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रायपुर : हसदेव अरण्य में खनन का विरोध कर रहे आदिवासियों के समर्थन में राज्य के तमाम युवा उतर आए : रिपोर्ट

हसदेव अरण्य में खनन का विरोध कर रहे आदिवासियों के समर्थन में राज्य के तमाम युवा उतर आए हैं. ये अनोखे तरीकों से अपना समर्थन जाहिर कर रहे हैं.

वैभव बेमतारिहा की शादी का कार्ड एक पत्र जैसा था. 38 वर्षीय वैभव का यह अनोखा निमंत्रण पत्र पाकर उनके दोस्त और परिजन खासे उत्सुक हो गए थे. कार्ड पर लिखा था, सेव हसदेव, यानी हसदेव बचाओ. वैभव ने छत्तीसगढ़ के हसदेव जंगल में खनन रोके विरोध में प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों के समर्थन का यह अनोखा तरीका अपनाया था.

रायपुर में रहने वाले वैभव बेमतारिहा बताते हैं, “मेरी पत्नी के भी बहुत से सवाल थे. मैंने उनसे वादा किया है कि हसदेव जंगल में ले जाऊंगा और दिखाऊंगा कि उसकी सुरक्षा करना क्यों जरूरी है. यह आदिवासियों की लड़ाई को हमारा निजी योगदान है.”

हसदेव अरण्य भारत के सबसे घने जंगलों में से एक है. छत्तीसगढ़ में स्थित इस जंगल में पेड़ काटने के लिए राज्य सरकार ने अप्रैल महीने ही अंतिम अनुमति जारी की जिसके बाद कटाई का काम शुरू हो गया. हालांकि आदिवासियों के प्रतिरोध और धरने के कारण पिछले हफ्ते यहां पेड़ काटने का काम रोक दिया गया लेकिन ग्रामीणों को डर है कि यह कभी भी दोबारा शुरू हो सकता है.

हसदेव के लिये लड़ रहे आदिवासियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के संगठन ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ ने शिकायत की थी कि राज्य सरकार ने पेड़ काटने से पहले एनटीसीए और नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ को सूचित नहीं किया. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हसदेव अरण्य के परसा कोल ब्लॉक में 95,000 पेड़ काटे जाने हैं. हालांकि सामाजिक कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि कटने वाले पेड़ों की असल संख्या दो लाख से अधिक होगी.

दुनियाभर में विरोध
अप्रैल में जब हसदेव में सैकड़ों पेड़ काटे जाने की खबर फैली तोदुनियाभर में विरोध हुआ. ऑस्ट्रेलिया से लेकर यूरोप और अमेरिका तक में लोगों ने प्रदर्शन किए और ट्विटर #SaveHasdeo ट्रेंड होने लगा. इस आंदोलन को यूट्यूबर, कलाकार और यहां तक कि छात्रों का भी समर्थन मिला.

हसदेव बचाओ आंदोलन को यह समर्थन तब मिल रहा था जबकि देश छह साल में अब तक की सबसे बुरी बिजली कटौती झेल रहा था. अप्रैल से लेकर जून के बीच उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भारत के इलाकों में तो रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ी थी. बिजली के उत्पादन को बढ़ाने के लिए सरकार ने बंद पड़ीं कोयला खदानों को दोबारा शुरू करने और नई खदानों का काम आगे बढ़ाने का ऐलान किया था.

हसदेव में लगभग दो दर्जन जगहों पर कोयला निकालने के लिए खदान बनाने का प्रस्ताव है. इनमें कोरबा, सरगुजा और सुरायपुर में 23 नए कोयला ब्लॉक बनाने का प्रस्ताव है जिनमें से सात को केंद्र सरकार की मंजूरी मिल चुकी है. यहां से राजस्थान सरकार पहले ही परसा ईस्ट केते बसान (पीईकेबी) खदान से कोयला निकाल रही है. राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड ने अडानी ग्रुप से अनुबंध किया है जो कि इन खानों का डेवलपर और ऑपरेटर (एमडीओ) है.

सालों से जारी है संघर्ष
हसदेव के जंगल वन्य जीवन और वनस्पतियों से भरपूर हैं. वहां बाघों और हाथियों जैसे जंगली जानवरों का बसेरा है. वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने पिछले साल अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र में माइनिंग न करने की चेतावनी दी थी. साल 2010 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसे “नो-गो” जोन घोषित किया था यानी उसे कटाई और खनन से अलग कर दिया गया था.

लेकिन पिछले साल अक्टूबर में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने हसदेव अरण्य के परसा कोल ब्लॉक में खनन के लिये अंतिम मंजूरी दे दी, जिसके तहत लगभग 1,250 हेक्टेयर क्षेत्रफल में खनन किया जाना है जिसके लिए 841.5 हेक्टेयर वन भूमि पर पेड़ काटे जा रहे हैं. केंद्र की मंजूरी के बाद इस साल अप्रैल में छत्तीसगढ़ सरकार ने भी यहां माइनिंग को हरी झंडी दे दी. ग्रामीणों का आरोप है कि हसदेव में खनन के लिये फर्जी प्रस्तावके आधार पर ग्राम सभा की अनुमति हासिल की गई.

आदिवासी वन अधिकार मंच के कार्यकर्ता विजेंद्र अजनबी कहते हैं कि हाल में छत्तीसगढ़ के हरेली उत्सव में भी हसदेव का मुद्दा छाया रहा. वह बताते हैं, “प्रकृति के सामान्य उत्सव के बजाय इस बार की बातचीत जंगलों को बचाने के इर्द-गिर्द केंद्रित रही. फ्लैश मॉब आयोजित किए गए थे और विशेष रूप से तैयार किए गए गीतों को सोशल मीडिया पर साझा किया गया. कोई नहीं चाहता कि जंगल कटें और खनन हो.”

एक छात्र लक्ष्य मधुकर के नाना एक खनन इंजीनियर थे और उनकी मां छत्तीसगढ़ में कोयला खदानों के केंद्र कोरबा में पली-बढ़ीं. 16 साल के मधुकर खुद को प्रकृति-प्रेमी कहते हैं. हाल ही में उन्होंने पर्यावरण की सुरक्षा पर स्कूल में हुई एक प्रतियोगिता जीती. इस प्रतियोगिता में उन्होंने हसदेव वन के बारे में ही बात की. वह बताते हैं कि उन्होंने हसदेव को विषय चुना क्योंकि वह अपनी प्रस्तुति को प्रासंगिक बनाना चाहते थे.

मधुकर कहते हैं, “मेरी मां का परिवार कोरबा के गांव से आता है जहां कोयला खनन जीवन का अहम हिस्सा था. लेकिन हम खनन के प्रभावों से भी वाकिफ हैं. और हसदेव जंगल तो अब इतना अधिक चर्चा में है. हम अपनी कला और नाटक को प्रासंगिक बनाना चाहते थे.”

पैदल मार्च ने बदल दी तस्वीर
मधुकर की तरह ही रायपुर में रहने वाले बहुत से लोगों को आदिवासियों के विरोध ने प्रभावित किया है. कुछ समय पहले वहां से 300 किलोमीटर दूर से 250 गांवों के आदिवासी पैदल चलकर राज्य की राजधानी पहुंचे थे. छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला कहते हैं कि यह लंबा मार्च आंखें खोल देने वाला था.

शुक्ला कहते हैं, “पैदल चलकर आए आदिवासी थके हुए थे. वे सोच रहे थे कि इस लड़ाई को कब तक लड़ सकते हैं. लेकिन उसके बाद समर्थन का जो उफान आया है, उससे उनकी हिम्मत तरोताजा हो गई है. उसके बाद खबरों और टीवी पर हो रही बहसों में भी वृद्धि हुई है.”

इसी का नतीजा था कि पिछले महीने विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर हाथी कॉरिडोर का हवाला देते हुए केंद्र सरकार से सारे कोयला ब्लॉक आवंटन रद्द करने का आग्रह किया है.

इसके बावजूद, आंदोलनकारी डटे हुए हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि केंद्र सरकार इस बात पर राजी नहीं होगी और बिजली की बढ़ी मांग व कंपनियों का दबाव आवंटन रद्द नहीं होने देगा. इसीलिए तरह-तरह से विरोध किया जा रहा है. जैसे कि कलाकार प्रमोद साहू, जो अपनी रंगोली कला के लिए जाने जाते हैं, इस आंदोलन का समर्थन अपनी कलाकृतियों से कर रहे हैं. एक कलाकृति में उन्होंने हसदेव अरण्य को राज्य के फेफड़ों की तरह दिखाया है जिसे खनन कंपनियों को बेचा जा रहा है. साहू कहते हैं, “बहुत सारे लोग जो मानते हैं, यह उसी का प्रतीकात्मक चित्रण था.”

आंदोलन के एक समर्थक 31 वर्षीय यूट्यूबर दीपक टेल हैं जो छत्तीसगढ़ में पर्यटन स्थलों को अपने चैनल पर दिखाते हैं. अपने दसियों हजार सब्सक्राइबर्स को उन्होंने हसदेव अरण्य की अहमियत और खतरों के बारे में बताया. बिलासपुर में रहने वाले पटेल के लिए मुख्य प्रोत्साहन था हसदेव नदी पर पड़ने वाला असर, जहां से उनके शहर का पानी आता है.

कार्यकर्ता कहते हैं कि आंदोलन को समर्थन आदिवासी और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बाहर निकल कर आम लोगों से मिल रहा है जो अपने-अपने तरीकों से साथ दे रहे हैं. वैभव बेमतारिहा बताते हैं कि पैदल चलकर रायपुर आई एक आदिवासी महिला के शब्दों ने उन्हें हिला दिया था.

वह बताते हैं, “उस महिला ने कहा कि वह उस जमीन पर दफन हो जाने को तैयार है लेकिन एक इंच नहीं देगी. उस महिला के लिए उन वनों को बचाना इतना जरूरी था, और अब मेरे लिए भी है.”

वीके/सीके (रॉयटर्स)