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सद्दाम हुसैन के तख़्तापलट के 20 साल पूरे होने पर ये एक सर्वे में ये बात सामने आई है : रिपोर्ट

पश्चिमी एशिया में तेल के धनी इस देश के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के तख़्तापलट के 20 साल पूरे होने पर ये एक सर्वे में ये बात सामने आई है.

रायशुमारी करने वाली एक एनजीओ गैलप इंटरनेशनल ने फ़रवरी 2023 में इराक़ के 18 राज्यों में सर्वे किया, जिसमें 2,024 लोग शामिल हुए.

अमेरिकी हमले के पहले और बाद में देश के हालात के बारे में पूछे जाने पर 60 % लोगों ने कहा कि हालात और ख़राब हुए हैं, जबकि 40% ने कहा कि हालात में सुधार हुआ हैं.

इराक़ की शिया अरब बहुल आबादी 2003 के बाद राजनीतिक रूप से काफ़ी ताक़तवर हो गई है, इसकी वजह से देश के सुन्नी अरब, कुर्द और अन्य अल्पसंख्यक समूहों में असंतोष बढ़ रहा है.

और यह साम्प्रदायिक विभाजन सर्वे में भी दिखा. 40% सुन्नी मुसलमान मानते हैं कि सद्दाम हुसैन के शासन में ज़िंदगी बेहतर थी.

हालांकि इस निराशाजनक आंकलन के बावजूद तरक्की के भी कुछ संकेत मिलते हैं. तीन में से केवल एक व्यक्ति ने मौजूदा समय में इराक़ को ‘ग़रीब’ माना.

जब गैलप इंटरनेशनल ने पुराने सरकारी अभिलेखागारों को खंगाला और 2003 में इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढे तो पता चला कि तब तीन में दो इराक़ियों ने यही बात कही थी.

अनबर प्रांत में रहने वाले 45 साल के एक व्यक्ति ने सर्वे टीम को बताया, “हालात बुरे हुए हैं या बेहतर, ये तय कर पाना बहुत मुश्किल काम है. बदलाव उम्मीद लेकर आते हैं और हमें अतीत को भूल जाने की आदत होती है. हो सकता है कि अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ हो, लेकिन उत्पादन और सुरक्षा में गिरावट है.”

अमेरिका ने 2003 में इराक़ पर आक्रमण किया था, ये मानते हुए कि देश के पास सामूहिक विनाश के हथियार हैं और सद्दाम हुसैन की सरकार वैश्विक सुरक्षा के लिए एक ख़तरा है.

लेकिन आज तक सामूहिक विनाश के हथियारों के कोई सबूत नहीं मिले. इसकी बजाय, युद्ध के कारण लाखों इराक़ियों की मौत हो गई है और देश अनिश्चितकालीन अस्थिरता में चला गया.

इस युद्ध को अमेरिकी सरकार के सही ठहराने के बावजूद, ऐसा लगता है कि अधिकांश इराक़ी इस युद्ध के पीछे की असल मंशा को आज तक संदेह की नज़र से देखते हैं.

51% इराक़ी मानते हैं कि अमेरिका ने इराक़ पर हमला इसके संसाधनों को लूटने के लिए किया था.

अरबर प्रांत और उन दक्षिण पूर्वी प्रांतों में ये भावना प्रबल है जहां तेल और गेस के भंडार हैं.

जबकि 29% लोगों का मानना है कि इस हमले का मक़सद सद्दाम हुसैन की सत्ता को उखाड़ फ़ेंकना था.

अन्य कारण, जैसे अमेरिकी रक्षा कांट्रैक्टरों के हित साधने, चरमपंथ से लड़ने और इराक़ में लोकतंत्र स्थापित करने को लेकर बहुत कम लोग सहमत हैं.

अमेरिकी हमला जैसे जैसे बढ़ता गया, सांप्रदायिक मिलिशिया सड़कों पर उतर पड़े. पड़ोसी ईरान ने भी हस्तक्षेप का मौका देखा क्योंकि इराक़ की 60% आबादी शिया मुसलमान है, जिन्हें सद्दाम हुसैन के शासन में लंबे समय से दबाया जा रहा था.

उत्तर में असंतुष्ट सुन्नी आबादी के बीच समर्थन मिलने के कारण इस्लामिक स्टेट का उभार हुआ और 2014 में इराक़ के सोल शहर पर कब्ज़े को लेकर एक नया संघर्ष शुरू हो गया.

अमेरिकी और उसके गठबंधन की ओर से बग़दाद को भारी सैन्य मदद मिली और जिसके दम पर 2018 में इस्लामिक स्टेट को पीछे धकेल दिया गया.

उसके बाद से एक क़िस्म की स्थिरतता का एहसास लौटा.

हालांकि सर्वे के मुताबिक़, इराक़ी अपने देश में अमेरिकी हस्तक्षेप के भविष्य को लेकर एकमत नहीं हैं.

जब युद्ध चरम पर था तो 2007 में अमेरिकी सैनिकों की रिकॉर्ड संख्या 1,70,000 थी, जबकि मौजूदा समय में ये संख्या 2,500 है.

इराक़ के दक्षिणी हिस्से में रहने वाले लोगों का मानना है कि अमेरिका को तत्काल पूरी तरह से इराक़ से निकल जाना चाहिए, जबकि कुर्दिस्तान और उत्तरी हिस्से में रहने वाले लोगों का मानना है कि कुछ हद तक अमेरिका की मौजूदगी बनी रहनी चाहिए.


सर्वे में जवाब देने वाले क़रीब 75% इराक़ी शिया लोगों का मानना है कि अमेरिकी गठबंधन फौजों की मौजूदगी बुरी है.

वे रूस को अपना राजनीतिक और सुरक्षा साझीदार मानते हैं. तेहरान और मॉस्को के बीच क़रीबी रिश्ते को देखते हुए इस उथल पुथल वाले इलाक़े में ये कोई ताज्जुब की बात नहीं है.

हालांकि चीन ने हाल के सालों में पश्चिम एशिया में अपने प्रभाव को आर्थिक रूप से बढ़ाया है लेकिन ये क्षेत्र परम्परागत रूप से अमेरिकी रक्षा छतरी के अंदर है.

हाल ही में बीजिंग ने ईरान और सऊदी अरब के बीच समझौता कराया और दोनों देश कूटनयिक संबंधों को बहाल करने पर समहत हुए हैं.

लेकिन नौजवानों के लिए भविष्य बहुत अच्छा नहीं है. साल 2019 में बग़दाद की सड़कों पर शुरू हुए तिशरीन या अक्टूबर आंदोलन को बुरी तरह कुचल दिया गया.

सर्वे में हिस्सा लेने वाले 47% इराक़ी देश में रुकना चाहते हैं और एक नए देश को बनाने में योगदान करना चाहते हैं, जबकि एक चौथाई लोग देश छोड़ना चाहते हैं.

एक व्यक्ति ने सर्वे टीम को बताया, “इराक़ी नौजवानों की एक बड़ी संख्या, ख़ासकर जो बग़दाद में रह रहे हैं, वो अपने बेहतर भविष्य देश के बाहर देख रहे हैं.”

अगर आप आंकड़ों को उम्र के अनुसार व्यवस्थित करें तो कहानी और साफ़ हो जाती है.

18-24 साल की उम्र के लगभग हर तीन में से एक इराक़ी देश छोड़ना चाहता है, जो देश के सत्ताधारी वर्ग के लिए बड़ी चुनौती है और इसके पीछे लंबे समय से लंबित भ्रष्टाचार का मुद्दा भी है.

लेकिन इराक़ की जटिलता को महज़ आंकड़ों में नहीं बयां किया जा सकता. लाखों इराक़ियों के लिए, पिछला दो दशक सदमे और उथल पुथल भरा रहा है.

हालांकि एक नई पीढ़ी उभर रही है, जिस पर अतीत का बोझ है जबकि उसे बेहतर भविष्य के लिए भी संघर्ष करना है.

लगभग 40% इराक़ी आबादी की उम्र 15 साल से कम है. इस युवा पीढ़ी के लिए आर्थिक सुरक्षा और नौकरी के अवसर अहम सवाल हैं, साथ ही शांति और स्थिरता भी उतना ही ज़रूरी है.

उम्मीद है कि इराक़ के नेता और उनके अंतरराष्ट्रीय समर्थक इन चुनौतियों का ठीक से सामना करेंगे.

(इस सर्वे में +/- 2.2% की ग़लती हो सकती है. इस सर्वे में 50% फ़ील्ड वर्कर हैं और सर्वे में शामिल लोगों में भी आधी महिलाएं हैं.)

डेटा जर्नलिज़्मः लियोनी रॉबर्ट्सन

डिज़ाइन और इलस्ट्रेशनः रईस हुसैन और इस्माइल मुनीर

एडिटरः माया मूसावी और जोहानस डेल

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जूलियन हज
बीबीसी अरबी