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#रोहिंग्या त्रासदी : #म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के जनसंहार और उनके विस्थापन की कहानी!

 

म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के जनसंहार और उनके विस्थापन की ओर से लापरवाही बरतने वाला एक महत्वपूर्ण संगठन आसेआन भी है। इसके अलावा ओआईसी और दक्षेस भी इसी प्रकार के संगठनों में शामिल हैं।

आसेआन निश्चित रूप से अगर म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की दशा पर कुछ प्रभावी भूमिका निभा सकता था क्योंकि म्यांमार इस संगठन में खुद भी शामिल है। इस लिए अगर यह संगठन रोहिंग्या पर कड़ा रुख अपनाता तो निश्चित रूप से उस पर असर होता। ओईआईसी का गठन मूल रूप से फ़िलिस्तीन संकट पर मुस्लिम जगत को मज़बूत संयुक्त स्टैंड लेने के लिए हुआ था। इस संगठन से आम तौर पर यह आशा रखी जाती है कि वह मुसलमानों के अधिकारों से जुड़ा कहीं कोई बड़ा मुद्दा हो तो उस पर अपनी राय रखे और अपने स्तर से उस मुद्दे के समाधान के लिए पहल करे।

रोहिंग्या संकट के समय भी ओआईसी से यह आशा की जा रही थी कि वह अपनी ज़िम्मेदारी महसूस करते हुए इस बहुचर्चित मानव त्रासदी के बारे में कोई स्टैंड लेगा जिससे संकट के समाधान में मदद मिलेगी लेकिन कुछ इस्लामी देशों को छोड़कर अन्य इस्लामी देशों ने उदासीनता दिखाई और ओआईसी के मंच से इस बारे में कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया।

 

वैसे क्षेत्रीय संगठनों की नीतियों और क्षेत्र की जनता के रुख में बहुत अंतर होता है। संगठनों की नीतियां बहुत सी चीज़ों से प्रभावित होती हैं लेकिन क्षेत्रीय जनता और गैर सरकारी संगठनों का रवैया काफी बेहतर होता है यही वजह है कि मलेशिया और इंडोनेशिया में आम जनता ने सड़कों पर निकल प्रदर्शन किये और म्यांमार की नीतियों का जम कर विरोध किया। इन हालात के बावजूद सच्चाई तो यही है कि आसेआन की सदस्य सरकारों ने विभिन्न कारणों की वजह से म्ंयामार में रोहिंग्या मुसलमानों के जनसंहार पर ठोस और कड़ा रुख अपनाने से परहेज़ किया।

इन सब के बावजूद यह भी एक सच्चाई है कि आसेआन के अन्य सदस्यों देशों और इंडोनेशिया व मलेशिया के रुख में कुछ अंतर तो नज़र आया जिसका एक उदाहरण मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातीर मुहम्मद के रूख में दिखायी देता है जब उन्होंने रोहिंग्या मुसलमानों के जनसंहार के खिलाफ कड़ा रूख अपनाते हुए म्यांमार को आसेआान से निकाल बाहर करने की मांग रखी थी।

मलेशिया के सब से बड़े सरकारी पदाधिकारी के रूप में महातीर मुहम्मद ने बौद्ध चरमंपथियों और म्यांमार की सरकार की नस्लभेदी नीतियों की चक्की में पिस रहे रोहिंग्या मुसलमानों का जम कर समर्थन किया था। उनके अलावा मलेशिया के कई संगठनों ने भी आसेआन के कमज़ोर रुख की कड़ी आलोचना की और इस संगठन के सदस्य देशों से मांग की कि वह म्यांमार में ज़िम्मेदारों को इस बात पर मजबूर करें कि वह रोहिंग्या के अधिकारों की सुरक्षा करें। सन 2018 में मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के 73वें अधिवेशन में कहा था कि आंग सान सूची सैनिकों की दमन कारी कार्यवाहियों के खिलाफ ज़बान खोलना नहीं चाहतीं और हमने रोहिंग्या के जनसंहार के प्रति हमेशा उन्हें चुप ही देखा है इसी लिए अब हम उनका समर्थन नहीं करने वाले।

आसेआन के अलावा भी कई एसे संगठन हैं जो अगर प्रभावशाली रुख अपनाते तो रोहिंग्या पर अत्याचार कम हो सकते थे। इस प्रकार के संगठनों में सब से अधिक महत्वपूर्ण इस्लामी सहयोग संगठन, अर्थात ओआईसी है। इस संगठन में 57 इस्लामी देश सदस्य हैं अगर यह लोग मिल कर एक नीति अपनाते तो निश्चित रूप से म्यांमार पर दबाव पड़ता किंतु विभिन्न कारणों से यह संगठन अब तक रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में ठोस रुख अपनाने में विफल रहा है।

वैसे सन 2017 के सम्मेलन में ओआईसी ने म्यांमार की आलोचना की थी और औपचारिक रूप से यह मांग की थी कि म्यांमार को राखीन के रोहिंग्या मुसलमानों का जनसंहार खत्म करना चाहिए। सन 2018 में भी जब विदेशमंत्रियों का सम्मेलन हुआ तब ओआईसी ने एक क़दम आगे बढ़ते हुए रोहिंग्या मुसलमानों के जनसंहार की आलोचना की थी लेकिन सच्चाई यह है कि इस संगठन के पास कोई शक्ति नहीं है और अधिक से अधिक काम जो वह कर सकता है वह यह है कि म्यांमार सरकार के सामने विरोध दर्ज करा दे बस जबकि इस्लामी जगत को इससे बहुत अधिक आशा है।

म्यांमार में रोहिंग्या की जनंसहार के खिलाफ आईआईसी ने अब तक जो सब से अधिक गंभीर कद़म उठाया है वह शायद वह मुक़द्दमा है जो इस संगठन की ओर से गाम्बिया ने अतंरराष्ट्रीय अदालत में दर्ज किया है हालांकि उसका भी कोई खास फायदा नहीं हुआ और रोहिंग्या मामले को म्यांमार का आतंरिक मामला समझ लिया गया। विश्व संगठन, प्रायः मुसलमानों के जनसंहार पर अपनी चुप्पी का औचित्य यही कह कर दर्शाते हैं। हालांकि यह एक सच्चाई है कि किसी भी देश में किसी विशेष समुदाय या जाति का जनसंहार किसी देश का आतंरिक मामला नहीं हो सकता।

दक्षेस भी रोहिंग्या मुद्दे में प्रभावशाली भूमिका निभा सकता है क्योंकि इस संगठन के दो महत्वपूर्ण सदस्य अर्थात भारत और बांग्लादेश, म्यांमार के साथ संयुक्त सीमा रखते हैं और यह सीधे रूप से रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या से जूझ रहे हैं। इस बारे में भारत की नीति पूरी तरह से नकारात्मक और अस्वीकारीय रही है जबकि बांग्लादेश, म्यांमार से बस यह अपील ही कर पाया कि रोहिंग्या का जनसंहार न किया जाए। इन हालात में दक्षेस के सदस्यों में जो मतभेद पाए जाते हैं विशेषकर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की वजह से भी यह संगठन म्यांमार पर एकजुट होकर कोई ठोस रुख अपनाने में विफल रहा है। भारत के भीतर तो रोहिंग्या के मामले में बिल्कुल नकारात्मक माहौल पैदा करने की कोशिश की गई। चूंकि रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमान हैं और भारत में वर्तमान समय में स्थानीय मुसलमानों के ख़िलाफ़ भी माहौल गर्म है इसलिए रोहिंग्या त्रासदी के समाधान में भारत सरकार से कोई अपेक्षा नहीं रखी गई।

बांग्लादेश में शरण लेने वाले बहुत से रोहिंग्या, सैनिकों की ओर से हिंसा के भय से किसी भी दशा में अपने देश वापस नहीं जाना चाहते। फरवरी में म्यांमार में सैनिक विद्रोह के बाद यह भय और अधिक बढ़ गया है । रोहिंग्या दसियों साल से अपने ही देश में परदेसियों जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं और अब तो इस देश में सेना का राज है हालांकि पहले भी आंग सांग सूची की सरकार सेना के आगे बेबस नज़र आती थी मगर अब तक सब कुछ सेना के हाथ में ही है।

रोहिंग्या संकट में आंग सान सूकी ने अपने शांति के नोबल पुरस्कार की लाज रखने के बारे में भी नहीं सोचा और अत्याचार के भयानक दृष्यों पर पूरी तरह आंख बंद कर ली। सूकी को नागरिक अधिकारियों के लिए लंबी लड़ाई करने वाली आयरन लेडी के रूप में देखा जाता है मगर रोहिंग्या मुसलमानों पर बर्बरतापूर्ण हमले सूकी के सत्ताकाल में हुए जिस पर सबको बहुत ताज्जुब हुआ। सूकी ने ख़ामोशी और दबे लफ़्ज़ों में नरसंहार की हिमायत करके सेना को संतुष्ट या ख़ुश रखने की कोशिश की लेकिन बाद में हालात ने एसा पलटा खाया कि सेना ने सूकी की सरकार के ख़िलाफ़ ही विद्रोह कर दिया। सूकी केवल सत्ता से बेदख़ल नहीं हुईं बल्कि उन्हें अपनी आज़ादी भी गवांनी पड़ी। अब वह सेना के क़ब्ज़े में हैं।

बहरहाल रोहिंग्या संकट जस का तस बना हुआ है। म्यांमार में सत्ता के परिवर्तन के बाद भी रोहिंग्या शरणार्थियों का भविष्य अनिश्चय का शिकार है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्टर राधिका कुमारास्वामी का कहना है कि रोहिंग्या ग्रामीण अपने गांवों में लौटने पर तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें सैनिकों की ओर से हत्या, बलात्कार और हिंसा का खतरा है। उनका मानना है कि म्यांमार सरकार का यह रवैया मानवता के विरुद्ध अपराध और जातीय सफाया है और म्यांमार की सेना को रोहिंग्या मुसलमानों का जनसंहार खत्म करना चाहिए।

म्यांमार की सेना की बात की जाए तो उसे इस समय आंतरिक और बाहरी दोनों तरह के दबावों का सामना है। सेना ने ताक़त का इस्तेमाल करके प्रदर्शनों को कुचल दिया है और विरोध की आवाज़ दबा देने की कोशिश की जबकि बाहरी दुनिया से हो रहे एतेराज़ पर वह कोई ध्यान नहीं दे रही है। इस तरह सेना को लगता है कि धीरे धीरे उसके शासन के लिए हालात अनुकूल हो जाएंगे।

हालांकि यह सोच ग़लत है। म्यांमार में जिस तरह एक बाद अब यह दूसरा संकट उत्पन्न हो गया है उससे साफ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि म्यांमार के सैनिक शासन का भविष्य अंधकार में डूबता जा रहा है। सेना ताक़त का इस्तेमाल करके लोगों का मुंह किसी हद तक बंद कर सकती है लेकिन आज के हालात में वह अपने अपराधों पर पर्दा डालने में कामयाब नहीं हो सकती।

रोहिंग्या संकट में भी सेना ने अपने अपराधों पर पर्दा डालने की कोशिश की मगर यह कोशिश सफल नहीं हुई। आज दुनिया में कोई देश एसा नहीं है जहां रोहिंग्या शरणार्थियों का मुद्दा चर्चा में न आया हो। इसी तरह सैनिक विद्रोह के बाद के हालात पर भी सारी दुनिया की नज़रें लगी हुई हैं।

रोहिंग्या मुसलमानों की बड़ी संख्या इस समय बांग्लादेश में है और उसका संकल्प है कि उसे अपने वतन यानी म्यांमार ज़रूर लौटना है। म्यांमार की पिछली और वर्तमान सरकार से सबसे बड़ी ग़लती यह हो रही है कि उन्होंने गुज़रत समय से आस लगा रखी है यानी उन्हें यह उम्मीद है कि वक़्त बीतने के साथ साथ लोग और ख़ुद रोहिंग्या शरणार्थी इस मानव त्रासदी को भूल जाएंगे लेकिन यह म्यांमार की सेना की सबसे बड़ी ग़लती है। इस त्रासदी को न तो शरणार्थी भूलेंगे और न ही दुनिया भूलेगी। इस बीच संकट जितना जटिल होता जाएगा म्यांमार के प्रशासन के सामने इस मामले से निपटना उतना ही कठिन होता जाएगा।

सेना के लिए यह समझना ज़रूरी है कि उसका अपना अस्तित्व तभी विकास कर सकता है जब पूरा देश विकास करे और पूरा देश तभी विकास करेगा जब उसकी आबादी का हर हिस्सा तरक़्क़ी करे। आबादी के एक बड़े हिस्से को विस्थापित करके न तो म्यांमार की सरकार का भला होने वाला है और न ही इस देश को कुछ हासिल होगा।

आंग सान सू ची द्वारा म्यांमार सेना और बौद्ध चरमपंथियों के हाथों रोहिंग्या मुलमानों की नस्लकुशी का समर्थन किया

म्यांमार की राजनीतिक पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी की नेता और इस देश में लोकतांत्रिक आंदोलन का प्रतीक समझे जाने वाली आंग सान सू ची द्वारा म्यांमार सेना और बौद्ध चरमपंथियों के हाथों रोहिंग्या मुलमानों की नस्लकुशी का समर्थन किया।

हमने बताया था कि किस तरह से म्यांमार में लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए संघर्ष की प्रतीक समझी जाने वाली नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी की नेता आंग सान सू ची ने सत्ता की हवस में सेना द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों के जनसंहार को सही ठहराया और इस तरह से अपने क़रीब दो दशक के आंदोलन से हासिल होने वाले परिणामों पर पानी फेर दिया। स्पष्ट रूप से सू ची ने निजी हितों और राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के चलते सेना का बचाव किया। इससे पहले दुनिया भर में उनकी अच्छी ख़ासी लोकप्रियता थी, लेकिन 2017 में म्यांमार के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी के बाद, सब कुछ बदल गया। हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सू ची ने सेना द्वारा किये गए नरसंहार के आरोपों के जवाब में व्यक्तिगत रूप से म्यांमार सेना का बचाव किया। उन्होंने म्यांमार की दायित्वहीन और नरसंहारी सेना के जघन्य अपराधों को सही ठहराया। लोगों का मानना है कि सू ची अब अपनी पहले वाली साख और हैसियत खो चुकी हैं, इसलिए उन्हें एक बार फिर सैन्य तानाशाही से म्यांमार को आज़ाद कराने वाले संघर्ष का चेहरा नहीं होना चाहिए।

म्यांमार के रखाइन सूबे के मूल निवास रोहिंग्या मुसलमानों का जब क़त्लेआम शुरू हुआ तो वहां से लाखों लोग जान बचाकर बांग्लादेश और कुछ पड़ोसी देशों की ओर भागे। दुनिया भर ने इन पीड़ितों पर म्यांमार सेना और बौद्ध चरमपंथियों के अत्याचारों और उन्हें उनके घरों से उजाड़ने की दिल दहलाने वाली तस्वीरें देखीं, लेकिन इस ज़ुल्म को रोकने के लिए जैसी प्रतिक्रिया की ज़रूरत थी, वैसी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। इस कमज़ोर प्रतिक्रिया के लिए जितने दोषी पश्चिमी देश हैं, दुनिया भर के मुस्लिम और विशेष रूप से अरब मुस्लिम देश भी उससे कहीं कम दोषी नहीं हैं।

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी और उन पर होने वाले अत्याचारों पर मुस्लिम देशों की कमज़ोर प्रतिक्रिया के कई कारण हो सकते हैं। हालांकि इस बारे में कुछ भी कहने से पहले प्रभावशाली मुस्लिम देशों और आम मुसलमानों के बीच अंतर करना ज़रूरी है। दुनिया भर के आम मुसलमानों ने पूरी ताक़त से म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी और उनके निष्कासन की निंदा की है और आज भी वह अपने इस फ़ैसले पर अटल हैं। उन्होंने अपनी सरकारों से भी यही उम्मीद की थी कि वे भी इस संबंध में निर्णायक क़दम उठायेंयी और रोहिंग्या पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा के लिए इस्लामी जगत की संभावनाओं का भरपूर इस्तेमाल करेंगी। हालांकि वास्तविकता यह है कि मुस्लिम देशों की सरकारों ने अपनी जनता को निराश किया और अपेक्षा के अनुसार उन्होंने रोहिंग्याओं की नस्लकुशी को रोकने के लिए कार्यवाही नहीं की। इस पर सितम यह कि म्यांमार में तख़्तापलट हो गया और सत्ता पर पूरी तरह से अत्याचारी और दमनकारी जनरलों का क़ब्ज़ा हो गया।

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी पर मुस्लिम देशों की ओर से उठाए गए छिटपुट क़दम और कमज़ोर प्रतिक्रिया के बारे में कहा जा सकता है कि मुस्लिम देशों के पास ऐसा कोई एजेंडा या योनजा नहीं है कि जिससे दुनिया में अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकारों को सुरक्षित रक्षा जा सके यह पीड़ित मुसलमानों का समर्थन किया जा सके। रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा कैसे की जाए या उनका किस तरह से समर्थन किया जाए, इस बारे में भी मुस्लिम सरकारें एकमत नहीं हैं। मुस्लिम देशों में से कुछ देश म्यांमार सरकार पर दबाव डालने के लिए उसके राजनीतिक-आर्थिक बहिष्कार की मांग कर रहे थे और उनका कहना था कि अगर नौबत सैन्य हस्तक्षेप की भी आती है तो इससे भी पीछे नहीं हटना चाहिए। लेकिन इस बीच सऊदी अरब जैसे कुछ ऐसे भी देश थे, जो अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए किसी भी तरह की गंभीर कार्यवाही का विरोध कर रहे थे। हालांकि सऊदी अरब इस्लामी जगत का नेतृत्व करने का दावा करता है, लेकिन दुनिया के किसी कोने में मुसलमानों पर किया गुज़र रही है, उसे इसकी कोई परवाह नहीं है।

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी के बारे में सऊदी अरब ने न केवल चुप्पी साधे रखी, बल्कि उसने ऐसा रवैया अपनाया कि जिससे पर्दे के पीछे म्यांमार सरकार के समर्थन का संदेह पैदा हो रहा था। सऊदी अरब उन 6 मुस्लिम देशों में से एक है, जो बड़े पैमाने पर म्यांमार के साथ व्यापार करते हैं। इसके अलावा, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने म्यांमार के साथ अपने राजनीतिक और आर्थिक सहयोग में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया।

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी के बारे में मुस्लिम देशों की कमज़ोर प्रतिक्रिया से जहां पीड़ितों के ज़ख़्मों पर मरहम रखने में कोई मदद नहीं मिली, वहीं इससे म्यांमार सेना और सरकार का दुस्साहस बढ़ गया और उन्हें खुलकर अपना एजेंडा आगे बढ़ाने का मौक़ा मिल गया। बांग्लादेश के गंदगी भरे और हर प्रकार की बुनियादी सुविधाओं से दूर शरणार्थी शिविरों में रोहिंग्या शरणार्थियों की स्थिति को बेहतर बनाने तक के लिए मुस्लिम देश आगे नहीं आए और उनमें वित्तीय सहायता के लिए किसी तरह का कोई उत्साह देखने में नहीं आया। तेल की दौलत से मालामाल फ़ार्स खाड़ी के अरब देशों ने भी रोहिंग्याओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कोई ख़ास मदद नहीं की। जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ के हाई कमीशन ने बार-बार दुनिया भर के देशों से रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद के लिए आगे आने की अपील की, ताकि कम से कम शरणार्थी कैम्पों में रहने वालों के ज़ख़्मों पर कुछ मरहम रखा जा सके।

दिलचस्प बात यह है कि फ़ार्स खाड़ी के समृद्ध अरब देशों ने रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को वित्तीय सहायता प्रदान करने में तो कोई उत्साह नहीं दिखाया, लेकिन अमरीका के टेक्सास में जब मरीका के्साह नहीं दिखाया, लेकिन के ज़ख़्मों पर कुछ मरहम रखा जा सके। रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद के लिए आगे आने की अपी्लमानोहार्वे तूफ़ान आया तो वित्तीय सहायता के लिए इन देशों के बीच एक तरह की प्रतिस्पर्धा देखी गई। अमरीका में हार्वे तूफ़ान के पीड़ितों की सहायता के लिए इन देशों ने लाखों डॉलर का दान दिया, जबकि अमरीका दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक है और टेक्सास अमरीका के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है। हालांकि अरब देशों को अपने इस तरह के क़दमों के लिए अपनी जनता और मुसलमानों की आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा।

म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार को लेकर मुस्लिम देशों की कमज़ोर प्रक्रिया के अलावा, सऊदी अरब द्वारा रुकावटें उत्पन्न करने के कारण, क़रीब 2 अरब मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करना वाला इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) भी इस संदर्भ में कोई प्रभावशाली क़दम नहीं उठा सका या गंभीर कार्यवाही नहीं कर सका। हालांकि इस्लामी जगत में इस संगठन से यह आशा थी कि वह इस तरह के गंभीर मामले में कोई प्रभावी क़दम उठाएगा और रोहिंग्याओं की नस्लकुशी को रोकने के साथ ही उन्हें उनके वतन से उजाड़ने की प्रक्रिया को रोकेगा।

रोहिंग्या मुसलमानों की नस्लकुशी के प्रति इस्लामी देशों और इस्लामी सहयोग संगठन की निष्क्रिय प्रतिक्रिया, काफ़ी हद तक अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों की निष्क्रिय स्थिति के अनुरूप ही है। हालांकि, अगर इस्लामी देश, वास्तव में एकजुट होकर म्यांमार का बहिष्कार करते और म्यांमार सेना पर प्रतिबंध लगा देते तो निश्चित रूप से, रोहिंग्या मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों को किसी हद तक रोका जा सकता था और म्यांमार को अपनी अत्याचारपूर्ण नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया सकता था। अगर यह मान भी लिया जाए कि इस तरह का गठजोड़ व्यवहारिक रूप से कोई क़दम नहीं उठा सकता था, तो भी 57 देशों की एक अपील, म्यांमार सरकार पर दबाव बनाने में प्रभावी हो सकती थी।

इसके अलावा, पूर्वी एशिया के दो महत्वपूर्ण मुस्लिम देश इंडोनेशिया और मलेशिया, जो दक्षिण पूर्व एशिया संघ के सदस्य हैं, और म्यांमार भी इस संघ का एक सदस्य है, अगर कोई निर्णायक क़दम उठाते और इस संघ से म्यांमार के निष्कासन की मांग करते तो म्यांमार रोहिंग्याओं के सफ़ाए की अपनी नीति पर पुनर्विचार के लिए मजबूर हो जाता। लेकिन इन दोनों प्रमुख देशों ने भी न केवल ऐसा नहीं किया, बल्कि उन्होंने म्यांमार के साथ अपने व्यापार और कूटनीतिक संबंधों के स्तर को घटाने और रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकारों की सुरक्षा से इसे सशर्त बनाने से भी इनकार कर दिया। दोनों देशों का यह रुख़ इस सच्चाई के बावजूद है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के उप महासचिव एंड्रयू गिलमोर ने कहा है कि रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ म्यांमार सेना की कार्यवाहियां, नस्लकुशी का एक उदाहरण है।