साहित्य

वो रात इत्तेफाक़ से ख़्वाबों में आ गए…..By-शकील सिकंद्राबादी

Shakeel Sikandrabadi
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ग़ज़ल
हम ये समझ रहे थे के फूलों में आ गए
लेकिन वफाएँ कर के तो काँटों में आ गए
हक़ का सवाल पूछने झूटों में आ गए
आईना ले के आप भी अन्धों में आ गए
मग़रूर हुस्न वालों की चालों में आ गए
आशिक़ मिज़ाज लौग थे बातों में आ गए
महनत का जब सिला न दिया इक अमीर ने
आँसू किसी ग़रीब की आँखों में आ गए
पाकर बुलंदियों को जो मग़रूर थे बहुत
गिर कर बुलंदियों से वो कद़ों में आ गए
कल तक जो छीनते थे ग़रीबों की रोटियाँ
हैरान हूँ मैं आज वो फाक़ों में आ गए
अब आबरू बचाना बड़ा ही मुहाल है
दुनिया के ऐब आज के बच्चों में आ गए
मुद्दत से जिनकी दीद का अरमान था बहुत
वो रात इत्तेफाक़ से ख़्वाबों में आ गए
कुछ लौग मालो ज़र को कमाने के वास्ते
गाँव को छोड़ छाड़ के शहरों में आ गए
सिखला गए हैं वो मुझे जीने का तज्रबा
जो पैश हादसे मुझे राहों में आ गए
जब कोई जुर्म हमने किया ही नहीं शकील
घर क्यूँ हमारे आग के शौलों में आ गए

शकील सिकंद्राबादी