इतिहास

मानगढ़ का वो आंदोलन जिसे राजस्थान का जलियावाला बाग़ हत्याकाण्ड कहा जाता है, इतिहास जानिये : कुशलगढ़ ज़िला बांसवाड़ा से धर्मेन्द्र सोनी की रिपोर्ट

मानगढ़ आंदोलन, राजस्थान का जलियावाला बाग हत्याकाण्ड

१७ नवम्बर १९१३ को मानगढ़ में भील समुदाय के हज़ारों लोगों को अंग्रेज़ सरकार ने गोली बरसाकर हत्या कर दी थी। इसे ही मानगढ़ नरसंहार कहते हैं। स्थानीय लोग इस घटना को जलियावाला बाग हत्याकांड के समरूप बताते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अमृतसर के जलियांवाला बाग कांड की खूब चर्चा होती है; पर मानगढ़ नरसंहार को संभवतः इसलिए भुला दिया गया, क्योंकि इसमें बलिदान होने वाले लोग निर्धन वनवासी थे।

मानगढ़, राजस्थान में बांसवाड़ा जिले का एक पहाड़ी क्षेत्र है। यहां मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाएं भी लगती हैं। यह सारा क्षेत्र आदिवासी बहुल है। मुख्यतः यहां भील आदिवासी रहते हैं। स्थानीय सामन्त, रजवाड़े तथा अंग्रेज इनकी अशिक्षा, सरलता तथा गरीबी का लाभ उठाकर इनका शोषण करते थे। इनमें फैली कुरीतियों तथा अंध परम्पराओं को मिटाने के लिए गोविन्द गुरु के नेतृत्व में एक बड़ा सामाजिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन हुआ जिसे ‘भगत आन्दोलन’ कहते हैं।

गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में हुआ ।

गोविंद गुरु ने भगत आंदोलन 1890 के दशक में शुरू किया था। आंदोलन में अग्नि को प्रतीक माना गया था। अनुयायियों को अग्नि के समक्ष खड़े होकर धूनी करना होता था। 1883 में उन्होने ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया।

कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।

17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित आदिवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था; पर प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया। उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे हजारों लोग मारे गये। इनकी संख्या 1,500 से तक कही गयी है।

पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी। 1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहान्त हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।

भारतीय स्वतंत्रता के पूर्व के आदिवासी विद्रोह

सन १९४७ में भारत के स्वतन्त्र होने से पूर्व जनजातीय लोगों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक विद्रोह किये गये। नीचे इन विद्रोहों का कालक्रम से संक्षिप्त वर्णन दिया गया है-

१८वीं शताब्दी

1766-72: भूमिज जमीनदार जगन्‍नाथ सिंह के नेतृत्व में चुआड़ विद्रोह।
1770-1787: चट्टग्राम पहाड़ी क्षेत्र में चकमा विद्रोह।
1771-1809: जंगल महलों की भूमिज जनजातियों द्वारा चुआर विद्रोह।
1774-1779: ब्रिटिश सेनाओं और मराठों के खिलाफ बस्तर राज्य में हलबी जनजातियों द्वारा हलबा डोंगर।
1778: अंग्रेजों के खिलाफ छोटा नागपुर के पहाड़िया सरदारों का विद्रोह।
1784-1785: महाराष्ट्र में महादेव कोली जनजाति और संताल जनजाति के तिलका मांझी का विद्रोह।
1789: अंग्रेजों के खिलाफ छोटानागपुर के तामार का विद्रोह।
1794-1795: तामारों ने फिर से विद्रोह किया।
1798: छोटानागपुर में पंचेट एस्टेट की बिक्री के खिलाफ आदिवासियों का विद्रोह।
1798-1799: दुर्जन सिंह के नेतृत्व में चुआड़ विद्रोह।

१९वीं शताब्दी

1812: वायनाडी में कुरिचियार और कुरुम्बर का विद्रोह।
1825: सिंगफो ने असम के सादिया में ब्रिटिश पत्रिका पर हमला किया और आग लगा दी।
1833: गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में बीरभूम में भूमिज विद्रोह।
1843: सिंगफो प्रमुख निरंग फिदु ने ब्रिटिश गैरीसन पर हमला किया और कई सैनिकों को मार डाला।
1849: कदमा सिंगफो ने असम में ब्रिटिश गांवों पर हमला किया और कब्जा कर लिया गया।
1850: प्रमुख बिसोई के नेतृत्व में खोंड जनजाति ने उड़ीसा की सहायक नदियों में विद्रोह किया।
1855: सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में राजमहल हिल्स में अंग्रेजों के खिलाफ संथाल समुदाय द्वारा संताल हुल।
1857: 1857 के व्यापक विद्रोह के हिस्से के रूप में छोटा नागपुर में चेरो और खारवार विद्रोह ।
1857-1858: भील ने 1857 के विद्रोह के हिस्से के रूप में भगोजी नाइक और काजर सिंह के नेतृत्व में विंध्य और सतपुड़ा पर्वतमाला के बीच विद्रोह किया।
1859: एबरडीन की लड़ाई में अंडमानी।
1860: मिजो ने त्रिपुरा राज्य पर छापा मारा और 186 ब्रिटिश विषयों को मार डाला।
1860-1862: पूर्वी बंगाल और असम में जयंतिया पहाड़ियों में सिंटेंग विद्रोह।
1861: जुआंग समुदाय ने उड़ीसा में विद्रोह किया।
1862: कोया समुदाय ने गोदावरी जिले में मुत्तादेर्स के खिलाफ विद्रोह किया।
1869-1870: संथालों ने एक स्थानीय सम्राट के खिलाफ धनबाद में विद्रोह किया। विवाद सुलझाने के लिए अंग्रेजों ने की मध्यस्थता।
1879: नागा ने असम में विद्रोह किया।
1879: कोया ने तमंदोरा के नेतृत्व में विशाखापत्तनम हिल ट्रैक्ट एजेंसी के मलकानगिरी में विद्रोह किया।
1883: हिंद महासागर में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के प्रहरी आदिवासी लोगों ने अंग्रेजों पर हमला किया।
1889: मुंडा द्वारा छोटा नागपुर में अंग्रेजों के खिलाफ जन आंदोलन।
1891: एंग्लो-मणिपुरी युद्ध जहां अंग्रेजों ने मणिपुर राज्य पर विजय प्राप्त की।
1892: लुशाई लोगों ने बार-बार अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
1899-1900: बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आदिवासी समुदाय द्वारा विद्रोह।

२०वीं शताब्दी

1910: मध्य प्रांत के बस्तर राज्य में बस्तर विद्रोह।
1913-1914: बिहार में ताना भगत आन्दोलन।
1913: अरावली रेंज की मानगढ़ पहाड़ियों में भीलों का विद्रोह।
1917-1919: मणिपुर में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ उनके सरदारों के नेतृत्व में कुकी विद्रोह जिसे हाओस कहा जाता है।
1920-1921: ताना भगत आंदोलन फिर हुआ।
1922: अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में कोया आदिवासी समुदाय ने गोदावरी एजेंसी में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
1932: मणिपुर में 14 वर्षीय रानी गैडिंल्यू के नेतृत्व में नागाओं ने विद्रोह किया।
1941: हैदराबाद राज्य के आदिलाबाद जिले में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सहयोग से गोंड और कोलम ने विद्रोह किया।
1942: जयपोर राज्य के कोरापुट में लक्ष्मण नाइक के नेतृत्व में आदिवासी विद्रोह।
1942-1945: अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की जनजातियों ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सैनिकों द्वारा अपने द्वीपों पर कब्जे के खिलाफ विद्रोह किया।


गोविन्दगिरि – जिन्होने वर्तमान राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुल सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘भगत आन्दोलन’ चलाया

गोविन्दगिरि या गोविङ गुरु (1858-1931), भारत के एक सामाजिक और धार्मिक सुधारक थे जिन्होने वर्तमान राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुल सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘भगत आन्दोलन’ चलाया।


गोविंदगिरि

गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में गौर जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में भी थी। महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र वागड़ क्षेत्र को बनाया।

उन्होने न तो किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ली थी और न ही किसी सैन्य संस्थान में प्रशिक्षण पाया था। अंग्रेजी हुकूमत के दिनों जब भारत की आजादी में हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से योगदान दे रहा था तब अशिक्षा और अभावों के बीच अज्ञान के अंधकार में जैसे-तैसे जीवनयापन करते आदिवासी अंचल के निवासियों को धार्मिक चेतना की चिंगारी से आजादी की अलख जगाने का काम गोविंद गुरु ने किया। वे ढोल-मंजीरों की ताल और भजन की स्वर लहरियों से आम जनमानस को आजादी के लिए उद्वेलित करते थे।

गोविंद गुरु ने भगत आंदोलन 1890 के दशक में शुरू किया था। आंदोलन में अग्नि देवता को प्रतीक माना गया था। अनुयायियों को पवित्र अग्नि के समक्ष खड़े होकर पूजा के साथ-साथ हवन (अर्थात् धूनी) करना होता था। 1883 में उन्होने ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया

कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह आदिवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।

17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित आदिवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था; पर प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया। उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे हजारों लोग मारे गये। इनकी संख्या 1,500 से तक कही गयी है।

पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी। 1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहान्त हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।

गोविन्द गुरू ने अपने सन्देश को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य का सृजन भी किया। वे लोगों को गीत सुनाते थे। उदाहरण के लिए, निम्नलिखित पंक्तियों में गोविन्द गुरू अंग्रेजों से देश की जमीन का हिसाब मांग रहे हैं और बता रहे हैं कि सारा देश हमारा है। हम लड़कर अपनी माटी को अंग्रेजों से मुक्त करा लेंगे।

तालोद मारी थाली है, गोदरा में मारी कोड़ी है (बजाने की)
अंग्रेजिया नई मानू नई मानूं
अमदाबाद मारो जाजेम है -2 कांकरिये मारो तंबू हे
अंग्रेजिया नई मानू नई मानूं
…….. धोलागढ़ मारो ढोल है, चित्तोड़ मारी सोरी (अधिकार क्षेत्र) है।
आबू में मारो तोरण है, वेणेश्वर मारो मेरो है।
अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं
दिल्ली में मारो कलम है, वेणेश्वर में मारो चोपड़ो है,
अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं
हरि ना शरणा में गुरु गोविंद बोल्या
जांबू (देश) में जामलो (जनसमूह) जागे है, अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं।।

गोविंद गुरू अंग्रेजों की नीतियों को खूब समझते थे और उन्हें वे ‘भूरिया’ कहते थे । वे इस बारे में लोगों यह गीत गाकर बताते थे–

दिल्ली रे दक्कण नू भूरिया, आवे है महराज।
बाड़े घुडिले भूरिया आवे है महराज।।
साईं रे भूरिया आवे है महराज।
डांटा रे टोपीनु भूरिया आवे हैं महराज।।
मगरे झंडो नेके आवे है महराज।
नवो-नवो कानून काढे है महराज।।
दुनियां के लेके लिए आवे है महराज।
जमीं नु लेके लिए है महराज।।
दुनियांं नु राजते करे है महराज।
दिल्ली ने वारु बास्सा वाजे है महराज।।
धूरिया जातू रे थारे देश।
भूरिया ते मारा देश नू राज है महराज।।

वैेसे कहने को तो यह एक भजन है और “राजा है महराज” जैसे टेक के होने के कारण यह समूह गीत की तरह गाया जाता था। परन्तु यह भजन कम, राजनीतिक ककहरा ज्यादा है, जिसे स्कूल के मास्टर की तरह गोविंद गुरू सभी को रटाते थे। खास बात यह कि वे व्यापक एकता चाहते थे और इस कारण वे राजस्थानी हिंदी का उपयोग करते थे। वे जानते थे कि उनके सांस्कृतिक संदर्भ में यही (हिंदी) भाषा जनांदोलन की भाषा हो सकती है।

क्रांतिकारी संत गोविंद गुरु के बड़े बेटे हरिगिरि का परिवार बांसिया में छोटे बेटे अमरूगिरि का परिवार बांसवाड़ा जिले के तलवाड़ा के पास उमराई में बसा है। गोविंद गुरु के जन्म स्थान बांसिया में निवासरत परिवार की छठी पीढ़ी उनकी विरासत को संभाले हुए है। गोविंद गुरु के पुत्र हरिगिरि, उनके बेटे मानगिरि, उनके बेटे करणगिरि, उनके बेटे नरेंद्र गिरि और छठी पीढ़ी में उनके बेटे गोपालगिरि मड़ी मगरी पर रहकर गुरु के उपदेशों को जीवन में उतारने का संकल्प प्रचारित कर रहे हैं।