साहित्य

भारद्वाज दिलीप की रचना ”चिंता” पढ़िये!

भारद्वाज दिलीप
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चिंता
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मुझे लगता है मेरे दोस्त
मुझ पर जो कभी कभी ताना मारते थे
वो सही थे
कि मुझे औरो की तरह खुश रहना सीख लेना चाहिए ….
पर मैं कई बार सोचता कि वो कैसे
और किस लिए, किसके लिए खुश रहा जाये।
न जाने कब से कितने ही समय से कोशिश भी कर के देखा।
जो मेरे बंद आंखों के बीच में आ कर बैठ जाती है
और फिर वही से टहलती हुई निराशा आ धमकती है मस्तक पर लकीरें लेकर।
जब मेरा दिल मुझसे कहता है
कि बहुत चाहता है वो मुझे तब
मुझे दया आ जाती है इस दिल पर
कोई है जिससे प्यार करे
या वो मजबूर हैं।


हां पक्का वो बहुत मजबूर है।
वो मै कहुं कैसे वो मेरा दिल मेरे एक दोस्त जैसा है।
जो जीना भूल रहा है
नही वो जीना भूल गया है
पर मैं जानता हूं वो निराशाजनक नहीं हो सकता।
जब न मेरी सांसें बहने लगती
रोना चाहता है उसके सांस के साथ
तब वो मेरे दिल का गला घौंटती है
वहीं चिंता मुझे दूर कर देती है उस दिल से
वो आजू-बाजू से मेरे कानों में चिखती है
और तब रातों की नीद सुबह के उजाले से पहले आ गिरती हैं।
सच में कैसे खुश रहोगे दिल
और वह अकेलापन
उसको कैसे मनाऊं।
उसे जबकि अपने मन
जैसे घर में से कैसे बाहर करुंगा।
और उन भावनाओं का क्या करें जो ज्वार बन समुद्र में से उबल कर पन्नों पर आ गिरता है
ऐसे कैसे कहुॅं उससे
कि मैं उसे यही तो दे सकता हूॅं,
कविताओं में बदल कर मैंने लिखा है इसे।
भारद्वाज दिलीप