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मोदी और अमित शाह की राजनैतिक उम्र 23 तक ही है : कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की जीत ने देश को ताज़ा हवा का अहसास कराया है!

Ravish Kumar
आप सभी, जो मेरे मित्र, शुभचिंतक, सहकर्मी, सहयात्री, दर्शक, पाठक, फ़ैन, परिचित, अपरिचित, ज़िला और गाँव-ज्वार के लोग,रिश्तेदार-नातेदार, सार्वजनिक जीवन की हस्तियाँ, गुमनाम शहरी हैं, ने मेरे चारों तरफ़ संबल और संवेदना की एक ऐसी दीवार बना दी कि लगा ही नहीं कि सर से माँ का साया उठा है।आपके ज़रिए उसी का प्यार छन कर मुझ तक आया है।मैं क़िस्मत वाला हूँ कि मेरी ज़िंदगी में आप सभी शामिल हैं। मैं हमेशा महसूस करता हूँ और इस बात का ऋणी रहूँगा कि जीवन के एक लंबे दौर तक अलग-अलग देश, राज्य, इलाक़ा और भाषा के लोगों का प्यार मिला है। मैं जानता हूँ कि इस प्यार में कितना बल है। इसलिए चाहता हूँ कि यही प्यार सबको मिले। बहुतों को इसकी ज़रूरत है। मेरी माँ के लिए प्रार्थना करने वाले हर शख़्स के हम क़र्ज़दार हैं। हम भी और हमारा विस्तृत परिवार भी। व्यक्तिगत रूप से जवाब देने की असमर्थता आप समझते ही हैं। आप सभी का दिल से आभार।

Ravish Kumar
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बजरंग दल के पहले ग्लोबल लीडर नरेंद्र मोदी ने दल का गुणगान क्यों नहीं किया?
कर्नाटका चुनाव में कांग्रेस ने बजरंग दल को संघ परिवार के भीतर मुख्य दल के रुप में स्थापित कर दिया है। अभी तक यह संगठन संघ परिवार का कभी घोषित तो कभी अघोषित हिस्सा माना जाता था, इसकी छवि ऐसी बताई जाती थी कि इसके दम पर सड़क पर राज करने वाला संघ परिवार भी दूरी बनाकर रखता रहा है। इस बार भी संघ परिवार ने कमोबेश यही दूरी बना कर रखी। बजरंग दल के साथ छल हो गया। नरेंद्र मोदी ने यह नहीं कहा कि बैन नहीं होने देंगे। बस बजरंग बली का नारा लगा कर चले गए।

कांग्रेस ने बजरंग दल पर बैन करने की बात की। यह साहसिक राजनीतिक दांव था जो सफल रहा। भले कांग्रेस इस चुनाव में इस वजह से ही हार जाए लेकिन राजनीतिक लड़ाई बहुत लंबी होती है। चुनाव ही सब कुछ नहीं होता है। कांग्रेस ने बजरंग दल और पीएफआई पर बैन बात कर संघ परिवार के अंतर्रिविरोधों को उजागर कर दिया है। पहले तो इसे गुप्त समर्थकों को बाहर आने का मौका दिया और दूसरा यह भी दिखा दिया कि इसके बाद भी कोई खुलकर बजरंग दल का समर्थन नहीं कर पाया। यह कांग्रेस की बड़ी रणनीतिक जीत है। उम्मीद है बजरंग दल को यह दिख पाएगा।

बजरंग दल को भी समझना चाहिए कि उसके सहारे सड़क पर गौ रक्षा से लेकर वेरायटी वेरायटी के जिहाद और तमाम शोभा यात्राओं से जुड़े मुद्दे ज़िंदा रहते हैं मगर सम्मान से लेकर पद तक का लाभ बीजेपी को मिलता है। मेहनत बजरंग दल की और मलाई भाजपा को। बजरंग दल ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि अंग्रेज़ी बोलने वाले पत्रकार तक उसके पक्ष में सामने आएंगे। गोदी मीडिया के संभ्रांत एंकरों और अंग्रेज़ी के पत्रकारों को इस बात से झूठी नाराज़गी है कि किसी ने भीतर से कांग्रेस का नुकसान कर दिया लेकिन बजरंग दल को यह देखना चाहिए कि कांग्रेस ने बैन करने की बात कर उसकी मेहनत पर मुफ्त मलाई खाने वालों को अब जाकर कुछ काम दिया है। वे बजरंग दल का समर्थन कर रहे हैं।

लेकिन इसमें एक बड़ा ‘लेकिन’ है। बजरंग दल को अभी भी पूरी तरह वैधता नहीं मिली है। इस संगठन को प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से आवारा या उत्पाति समझा जाता रहा है। कोई गर्व से नहीं कहता कि वह बीजेपी में बजरंग दल से आया है। मैं नहीं जानता कि इस वक्त बीजेपी के कितने बड़े पदाधिकारी और विधायक से लेकर सांसद तक बजरंग दल की पृष्ठभूमि से हैं। बल्कि बजरंग दल को ही इसका अध्ययन करना चाहिए ताकि पता चले कि हिन्दुत्व की शाखाओं में उसका राजनीतिक महत्व क्या है। बजरंग दल यह काम आसानी से कर सकता है कि हिंदुत्व संगठन परिवार को बता सकता है कि उसके यहां से कितने नेता बीजेपी में हैं। फिर भी वे बजरंग दल पर बैन के खिलाफ आगे नहीं आए।इस नज़र से देखें यह बजरंग दल के साथ अन्याय है। मैं कर्नाटका चुनाव में बजरंग दल से जुड़े मुद्दे को इसी नज़र से देखता हूं। जिस तरह से राहुल गांधी ने सूट-बूट की सरकार का नारा देकर नरेंद्र मोदी का महंगा सूट एक झटके में उतरवा दिया था उसी तरह से बजरंग दल पर बैन की बात कर राहुल ने नरेंद्र मोदी को सामने ला दिया कि वे आगे आएं और बजरंग दल का समर्थन करें।

मगर यहां भी सूट उतारने वाली बेईमानी हो गई। जिस तरह से सूट को नीलाम कर मोदी ने एक महत्वकांक्षी शौक से छुटकारा पा लिया है उसी तरह से बजरंग बली का नारा लगाकर बजरंग दल के साथ अन्याय कर दिया। साफ-साफ बजरंग दल की खूबियों के बारे में नहीं कहा। बैन का विरोध नहीं किया। मैंने उनके भाषण विस्तार से नहीं सुने हैं मगर जो छपा है और जितना मैंने देखा है, उससे यही लगा कि उन्होंने बजरंग बली की पूजा पर रोक का मुद्दा बना दिया। जो कि मुद्दा ही नहीं था। ऐसा कर मोदी ने बजरंग दल को ही अपमानित किया है। अगर वे इसे ज़रूरी संगठन मानते हैं, मानते हैं कि बजरंग दल ने हिंदुत्व की राजनीति को हुडदंग बल नहीं बल्कि आदर्श बल प्रदान किया है तो उसका बचाव उसके काम के आधार पर करना चाहिए था। इसकी जगह वे बजरंग बली का मुद्दा बनाने लगें। सभी को पता है कि बजरंग बली की पूजा पर कोई रोक नहीं लगा सकता है। कोई चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकता है। पवन पुत्र को कौन बांध सकता है या रोक सकता है। लेकिन प्रधानमंत्री ने एक गंभीर मुद्दे को ड्रामा में बदल दिया। पत्रकारों में साहस नहीं है कि प्रधानमंत्री की इस बेईमानी को उजागर करते और पूछते कि बजरंग दल की दस खूबियां क्यों नहीं बता रहे हैं। साफ-साफ क्यों नहीं बोल रहे हैं कि बजरंग दल को बैन नहीं होने देंगे।

प्रधानमंत्री ने एक तरह से फिर से बजरंग दल को उस मोड़ पर अकेला छोड़ दिया, जहां उसके आलोचक उसे अवैध और आवारा संगठन के रुप में चिन्हित करते रहते हैं। क्या आर एस एस प्रमुख ने बजरंग दल को बैन करने पर कोई प्रमुख बयान दिया है? यह एक बड़ा मौका था बजरंग दल के अच्छे कामों को उनके मुख से सुनने का, मगर बोलने वालों ने बेईमानी कर दी तो इसमें कांग्रेस की क्या गलती है।

फिर भी कर्नाटका चुनाव के इस मुद्दे के बहाने बजरंग दल को पहली बार ग्लोबल और नेशनल नेता मिला है। उस नेता का नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। वे भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं जो बजरंग दल के लिए आगे आए हैं। पूरी तरह से भले नहीं आए हैं मगर दो कदम आगे तो आए ही हैं। अभी तक जब भी बजरंग दल के बारे में पढ़ा करता था, कहीं ये साफ़-साफ़ लिखा नहीं मिलता था कि आप किसके हैं? आप कहां से है? कोई संघ परिवार लिखता था, कोई आर एस एस लिखता था तो कोई भाजपा का बताता था? उसके नेता कभी बीजेपी में दिखते रहे हैं तो कभी आर एस एस के बताए जाते रहे हैं। क्या कभी भाजपा ने कहा है कि बजरंग दल हमारा है? क्या भाजपा अपनी अगली राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रस्ताव पास करेगी कि बजरंग दल हमारा संगठन है। एक राष्ट्रीय संगठन है। इसका सारा काम उच्च आदर्शों से प्रेरित है?

कर्नाटका चुनाव में कांग्रेस ने कहा है कि बजरंग दल और पीएफआई को बैन करेंगे मगर चर्चा केवल बजरंग दल की हुई। वो भी बजरंग दल की नहीं, बजरंग बली की हुई। बजरंग बली केवल बजरंग दल के नहीं हैं। पीएफआई पर बैन करने पर किसी ने धार्मिक नारा नहीं दिया, दिया होता तो क्या होता। मगर बजरंग दल पर बैन की बात को लेकर प्रधानमंत्री चुनावी परंपराओं को तोड़ कर बजरंग बली की जय बोलने लगे। प्रधानमंत्री को बजरंग दल के गुणों के बारे में बताना चाहिए था, मगर लगता है कि वे खुद ही संतुष्ठ नहीं हैं कि यह दल सर्व गुण संपन्न दल है। एक लाइन में, बजरंग दल के विरोधी उसे बुरा-बुरा तो कहते ही हैं, मोदी और भागवत उसे अच्छा-अच्छा क्यों नहीं कह सके? बजरंग दल इस पर विचार करे कि उनके संगठन का काम क्या इतना खराब है कि उसके काम को गिनाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बचाव नहीं कर सकते? बजरंग बली की जगह मोदी कहते कि हम सब हैं बजरंग दली तब माना जाता कि कांग्रेस का दांव गलत था।कांग्रेस ने दिखा दिया कि मोदी चाहे जितना धार्मिक मुद्दा बना लें, बजरंग दल का राजनीतिक समर्थन नहीं कर सकते हैं।

2016 में मोदी ने कहा था कि पड़ताल की जाए, तो इनमें से 80 प्रतिशत लोग ऐसे निकलेंगे, जो गोरक्षा की दुकान खोलकर बैठ गए हैं। ऐसे लोगों पर मुझे बहुत गुस्सा आता है। राज्य सरकारों से उन्होंने ऐसे लोगों का डोजियर तैयार कर उनके खिलाफ कार्रवाई की अपील की। उस वक्त हिन्दू महासभा नाराज़ हो गई थी। गौ रक्षा से जुड़े मामले में बजरंग दल वालों के भी नाम आ जाते हैं। मुझे नहीं पता कि बजरंग दल को प्रधानमंत्री का यह बयान कैसा लगा होगा।क्या कर्नाटका में प्रधानमंत्री नहीं कह सकते थे कि बजरंग दल को बैन करेंगे तो गौ रक्षा का काम कौन करेगा, जबलपुर में कांग्रेस के दफ्तर में घुस कर तोड़-फोड़ कौन करेगा? हो सकता है कि मोदी अभी भी मानते हों कि गौ रक्षा के काम में लगे 80 प्रतिशत लोग गौ रक्षा की दुकान चलाते हैं।

देखा जाए तो बजरंग बली का नाम लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि बचा ली। मेरा सवाल है कि आखिर नरेंद्र मोदी बजरंग दल की तारीफ क्यों नहीं कर सके? बजरंग दल के काम क्यों नहीं गिना सके? बजरंग दल के साथ कांग्रेस ने अन्याय नहीं किया, भाजपा ने किया है। अगर बजरंग दल बजरंग बली के अनुयायी है तब तो और खुल कर मोदी को बचाव करना चाहिए था। मोदी ने नहीं किया। अगर राहुल खुलकर इस मुद्दे को उठाते हैं तो मोदी मजबूर होंगे कि वे अगला चुनाव बजरंग दल के टिकट पर लड़ें। बजरंग दल को सम्मान देने का इससे ऐतिहासिक मौक़ा दूसरा क्या होगा?

Ravish Kumar
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पहचान की राजनीति से कोई लड़ाई भले बड़ी हो सकती है मगर उसका अंजाम केवल दुकान होता है। किसी जाति से निकलता है। पहचान की राजनीति इतना ही गारंटी करती है कि अपनी जात का एक नेता पैदा करती है और उसे बोलेरो स्कार्पियो से लैस कर देती है। तभी तो महिला पहलवानों का साथ देने महिलाएँ नहीं आईं। किसान आए जो मुद्दों के आधार पर किसान बने हुए हैं। उनके भीतर भी अलग-अलग जातियों की पहचान है मगर अपने मुद्दे पर लड़ने के लिए किसान बनना पड़ा। जंतर मंतर पर न्याय की लड़ाई हर तरह की कैटगरी से बाहर निकलने लगी है। उन्हें पता है कि न्याय की लड़ाई सार्वभौमिक है। हर किसी को लड़ना है।

अब चर्चा चल रही है कि ब्रजभूषण सिंह गिरफ्तार किए जा सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो सरकार की तरफ़ से ये भी एक ड्रामा होगा। जब आरोप लगा, लड़कियाँ धरने पर बैठीं तब तो मोदी का कोई मंत्री बोला तक नहीं। तो गिरफ़्तारी होती तो केवल पहलवानों और जंतर मंतर पर जमा कुछ लोगों के संघर्ष की जीत होगी। बाक़ी सब क़िस्से होंगे।