कश्मीर राज्य

मौसम के बदले मिजाज़ ने कश्मीरी चरवाहों की रोज़ी-रोटी का संकट पैदा कर दिया है : रिपोर्ट

मौसम के बदले मिजाज ने कश्मीरी चरवाहों की रोजी-रोटी का संकट पैदा कर दिया है. चरवाहे अब इस पेशे को छोड़ मजदूरी करने के बारे में सोच रहे हैं. तेजी से और अचानक बदलते मौसम ने इनसे इनके मवेशी, कामकाज और बच्चे तक छीन लिए हैं.

मोहम्मद रब्बानी और उनके चरवाहा परिवार ने जब अप्रैल की तपती गर्मी में सालाना सफर के लिए अपना कस्बा छोड़ा था, तो उनके पास 400 भेड़-बकरियां भी थीं. करीब 260 किलोमीटर की यात्रा करके राजौरी के घर में जब यह परिवार वापस आया है, तो उनके पास महज 200 मवेशी ही बचे हैं.

पहाड़ी इलाकों के बंजारा चरवाहे अक्सर गर्मियों में ऊंची जगहों पर चले जाते हैं, ताकि मवेशियों को चारा मिल सके. ऊंचे इलाकों में आए दिन की भारी बारिश, बाढ़ और बिन मौसम की बर्फबारी ने उनके करीब आधे मवेशियों की जान ले ली. गुज्जर बंजारा समुदाय के 52 साल के रब्बानी कहते हैं, “मैंने कभी इतना बुरा हाल नहीं देखा था.” पिछले साल खराब मौसम के चलते करीब 30 मवेशियों की जान गई थी.

आंधी, बारिश और समय से पहले बर्फबारी
रब्बानी याद वो वक्त याद करते हैं, जब उनके परिवार ने अपना सामान बांधकर आरू घाटी से अपना सफर शुरू किया. वो जब मरसार झील तरफ जा रहे थे, तभी भारी आंधी-पानी शुरू हो गई और अचानक बाढ़ आ गई. रब्बानी ने बताया, “मेरे कुछ मवेशी पानी के साथ बह गए और मेरा बेटा भी बुरी तरह घायल हो गया था.”

जम्मू-कश्मीर के बंजारा कबीले बहुत पहले से मौसमी बदलावों के हिसाब से अपनी यात्रा की योजना बना लेते हैं. इससे उन्हें कमाई भी होती है और उनका पेट भी भरता है. हालांकि अब मौसम के तीखे मिजाजों और अचानक आई बाढ़ उनकी सदियों पुरानी प्रवासी परंपरा में बाधा बन रही हैं. बंजारा समुदाय के बहुत से लोग तो चरवाहे की संस्कृति छोड़ने के बारे में सोचने लगे हैं.

इलाके के बंजारों के साथ काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन गुज्जर बकरवाल यूथ वेलफेयर कॉन्फ्रेंस के प्रमुख जाहिद परवाज चौधरी कहते हैं, “इस साल नुकसान का नया रिकॉर्ड बना है. बंजारों के आधे से ज्यादा मवेशी मर गए हैं. अगर आने वाले वर्षों में इसी तरह जलवायु में बदलाव होता रहा, तो बंजारों के पास अपनी सदियों पुरानी प्रवासी जीवनशैली छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा. इसका असर सांस्कृतिक विरासत और देश की अर्थव्यवस्था पर होगा.”

सब कुछ चला गया
रब्बानी के साथ 25 साल की रुखसाना बानो का परिवार भी सफर पर निकला था. कश्मीर के ऊंचे इलाकों में इस साल समय से पहले हुई भीषण बर्फबारी ने उनसे उनका बच्चा छीन लिया. दूसरे बच्चे को गर्भ में पालने के साथ ही बानो को भारी बर्फ हटाने में अपने पति की मदद भी करनी पड़ती थी. समय से पहले आई बर्फ रात को उनकी टेंट पर जमा हो जाती थी. कई बार तो बर्फबारी या बारिश इतनी होती थी कि वो अपना टेंट भी नहीं लगा पाते थे और उन्हें बाहर ठंड में सोना पड़ता था.

उनकी 80 भेड़ें खराब मौसम की भेंट चढ़ गईं. जब बानो का परिवार आरू घाटी में लौटा, तो उन्हें प्रसव का दर्द शुरू हो गया. भारी बारिश और तेज हवाओं के बीच चार घंटे पैदल यात्रा के बाद ये लोग पास के शहर पहलगाम पहु्ंचे. अस्पताल पहुंचते-पहुंचते उनके बच्चे की मौत हो चुकी थी. दो साल की बेटी के लिए खाना बनाती बानू ने रोते-रोते कहा, “मेरा सबकुछ चला गया, मैं यहीं मर जाना चाहती थी. बिन मौसम की बर्फबारी और बारिश ने पहले ही हमारा आसरा और मवेशी ले लिया था, अब उसने मेरा बच्चा भी छीन लिया. अच्छा है कि हम अपने घर में रहें, बजाय इसके कि खराब मौसम का सामना करें और अपना सब कुछ गंवा दें.”

भारत के मौसम विभाग की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 1901 में रिकॉर्ड रखना शुरु होने के बाद से पिछला दशक सबसे ज्यादा गर्म था. बढ़ते तापमान के कारण भारत ने बीते 10 सालों में लगातार मौसमी आपदाओं का सामना किया है.

अचानक आई बाढ़, आंधी, हिमस्खलन और भूस्खलन कश्मीरी पर्वतों को इलाके के चरवाहों के लिए ज्यादा खतरनाक बना रहा है. गुज्जर बकरवाल समुदाय की जम्मू-कश्मीर की आबादी में करीब 8 फीसदी की हिस्सेदारी है. इसके साथ ही अल्पाइन के चारागाह भी सिमट रहे हैं, जिन पर ये चरवाहे मवेशियों को चराने के लिए निर्भर हैं.

मुआवजे की मांग
चौधरी का कहना है कि सरकार इन लोगों की बहुत कम मदद कर रही है. ऐसे बहुत से परिवार हैं, जिनके सारे मवेशी खराब मौसम के चलते मर गए और उनके पास कोई आय का जरिया नहीं है.

जम्मू-कश्मीर के आदिवासी मामलों के विभाग ने इस मामले पर काफी कोशिशों के बाद भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. हालांकि इस साल प्रवास का मौमस शुरू होते वक्त राज्य सरकार ने कहा था कि वह ऊंचे इलाके में जा रहे चरवाहों के लिए परिवहन का प्रबंध करेगी, ताकि वो वहां जल्दी पहुंच सकें और समय से पहले बर्फबारी शुरू होने की स्थिति में मवेशियों को चरने के लिए ज्यादा समय मिले.

चौधरी का कहना है कि परिवहन की व्यवस्था से फायदा होगा, लेकिन उन्हें ऊंचे इलाकों में मवेशियों को सुरक्षित रखने के लिए जगह की भी जरूरत है, ताकि चारे के मौसम में हालात बिगड़ने पर वो वहां सुरक्षित रह सकें. चौधरी का कहना है कि पहाड़ों में असली समस्या तब शुरू होती है, जब संचार या परिवहन का कोई जरिया नहीं रहता.

इन इलाकों में चरवाहे का काम इतना मुश्किल हो गया है कि बहुत से परिवार अब अपने घर पर रहकर मजदूरी करने के बारे में सोचने लगे हैं. सरकार की मदद ही इन्हें इस काम से जोड़े रख सकती है.

एनआर/एसएम (रॉयटर्स)