुछ वास्तविक, कुछ काल्पनिक मामले ही आख़िरकार बड़े पैमाने पर हिंदू प्रतिक्रियाओं का कारण बने.

लेकिन अब हिंदू तुष्टीकरण की चर्चा होने लगी है. उदाहरण के लिए, भारत की सर्वोच्च अदालत ने कोविड-19 महामारी की भयावहता के बीच जगन्नाथ यात्रा और अयोध्या में भूमि-पूजन की अनुमति दे दी.

प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, “मुसलमान वोट बैंक की तरह, हिंदुत्व ने हिंदू वोट बैंक बनाया है. यही उनका राजनीतिक लक्ष्य था. उसे वो हासिल कर चुके हैं. अब कोई हिंदू वोट बैंक में सेंध लगाने का दुस्साहस नहीं कर सकता.”

जबसे बीजेपी सत्ता में आई है, कई शहरों और सड़कों के नाम बदले जा रहे हैं. दिल्ली में औरंगज़ेब रोड की ही तरह, अकबर रोड या शाहजहाँ रोड का नाम बदलने की माँग हो रही है. लेकिन प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल मानते हैं कि ये मांगे हिंदुत्व शक्तियों का दोहरापन दिखाती हैं. वो कहते हैं, “उन्हें अकबर रोड या शाहजहाँ रोड से बड़ी समस्या है, लेकिन दिल्ली में मान सिंह रोड भी है. वो कौन थे? वो अकबर के सैन्य प्रमुख थे. टोडरमल मार्ग और बीरबल मार्ग भी दिल्ली में हैं. टोडरमल अकबर के वित्त मंत्री थे. बीरबल अकबर के नवरत्नों में से एक थे. आप अकबर को तो खलनायक बनाना चाहते हैं लेकिन बीरबल या टोडरमल या मान सिंह को नहीं. ऐसा क्यों?”

कई हिंदुत्ववादी संगठनों के सदस्य अब लोगों को हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को स्वीकार करने के लिए पहले से ज़्यादा प्रेरित करने लगे हैं. प्रोफ़ेसर अग्रवाल कहते हैं कि आम हिंदुओं में इस विचार की स्वीकार्यता 10 साल पहले के मुक़ाबले अब ज़्यादा हो गई है.

हिंदू जनजागृति समिति इस बात को स्वीकार करती है. वो एक राष्ट्रव्यापी हिंदुत्ववादी संगठन है. वो हिंदू राष्ट्र के लिए बैठकें करती है और इसके लिए जागरूकता अभियान चलाती है. समिति कहती है कि उनके लिए हिंदू राष्ट्र के लिए पूरा ज़ोर लगा देने का समय यही है. महाराष्ट्र में हाल की एक बैठक में, उसकी आध्यात्मिक इकाई सनातन संस्था के प्रवक्ता अभय वार्तक ने कहा, “हिंदुओं का अस्तित्व संकट में आ जाएगा अगर वे भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए त्याग नहीं करेंगे.”

हिंदू जनजागृति समिति के राष्ट्रीय प्रवक्ता रमेश शिंदे ने बीबीसी को बताया, “हम जैसे संगठनों का दायित्व, भारत के लोगों के बीच हिंदू राष्ट्र का संदेश फैलाने का है.” हिंदू राष्ट्र पर अपनी नई किताब में लेखक आकार पटेल कहते हैं, “संरचनात्मक तौर पर भारत हिंदू राष्ट्र बनने के करीब पहुँच चुका है.”

प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफ जफ्रेलॉट कहते हैं कि 2019 में बीजेपी के चुनाव जीतने के बाद से हिंदू राष्ट्र के संकेत और पुख़्ता हो चुके हैं. वो कहते हैं, ”2019 के बाद हर चीज़ उग्र हो चुकी है, नए क़ानून, संविधान संशोधन इत्यादि हुए हैं. असल मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाए रखने की भी ज़रूरत है. और असल मुद्दे अब और ज़्यादा गंभीर हो गए हैं. आर्थिक स्थिति वाक़ई चिंताजनक है. रोजगार की कमी, महंगाई, आदि.. तो आप ये अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स असल मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने का एक तरीक़ा है जिसका ख़ूब इस्तेमाल होने लगा है. ये सब ज़ाहिर है उस ध्रुवीकरण के अलावा हो रहा है जिसका इस्तेमाल चुनावों के लिए किया जाता है.”

हिंदू राष्ट्र के लिए इतिहास और स्कूली पुस्तकों में बदलाव?

वर्षों से हिंदू दक्षिणपंथी संगठन ये शिकायत करते आए हैं कि स्कूलों और विश्वविद्यालयों में इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें हमेशा से वाम या मार्क्सवादी इतिहासकार लिखते आए हैं जिनका ‘राष्ट्रवादी’ हिंदुओं के प्रति पूर्वाग्रह रहा है. इन संगठनों की दलील है कि इतिहास में उनका नज़रिया भी शामिल किया जाना चाहिए. कई इतिहासकार दक्षिणपंथियों की इतिहास की विवेचना का विरोध करते हैं और उनका मानना है कि इतिहास के नाम पर दक्षिणपंथी इतिहासकार सांप्रदायिकता पर आधारित कहानियों को आगे बढ़ा रहे हैं.

उनका आरोप है कि नई शिक्षा नीति को लागू करने की मोदी सरकार की कोशिशें जारी हैं. भारत की शिक्षा प्रणाली में ज़रूरी बदलावों को देखने के लिए बनी कमेटी के सदस्यों में से एक हैं गोविंद प्रसाद शर्मा. उन्होंने पिछले साल एक अंग्रेजी दैनिक को बताया, “आज जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है वो सिर्फ़ ये बताता है कि हम यहाँ पराजित हुए, हम वहाँ हार गए. लेकिन हमें हमारे संघर्षों के बारे में बताना होगा, विदेशी हमलावरों के ख़िलाफ़ जाबांज लड़ाइयों के बारे में बताना होगा. हम लोग उस चीज़ को पूरी तरह से हाइलाइट नहीं करते हैं.” गोविन्द प्रसाद शर्मा ने वैदिक गणित का विषय भी पढ़ाए जाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. हिंदुत्ववादी और राष्ट्रवादी विचारकों का कहना है कि भारत की शिक्षा प्रणाली पश्चिमी अवधारणाओं पर आधारित है, शिक्षा के भारतीयकरण (हिंदूकरण) को वे आवश्यक बताते हैं.

समकालीन भारतीय इतिहास के प्रोफ़ेसर और ‘आरएसएस, स्कूली पाठ्यपुस्तकें और महात्मा गांधी की हत्या’ नाम की किताब के सह-लेखक डॉ आदित्य मुखर्जी का एक बयान भारतीय मीडिया में आया था कि कट्टरता ने इतिहास की जगह ले ली है जो एक वास्तविक ख़तरा है. उन्होंने ये भी कहा था, “क्या कोई डॉक्टर प्रधानमंत्री से बहस कर पाएगा जब वो कहते हैं कि गणेश जी का सिर प्लास्टिक सर्जरी से जोड़ा गया था? ये इतिहास नहीं है.”

शिक्षा राज्य सूची में भी है और संघीय सूची का विषय भी है. लेकिन बहुत सारे शैक्षिक बोर्ड और इतिहास की किताबें लिखने के लिए गठित कमेटियाँ राष्ट्रीय स्तर की हैं. जिन कुछ राज्यों में बीजेपी सत्ता में है, वहाँ स्कूली किताबों में बहुत सारे बदलाव किए जा रहे हैं. कर्नाटक में ऐसे ही बदलावों पर हाल के महीनों में उठे विवाद ने बीजेपी सरकार को हिला दिया था. हाल ही में कांग्रेस पार्टी से अलग हुए कपिल सिब्बल ने बीबीसी हिंदी को दिए इंटरव्यू में स्कूली पाठ्यपुस्तक समीक्षा कमेटी के प्रमुख चक्रतीर्थ पर आरोप लगाया था कि वो इन किताबों में आरएसएस विचारक हेडगेवार के भाषण को शामिल कर, और स्वतंत्रता सेनानियों, समाज सुधारकों जैसे महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्वों पर लिखे अध्यायों और प्रसिद्ध साहित्यिक विभूतियों की रचनाओं को हटाकर किताबों का ‘भगवाकरण’ कर रहे हैं. हालांकि विवाद उठने के बाद स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों की बातों को फिर से शामिल किया गया है.

केंद्र सरकार के स्तर पर पाठ्य-पुस्तकों में बड़े पैमाने पर बदलाव दशकों में एक बार ही किए जा सकते हैं. एनसीईआरटी राज्य सरकारों को सिलेबस में बदलाव की सिफ़ारिश कर सकती है, जिसे स्वीकार या ख़ारिज किया जा सकता है. अभी हाल में ही यानी 2019 में कक्षा 9 और कक्षा 10 की इतिहास की किताबों में बदलाव किए गए थे.

अगर हिंदू राष्ट्र बना तो मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों के क्या अधिकार होंगे?

क्या मुसलमान और ईसाई हिन्दू राष्ट्र में अपनी इबादतगाहें बना सकते हैं और वहाँ इबादत कर सकते हैं? क्या वो अपनी धार्मिक आस्था की शिक्षा देना और उस पर अमल करना जारी रख सकते हैं? संघ परिवार के नेता मुसलमानों को अल्पसंख्यक मानने के विचार को ही गलत ठहराते रहे हैं.

बीजेपी नेता कपिल मिश्रा एक ऑनलाइन नेटवर्क चलाते हैं, जिसका नाम है ‘हिंदू इकोसिस्टम’, ये नेटवर्क हिंदू पीड़ितों के लिए काम करने की बात करता है. वो कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र में कोई भी अल्पसंख्यक नहीं होगा. “मुस्लिम (हिंदुओं के बाद) दूसरे बहुसंख्यक होंगे.” वो मुसलमानों को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि वे एक हिंदू बहुसंख्यक शासन के तहत सुरक्षित हैं और उन्हें अपने धर्म का पालन करने की अनुमति होगी. कपिल मिश्रा कहते हैं, “हिंदू बहुसंख्यक जब तक शासन में रहेगा, भारत धर्मनिरपेक्ष बना रहेगा और धार्मिक सहिष्णुता का पालन करता रहेगा.”

बीजेपी के राज्यसभा सांसद प्रोफेसर राकेश सिन्हा भी यही दावा करते हैं लेकिन साथ ही वो ये भी कहते हैं:

“आरएसएस या हिंदुत्व आंदोलन, इबादत के दूसरे तरीक़ों को मिटाकर पूजा करने के एक ही तरीक़े पर आधारित राष्ट्र की कल्पना नहीं करता है, लेकिन इस्लाम को (भारत में) ये समझना होगा कि संस्कृति, सभ्यता और हमारे पूर्वज एक हैं, सिर्फ़ इबादत का ढंग अलग है. और अगर वे आस्था में सुधार के लिए तैयार नहीं हैं तो ये दोतरफ़ापन हमेशा बना रहेगा. हमें इससे निकलना होगा.”
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत अक्सर कहते रहे हैं कि मुसलमानों और हिंदुओं की साझा विरासत है, इसलिए सभी भारतीय हिंदू हैं. मुसलमानों के पूर्वजों का जबरन धर्मांतरण किया गया था.

दूसरे हिंदुत्ववादी नेताओं का कहना है कि मुसलमानों और ईसाइयों को नौकरी और पैसे का झाँसा देकर अपना धर्म प्रसार करने की अनुमति नहीं मिलेगी. वास्तव में कम-से-कम नौ भारतीय राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी क़ानून पारित किए हैं, जिनकी वजह से ज़बरदस्ती या लालच देकर धर्म परिवर्तन कराना दंडनीय अपराध हो गया है. वहीं ईसाई और मुसलमान धर्म प्रचारक कहते हैं उनका काम करना मुश्किल हो गया है, अगर कोई धर्म परिवर्तन करके हिंदू बनता है तो शासन-प्रशासन का रवैया अलग होता है.

सावरकर के हिंदुत्व के विचार में वे लोग शामिल नहीं हैं जिनके पूर्वज भारत के बाहर से आए थे. ज़ाहिर है, सावरकर साफ़ लिखते हैं कि इस धरती पर मुसलमानों और ईसाइयों का उतना अधिकार नहीं है, जितना हिंदुओं का है, क्योंकि “भारत हिंदुओं की पुण्यभूमि है, मुसलमानों और ईसाइयों की नहीं.” ये दोनों भारत के दो सबसे महत्त्वपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय हैं. सावरकर के हिंदू राष्ट्र में उनकी क्या जगह होगी ये स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है, लेकिन इस सोच के साथ बराबरी के अधिकार कैसे मिल सकते हैं?

मुसलमानों और ईसाइयों को नज़दीक लाने के लिए आरएसएस के पास एक मज़बूत कार्यक्रम है. आरएसएस में मुस्लिम आउटरीच के कर्ताधर्ता हैं इंद्रेश कुमार. वे पहले बीबीसी से बातचीत कर चुके हैं लेकिन इस बार उनसे मुलाकात की बीबीसी की कोशिश नाकाम रही, लेकिन प्रोफेसर सिन्हा इस बात से निराश हैं कि इस कार्यक्रम की सफलता सीमित रही है. वे कहते हैं, पहुँच बनाने की या हाथ आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी अब भारतीय मुसलमानों की है.“मैं मानता हूँ कि हमने उनकी (मुसलमान) ओर हाथ बढ़ाया और हमारा नज़रिया इस बारे में खुला है. उनकी तरफ़ से भी ये कोशिश होनी चाहिए. अपना ही हाथ आगे बढ़ाए रखना एक किस्म का तुष्टीकरण है. आपको अपनी कमियों के बारे में बताना होगा और अपने भीतर उग्रपंथी तत्वों को क़ाबू में करना समुदाय का काम है.”

दूसरी तरफ़, मुसलमानों को डर है कि ‘हिंदू बहुसंख्यक’ शासन में उन्हें एक खाँचे में डालकर अलग-थलग कर दिया जाएगा और उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह सलूक किया जाएगा. वे पहले से महसूस करते हैं कि वे राजनीतिक अलगाव झेल रहे हैं. उनका डर, हिंदुत्ववादी नेताओं के जब-तब आने वाले बयानों से पैदा होता है. तेज़-तर्रार बीजेपी नेता और आरएसएस के सक्रिय सदस्य विनय कटियार ने एक बार कहा था:

“मुसलमानों को भारत में नहीं रहना चाहिए. धर्म के आधार पर उन्होंने देश का विभाजन किया था. तो वे यहाँ क्यों हैं? उन्हें उनका हिस्सा दिया जा चुका है. वे बांग्लादेश चले जाएँ या पाकिस्तान. उन्हें भारत में रहने का कोई हक़ नहीं.”
ज़मीनी सच्चाई ये है कि अगर आप मुसलमानों के एक समूह में बैठेंगे तो उनके भीतर की घबराहट का एहसास आपको हो जाएगा. वे 15वीं सदी के स्पेन के इतिहास को याद करते हैं जब 800 साल तक स्पेन पर राज करने वाले मुसलमानों को कैथोलिक सेनाओं ने हरा दिया था और दो विकल्प दिए थे, या तो देश छोड़ कर चले जाएं या ईसाई बन जाएं. जिन्होंने मज़हब बदलने से मना किया उन्हें ख़त्म कर दिया गया.

लेकिन प्रोफ़ेसर जफ्रेलॉट नहीं मानते हैं कि उस किस्म का विनाश, भारत में संभव होगा. वो कहते हैं:

“मुसलमानों को नेस्तनाबूद करना स्पष्ट रूप से किसी के भी एजेंडे में नहीं है. ये व्यवहारिक हो भी नहीं सकता. व्यवहारिक लक्ष्य है मुसलमानों को पूरी तरह अलग-थलग कर देना.”
फ़्रांसीसी प्रोफ़ेसर की दलील है कि अगर मुसलमान, अपना धर्म बनाए रखते हैं या ईसाई, ईसाई बने रहते हैं तो पब्लिक स्फ़ीयर में वे ख़तरा मोल लेते हैं. “तो, अगर वे समर्पण कर दें, अपनी पहचान छोड़ दें, मुसलमान के तौर पर अपना सार्वजनिक प्रदर्शन छोड़ दें तो उनके पास डरने की कोई वजह नहीं होगी. वे दूसरे दर्जे के नागरिक के तौर पर रहने को बाध्य कर दिए जाएँगे, शिक्षा और रोजगार में हिंदुओं से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम नही रह पाएँगे.”

प्रोफ़ेसर जफ्रेलॉट आगे कहते हैं, “अगर हिंदू राष्ट्र की स्थापना से आपका आशय अल्पसंख्यकों को वास्तव में दूसरे दर्जे का नागरिक बना देना है तब ये सारे अभियान बेशक समझ में आते है क्योंकि उनके ज़रिए आप उन्हें इतना असहाय बना देते है कि उन्हें अपने इलाक़ों से बाहर निकलने में डर लगेगा, आस-पड़ोस में जाने में डर लगेगा. वे शिक्षा छोड़ देंगे, जॉब मार्केट से दूर हो जाएँगे, हाउसिंग मार्केट से दूर हो जाएँगे और एक लिहाज़ से आप सचमुच एक हिंदू राष्ट्र में होंगे”

लेकिन वो ये भी कहते हैं कि बीजेपी को मुसलमानों की ज़रूरत है. “संघ परिवार को एक ‘अन्य’ की ज़रूरत है. वो अन्य मुसलमान हैं. वो हारा हुआ हो सकता है लेकिन उसे हिंदू समुदाय पर मंडराते ख़तरे की तरह दिखते रहना चाहिए.”

प्रोफ़ेसर अग्रवाल सहमत हैं. फिर भी, उनका दावा है कि “हिंदुत्ववादी ताकतों को तथाकथित चरमपंथी मुसलमान नेताओं से ध्रुवीकरण करने में मदद मिल रही है, ऐसे मुसलमान जो हिंदुत्व का विरोध करते दिखते हैं लेकिन अगर आप ठीक से देखें तो वे असल में उनकी मदद ही कर रहे हैं.”

लेकिन प्रधानमंत्री ने हमेशा ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा दिया है. राकेश सिन्हा कहते हैं कि मोदी सरकार की अनगिनत स्कीमों से मुसलमान सहित सभी समुदायों को फ़ायदा हो रहा है. इन सरकारी योजनाओं में कोई भेदभाव नहीं है.

कपिल मिश्रा इस नज़रिए को खारिज करते हैं कि संघ परिवार एक हिंदू बहुसंख्यक शासन लाने पर आमादा है. उनका दावा है कि हिंदू बहुसंख्यक हिन्दू समाज भारत में सबसे ज़्यादा सहिष्णु और सेक्युलर है. “पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान को देखिए. वहाँ हिंदू बहुसंख्यक नहीं हैं इसीलिए वे सहिष्णु और सेक्युलर नहीं हैं. मुझे लगता है कि चिंता इस बात की होनी चाहिए कि हिंदू बहुसंख्यकों का ज़रा भी नुकसान न हो. उनकी सुरक्षा की जानी चाहिए.” प्रोफ़ेसर सिन्हा भी इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति का अधिकांश श्रेय हिंदू बहुसंख्यक आबादी के सहिष्णु स्वभाव को जाता है.


हिंदू राष्ट्र या हिंदू राज्य?

प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल पुख़्ता तौर पर मानते हैं कि जब तक मौजूदा संविधान अस्तित्व में है, भारत एक हिंदू ‘राज्य’ नहीं हो सकता है. लेकिन संसद में बीजेपी का प्रचंड बहुमत देखते हुए वो मानते हैं कि संविधान की शक्ल-सूरत पूरी तरह बदली जा सकती है. प्रोफ़ेसर अग्रवाल उस राष्ट्रीय आयोग की याद दिलाते हैं जो संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के कार्यकाल में गठित किया गया था. पूर्व चीफ़ जस्टिस एमएन वेंकटचलैया उस आयोग के प्रमुख थे. उसके गठन से राजनीतिक तूफ़ान खड़ा हो गया और आयोग की सिफारिशें कभी लागू नहीं की गईं.

प्रोफ़ेसर जफ्रेलॉट कहते हैं कि आरएसएस हिंदू राष्ट्र चाहता है, हिंदू राज्य नहीं. उनके मुताबिक हिंदू राज्य का अर्थ है एक हिंदू देश जिसका आधिकारिक धर्म हिंदू हो. लेकिन उनके मुताबिक आरएसएस के लिए ये ‘व्यर्थ’ है. “अगर आपके पास हिंदू राष्ट्र है (हिंदू राज्य नहीं) और अगर आपके समाज में ‘दक्षिणपंथी’ सुधार कामयाब हो चुके हों तो आपको राज्य के बड़े ढांचे को बदलने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सरकार में बैठे लोग आरएसएस के नज़रिए पर ही काम करेंगे.”

ऐतिहासिक रूप से आरएसएस को सत्ता पर क़ब्ज़े का मोह नहीं रहा है. प्रोफ़ेसर जफ्रेलॉट कहते हैं, ‘उनकी प्राथमिकता समाज है, राज्य नहीं.’ कुछ समय पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने मुरादाबाद में संघ के चार हज़ार स्वयंसेवकों की रैली को संबोधित करते हुए कहा था, “हम लोग चुनावी राजनीति में नहीं हैं. चुनावों का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं. हम लोग तो बस समृद्ध नैतिक और सांस्कृतिक विरासत वाले भारतीय मूल्यों की शिक्षा देते आ रहे हैं.”

लेकिन प्रोफ़ेसर जफ्रेलॉट ये भी बताते हैं कि आरएसएस ने अपनी रुचि के कुछ क्षेत्रों में राज्य की मदद को उपयोगी भी पाया है जैसे कि गौरक्षकों का इस्तेमाल हो या अंतर्धार्मिक विवाह जैसे मुद्दे हों. वो मानते हैं कि शिक्षा एक और ऐसा क्षेत्र हैं जहां ‘राज्य’, आरएसएस के सामाजिक एजेंडे के लिए उपयोगी हो सकता है. वो कहते हैं, “संघ स्कूली कक्षाओं में भी वही पढ़ाना चाहता है जो वो अपनी शाखाओं में पढ़ाता है.”

वरिष्ठ पत्रकार और आरएसएस के एक नज़दीकी पर्यवेक्षक श्रीधर दामले भी मानते हैं कि भारत एक हिंदू राष्ट्र बनेगा, न कि एक हिंदू राज्य. वो कहते हैं कि संघ के शुरुआती दिनों में उसके पास तीन मुस्लिम प्रचारक हुआ करते थे और मुसलमानों से मेलजोल बढ़ाने का उसका एक कार्यक्रम भी रहा है.

हिंदू जनजागृति समिति के रमेश शिंदे स्पष्ट तौर पर कहते हैं, “हम लोग एक हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे हैं. राज्य में एक राज्य का ढांचा और संविधान आता है. लेकिन राष्ट्र में देश की संस्कृति, उसकी परंपरा, उसकी विरासत, उसका इतिहास, उसके पवित्र ग्रंथ होते हैं.” वामपंथी विचारधारा वाले राजनीतिज्ञों और मुस्लिम नेताओं पर वो हिंदू राष्ट्र के बारे में झूठ फैलाने का आरोप लगाते हैं. “वे ये धारणा फैला रहे हैं कि हिंदू राष्ट्र की स्थापना के अगले रोज़ से बहुत बड़ी समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी.”

ये हिंदू राष्ट्र कब बनेगा?

प्रोफ़ेसर राकेश सिन्हा कहते हैं कि भारत हमेशा से एक हिंदू राष्ट्र रहा है.

हिंदू राष्ट्र की टाइमलाइन को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है. लेकिन उसके समर्थकों को लगता है कि ‘हम लोग ट्रांज़िशन फेज़ में हैं’. बीजेपी के कपिल मिश्रा का दावा है कि उत्तर प्रदेश एक आदर्श राज्य बन ही चुका है. एक हिंदू राष्ट्र कैसा होना चाहिए, उसकी एक झलक यूपी दिखाता है. वो कहते हैं:

“उत्तर प्रदेश पंथनिरपेक्षता, सहिष्णुता और धार्मिक समानता का एक नमूना है. रामनवमी में जब जहांँ-तहाँ पत्थर चलाए जा रहे थे वहीं यूपी में फूल बरसाए जा रहे थे. दूसरी जगहों पर पेट्रोल बम दागे जा रहे थे लेकिन यूपी में शरबत बांटा जा रहा था. यूपी में सभी समुदायों ने स्वेच्छा से लाउडस्पीकर निकाल दिए थे. समस्त समाज क़ानून का पालन करता है. उत्तर प्रदेश पूरे देश में शासन का एक चमकता उदाहरण है.”

लेकिन हिंदुत्ववादी नेता अच्छी तरह जानते हैं कि भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में स्वीकार किए जाने से पहले बहुत सारा काम करने को बचा हुआ है. उनके मुताबिक, अधूरे कार्यों में ये चीज़ें शामिल हैं- हिंदुओं में एकता का आना और जाति व्यवस्था का अंत, मुसलमान जैसे समुदायों को हासिल अल्पसंख्यक के दर्जे का ख़ात्मा, कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाववादी आंदोलनों का अंत, मुस्लिम तुष्टीकरण का अंत, इस ग़लत अवधारणा को हटाना कि हिंदुत्व और हिंदू दोनों विपरीत विचार हैं, ऐसे और भी मुद्दे अधूरे कामों की फ़ेहरिस्त में हैं.

इन अधूरे लक्ष्यों को रमेश शिंदे कुछ इन शब्दों में बयान करते हैं, “हम धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण को ख़त्म करना चाहते हैं. अल्पसंख्यक का दर्जा भी ख़त्म होना चाहिए. हिंदू राष्ट्र में कोई अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक नहीं होगा. धर्मनिरपेक्षता की आड़ में आज देश को तोड़ने की साज़िशें चल रही हैं. खालिस्तान की माँग हो रही है, कश्मीर आज़ादी चाहता है. भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने से पहले ये सब ख़त्म होना चाहिए. ये एक प्रक्रिया है. ये रातोरात नहीं हो सकता है.”

50 साल से भी अधिक समय से आरएसएस के उभार को देखते आ रहे और संगठन पर एक किताब लिख चुके, शिकागो स्थित वरिष्ठ पत्रकार श्रीधर दामले ने बीबीसी को बताया, “आरएसएस क्रांतिकारी बदलाव लाना चाहता है और वो किसी किस्म के टकराव के बिना ये हासिल करना चाहता है.” पिछले 50 सालों में दामले बहुत सारे संघ प्रमुखों से मिल चुके हैं और उनका ये नज़रिया उन प्रमुखों के साथ उनकी बैठकों पर आधारित है.

पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने पिछले साल भविष्यवाणी की थी कि भारत साढ़े तीन साल में हिंदू राष्ट्र बन सकता है. और भी पुख़्ता टाइमलाइन सनातन संस्था की ओर से आई है जिसने अपनी वेबसाइट में दावा किया कि एक साधु ने 2023 से 2025 के बीच, भारत के हिंदू राष्ट्र बन जाने की भविष्यवाणी की है.

प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल के मुताबिक, ये कहना कठिन है कि 2023-25 के बीच भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा. लेकिन वो कहते हैं कि वो वक़्त दूर भी नहीं है. “इस देश में विपक्ष और उदारवादी शक्तियाँ जिस तरह का व्यवहार दिखाती आ रही हैं, मुझे हैरानी नहीं होगी कि 2025 के फ़ौरन बाद ऐसा हो जाए. मैं कहना ये चाहता हूं कि समावेशी भारत या गांधी-नेहरू के भारत पर यक़ीन करने वालों को तत्काल कोई क़दम उठाने की ज़रूरत है, उन्हें सनातन संस्था जैसे संगठनों को गंभीरता से लेना होगा.”

रमेश शिंदे कहते हैं:

“हिन्दू राष्ट्र के निर्माण का काम प्रगति पर है. ये दो साल का प्रोजेक्ट नहीं है. आज का सेक्युलर भारत कल का हिंदू राष्ट्र नहीं बन जाएगा. बीजेपी आठ साल से सत्ता में है और उसका दावा है कि इस बारे में बहुत सारा काम अभी अधूरा है. आपको कुछ समय देना होगा.”
प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफ़ जेफ्रैलॉट की राय है कि “समाज में ज़मीनी स्तर पर बदलाव के लिहाज से एक हिंदू राष्ट्र बनाए जाना संघ परिवार की एक निश्चित प्राथमिकता है. 100 साल पहले संघ की शुरुआत हुई थी और वो बहुत कुछ हासिल कर चुका है.” हिंदू राष्ट्र के निर्माण की कोई निश्चित टाइमलाइन का अंदाज़ा वो नहीं लगा पाए लेकिन ये ज़रूर कहा कि एक वास्तविक हिंदू राष्ट्र संघ परिवार हासिल कर सकता है और वो ऐसा कर भी रहा है.

कुछ हिंदुत्ववादी नेताओं ने माँग की है कि भारत को तत्काल प्रभाव से हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए. लेकिन अन्य लोग मानते हैं कि भारत को औपचारिक ऐलान की ज़रूरत नहीं है. वे एक सेक्युलर राज्य से, एक हिंदू राष्ट्र के रूप में भारत की तब्दीली देखते हैं. फिर भी कुछ और मत ऐसे भी हैं जिनके मुताबिक ऐसा कोई ख़ास दिन कभी नहीं आएगा जब भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा. ये कुदरती तौर पर हो रहा है और औपचारिक रूप से ऐसा शायद नहीं होगा.

संघ के लिए हिंदू राष्ट्र का मतलब एक ज़ोरदार ढंग से हिंदू सांस्कृतिक वर्चस्व से है, लेकिन प्रोफ़ेसर अग्रवाल की दलील है कि हिंदू राष्ट्र भारत के इतिहास और संस्कृति का प्रामाणिक प्रतिनिधित्व नहीं करता है.

हिंदू राष्ट्र-सरीखे राष्ट्र क्या दुनिया में कहीं और भी हैं?

सऊदी अरब एक धर्मशासित राज्य है जिसका आधिकारिक धर्म इस्लाम है. सऊदी नागरिकता लेने के इच्छुक गैर मुस्लिम विदेशियों को इस्लाम धर्म क़बूल करना होगा. मुस्लिम पिताओं की संतानें क़ानूनन मुस्लिम कहलाएँगी. इस्लाम से किसी दूसरे धर्म में परिवर्तन, धर्म छोड़ देना माना जाएगा और उसकी सज़ा मौत है. इस्लाम के अलावा किसी दूसरे धर्म का पालन सार्वजनिक रूप से वर्जित है. देश में चर्च, मंदिर या दूसरे गैर मुस्लिम पूजा स्थल की इजाज़त नहीं है.

बीबीसी की एक छानबीन के मुताबिक, ईरान के पेचीदा और असामान्य राजनीतिक तंत्र में आधुनिक इस्लामिक धर्म शासन के तत्व, लोकतंत्र के साथ मिले हुए हैं. सर्वोच्च नेता के नियंत्रण में अनिर्वाचित संस्थाओं का नेटवर्क, राष्ट्रपति और लोगों की चुनी हुई संसद के समांतर काम करता है.

ईरान में सबसे ज़्यादा प्रभावशाली संस्था, गार्डियन काउंसिल संसद से पास होने वाले तमाम बिलों को अंतिम मंज़ूरी देती है और उन्हें वीटो करने की शक्ति भी उसके पास है. ये काउंसिल उम्मीदवारों को संसदीय चुनाव, राष्ट्रपति चुनाव और धर्मशास्त्रज्ञों की सभा का चुनाव लड़ने से भी रोक सकती है.

ईरानी दंड संहिता शरिया के मुताबकि चलती है. जिसमें अंग भंग, कोड़े की मार और पथराव जैसी सज़ाएं शामिल होती हैं. धर्मांतरण और गैर-मुस्लिमों की, मुस्लिमों का धर्म परिवर्तन कराने की कोशिशों पर मौत की सज़ा के प्रावधानों का उल्लेख भी दंड संहिता में है. एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दिसंबर 2020 से जातीय अल्पसंख्यक कैदियों को फाँसी की संख्या में “चिंताजनक उभार” को रेखांकित किया था. अमेरिकी विदेश मंत्रालय की एक रिपोर्ट का दावा था कि ईरानी सरकार ने अल्पसंख्यक समुदायों के कम से कम 62 लोगों को “ईश निंदा” के आरोप में लंबे समय की जेल या फाँसी की सज़ा सुनाई थी.

दोनों देशों में मुसलमान बहुसंख्यक हैं और बताया जाता है कि वहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों में बुरी तरह की कटौतियां की गई हैं. राजनीतिक टिप्पणीकार कहते हैं कि अगर भारत धर्मशासित हिंदू राज्य बना तो समाज और शासन में बहुसंख्यक हिंदू आबादी का वर्चस्व वाकई मुमकिन है और अल्पसंख्यक भी अपने अधिकारों में कटौती होता देख सकते हैं

हालांकि कुछ लोग सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि शिवाजी का शासन, पेशवाओं की हुकूमत और कई राजशाहियों का प्रशासन, हिंदू राज्य जैसे ही थे. 1947 में आज़ाद भारत में विलय से पहले, त्रावणकोर (अब केरल में) रजवाड़ा, एक हिंदू राज्य था. हिंदू धर्म उसका आधिकारिक धर्म था. वास्तव में राज्य खुद देवता श्रीपद्मनाभ की संपत्ति था. महाराज खुद एक आस्थावान हिन्दू थे जिन्होंने देवता के नौकर की भूमिका निभाई थी.

हिंदू राष्ट्र के निर्माण के रास्ते में क्या दिख रहा है?

हिंदू राष्ट्र बनाने का हालिया रास्ता हिंसा से भरा नज़र आता है. समाज का एक बड़ा हिस्सा उसे या तो स्वीकार करता दिखता है या ख़ामोश है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि नफ़रत ने भारतीय समाज को विभाजित कर दिया है. कट्टरता की तस्वीरें, हथियारों की ट्रेनिंग, एक दौर में ये उग्रपंथी इस्लामवादियों की पहचान थी, लेकिन हाल में कर्नाटक में बजरंग दल के एक शिविर से उभरकर आई. ये कोई अकेली घटना नहीं थी. वास्तव में नाशिक की सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसायटी, “भारतीय सुरक्षा बलों में शामिल होने की इच्छा रखने वाले भारतीय युवाओं की मदद के लिए” सालों से युवाओं को हथियारों की ट्रेनिंग देती आ रही है. लगता है कि मुस्लिम समाज के एक धड़े को भी कट्टर बनाया जा रहा है, इसकी एक झलक तब दिखी जब बीजेपी प्रवक्ता नूपुर शर्मा के समर्थन में सामने आए व्यक्ति की सिर काटकर हत्या कर दी गई. नूपुर शर्मा पर पैगंबर मोहम्मद के अपमान का आरोप है.

अमेरिका स्थित संगठन हिंदूज़ फॉर ह्यूमन राइट्स के एडवोकेसी डायरेक्टर हैं निखिल मंडलापार्थी. निखिल ने वाशिंगटन डीसी से बीबीसी को बताया:

“देखिए, हिंदू राष्ट्र के लिए हम किस रास्ते पर जा रहे हैं. ये एक बड़ा ही हिंसक क़िस्म का रास्ता है, जहाँ मुसलमानों पर हिंसक हमले किए जाते हैं, बेकसूर लोगों को पीट- पीटकर जबरन जय श्रीराम बुलवाया जाता है, हिंदू उत्सवों के दौरान मस्जिदों के बाहर तलवारें और दूसरे हथियार लहराए जाते हैं. अगर इस रास्ते से हिंदू राष्ट्र को हासिल करने की कोशिश की जा रही है तो कोई कैसे यक़ीन करेगा कि एक बार वहां पहुँच जाने के बाद ये सब बंद हो जाएगा.”
2019 के संसदीय चुनावों में बीजेपी की जीत के बाद से बड़ी संख्या में ‘धर्म संसदें’ और धार्मिक सभाएं आयोजित की जाती रही हैं जिनमें मुसलमानों को मार डालने की ललकार सुनाई दी, और मुसलमानों के कारोबार के बहिष्कार की कसमें खाई गईं.

कई विशेषज्ञ कहते हैं कि नए भारत में सड़कों से लेकर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म तक नफ़रत का राज है. वही आज न्यू नॉर्मल है. हिंदुत्व इकोसिस्टम में कई लोगों से बात करने के बाद ये उभर कर आया कि हिंदू युवाओं को ये यक़ीन दिलया गया है कि हिंदू धर्म के स्वर्णकाल का पुनरुत्थान बस होने ही वाला है. उन्हें बार-बार ये बताया जाता है कि मुस्लिमों और ईसाइयों के हाथों सदियों से हुए दमन का बदला लेना ही होगा. हिंसा को हिंसा से रोकना होगा.

हिंदू जनजागृति समिति के रमेश शिंदे कहते हैं, “हिंदू समाज ने बहुत ज़्यादा सब्र रखा हुआ है (हिंदुओं के ख़िलाफ़ हिंसा के बावजूद). लेकिन अगर वही अपराध बार-बार होते रहे तो उन्हें सहन करना कठिन हो जाता है.”

बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि असली पीड़ित तो हिंदू हैं और साथ में ये भी जोड़ा कि, “पूरे देश में कोई तो होना चाहिए जो हिंदू पीड़ितों के बारे में बोल सके, उन्हें क़ानूनी सहायता मुहैया करवा सके. मैं यही करता हूँ.” हालांकि एक भारतीय मीडिया संस्थान ने अपनी रिपोर्ट में ‘हिंदू इकोसिस्टम’ को ‘नफ़रत की फैक्ट्री’ कहा था.

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां देश का कोई धर्म नहीं है- एक ऐसा राष्ट्र जिसके संविधान ने हर धर्म को बराबरी का दर्ज़ा दिया हुआ है लेकिन ये सच है कि आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर ये सवाल ज़ोर से उठ रहा है कि क्या इस देश का कलेवर बदल जाएगा. हिंदुत्ववादी राजनीति और आरएसएस पर गहरी नज़र रखने वाले प्रोफ़ेसर ज्योतिर्मय शर्मा का मानना है कि ‘भारत हिंदू राष्ट्र बन चुका है – इसके लिए अब संविधान में तब्दीली की ज़रूरत नहीं है.’

2024 में होने वाले आम चुनाव में ये मुद्दा केन्द्र में होगा- ऐसा कहने और मानने वाले जानकार अब सिर्फ़ इसे ‘मैटर ऑफ़ टाइम’ कह रहे हैं, यानी ऐसा होने, न होने का कोई सवाल नहीं है, बस वक़्त की बात है कि ऐसा कब होगा.

ज़ुबैर अहमद, बीबीसी संवाददाता

बीबीसी संवाददाता: ज़ुबैर अहमद
शॉर्टहैंड प्रोडक्शन: शादाब नज़मी
इलस्ट्रेशन: पुनीत बरनाला

ProfShivShankar-2
@Teacher35724069

सनातन धर्म मानने वालों का मूल है वेद
वेद चार है,और वेद में चारदेवता बताये गये है-
मातृदेवो भवः
पितृ देवो भवः
अतिथि देवो भवः
आचार्य देवो भवः
लेकिन ये गोबर दिमाग एसपी नशेड़ियों के पाँव दबाकर कौन से देव की सेवा कर रहे हैं,ऐसे लोग इस पद पर पहुंचे कैसे?