साहित्य

मज़ा भी नहीं है सज़ा भी नहीं है….नहीं मर्ज़ चाहत, शिफ़ा भी नहीं है : उमेश विश्वकर्मा ‘आहत’ की दो ख़ूबसूरत ग़ज़लें पढ़िये!

Umesh Vishwakarma Aahat
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बहरे- मुतकारिब मुसमन सालिम
अर्कान= फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
तक़्तीअ= 122, 122, 122, 122
क़ाफ़िया= (आ- स्वर)
रदीफ़= भी नहीं है
ग़ज़ल
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मज़ा भी नहीं है सज़ा भी नहीं है ।
नहीं मर्ज़ चाहत, शिफ़ा भी नहीं है ।
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कभी दोस्ती में दग़ा भी नहीं है ।
मगर ये न समझो हुआ भी नहीं है ।
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दवाओं से बढ़कर असर है दुआ में,
दुआओं में कोई लुटा भी नहीं है ।
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ये रिश्ता निभाना कठिन है बहुत पर,
भरोसे से बढ़कर सखा भी नहीं है ।
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न कमज़ोर समझो महब्बत को सुन लो,
दिलों का किला काँच का भी नहीं है ।
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बहुत आरजू है ज़माने को इसकी,
मगर इश्क़ वो पालता भी नहीं है ।
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निशाना बनाना इसे छोड़ दो तुम,
शराफ़त कोई आइना भी नहीं है ।
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संभल तो गया है बिगड़के भी रिश्ता,
रफ़ू हो गया तो नया भी नहीं है ।
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न ‘आहत’ हुए हम किसी की जफ़ा से,
मगर दिल किसी से मिला भी नहीं है ।
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© उमेश विश्वकर्मा ‘आहत’

Umesh Vishwakarma Aahat
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बहरे- मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
अर्कान= मुफ़ाइलुन, फ़इलातुन, मुफ़ाइलुन, फ़ेलुन
तक़्तीअ= 1212, 1122, 1212, 22/112
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ग़ज़ल
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हरेक गाम पे मुश्किल बहार लगती है ।
या फिर हमारी ही हद बरक़रार लगती है ।
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हसीन लगती है, होती है जब महब्बत ये,
मुआवदत में मगर ज़ारज़ार लगती है ।
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मैं कैसे तुमको तुम्हारा ज़िमाम दे पाऊँ,
तलाश मेरी मुझे… तंगबार लगती है ।
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सफ़र-ए-मौज में लगती है ज़िंदगी अच्छी,
वगरना जान-गज़ा, इक़्तिसार लगती है ।
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वफ़ा की चाह में निकला था अपनी मंज़िल को,
मगर ये भूल मेरी यादगार लगती है ।
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कोई तलाश में उम्मीद से निकलता है,
मुझे उमीद ही ज़िनहारख़्वार लगती है ।
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जिसे हसीन समझते हैं…होके भी ‘आहत’,
ज़बान उसकी ही क्यों ख़ारदार लगती है ।
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मुआवदत= वापसी/लौटना
ज़िमाम= हक़
तंगबार= जहाँ हर कोई न पहुँच सके
जान-गज़ा= जान खाने वाली
इक़्तिसार= जबरदस्ती काम लेना
ज़िनहारख़्वार= वा’दा शिकन/ प्रतिज्ञा भंग करने वाली
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© उमेश विश्वकर्मा ‘आहत’