देश

“सरना धर्म की जय” : भारत के जंगलों में बसा विशाल आदिवासी समुदाय अलग धर्म के रूप में दर्जा पाने की मांग कर रहा है : रिपोर्ट

भारत में आदिवासियों का एक समुदाय अलग धर्म के रूप में दर्जा पाने की मांग कर रहा है. सरना धर्म के लोगों की यह मांग एक आंदोलन में तब्दील हो रही है.

ढोल-नगाड़ों के साथ अनुष्ठान की शुरुआत हुई, जिनकी ध्वनि पूरे गांव में सुनी जा रही थी. रंग-बिरंगी साड़ियों में सजी महिलाओं ने इस ध्वनि पर पारंपरिक आदिवासी लोकनृत्य शुरू किया, तो दर्शकों के पांव भी थिरकने लगे.

आखिरी में मिट्टी की झोपड़ी से 12 श्रद्धालु निकले और एक दूसरी झोपड़ी की ओर चले, जहां देवी की मूर्ति रखी है. सरपंच गासिया मरांडा के नेतृत्व में इन श्रद्धालुओं के हाथों में पारंपरिक पवित्र प्रतीक थे. जैसे मटके, तीर-कमान, हाथों से बने पंखे और कुल्हाड़ियां.

ओडिशा के सुदूर गुडुटा गांव में ये अनुष्ठान आदिवासियों के जीवन का अहम हिस्सा हैं. आदिवासी इन अनुष्ठानों को सरना धर्म का हिस्सा मानते हैं. यह वही प्रकृति पूजक मत है, जिसका दुनियाभर के कई आदिवासी समूहों में पालन किया जाता है. इन तमाम आदिवासियों की तरह भारत के जंगलों में बसा विशाल आदिवासी समुदाय प्रकृति की पूजा करता है. इसके लिए इन समुदायों के पास अपनी परंपराएं और अनुष्ठान हैं.

मरांडा कहते हैं कि पूरी प्रकृति में उनके देवता हैं. वह कहते हैं, “हमारे देवता हर तरफ हैं. हम अन्य जगहों की अपेक्षा प्रकृति की ओर देखते हैं.” बस उन्हें एक समस्या है. इस मत को कानूनन किसी धर्म का दर्जा नहीं मिला है और इस बात को लेकर आदिवासी समुदायों में बेचैनी देखी जा सकती है.

भारत में करीब 11 करोड़ आदिवासी हैं, जिनमें से लगभग 50 लाख सरना धर्म को मानते हैं. उनके बीच अपने इस मत यानी सरना धर्म को औपचारिक रूप से एक धर्म के रूप में मान्यता दिलाने का विचार धीरे-धीरे पांव पसार रहा है. उनका कहना है कि इस औपचारिक मान्यता से उन्हें अपनी संस्कृति और इतिहास के संरक्षण में मदद मिलेगी, क्योंकि आदिवासियों के अधिकार खतरे में हैं.

भारत में छह धर्मों को ही औपचारिक मान्यता मिली है. इनमें हिंदू, बौद्ध, ईसाइयत, इस्लाम, जैन और सिख धर्म हैं. इनके अलावा कोई व्यक्ति ‘अन्य’ श्रेणी को भी अपना सकता है, लेकिन आमतौर पर अधिकतर प्रकृति-पूजक चाहे-अनचाहे इन छह में से ही किसी एक धर्म के साथ जुड़ते हैं. ये प्रकृति-पूजक अब अपने सरना धर्म को मान्यता दिलाने के लिए सड़कों पर भी उतर रहे हैं. इनकी कोशिश है कि अगली जनगणना में उन्हें धर्म के रूप में अलग से गिना जाए.

मान्यता के लिए अभियान
इस साल द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद से इस अभियान को और बल मिला है. द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली महिला आदिवासी हैं, जो सर्वोच्च पद पर पहुंची हैं. वह खुद को देश के 11 करोड़ आदिवासियों के उत्साह के प्रतीक के रूप में पेश करती हैं. ये आदिवासी देश के अलग-अलग हिस्सों में छितरे हुए हैं. समुदायों में सैकड़ों कबीलों, भाषाओं, परंपराओं और मान्यताओं को लेकर बंटवारा भी है. इसलिए सभी सरना धर्म नहीं मानते.

पूर्व सांसद सलखन मुर्मू उन लोगों में से हैं, जो सरना धर्म को मानते हैं. वह इस धर्म को औपचारिक मान्यता दिलाने वाले अभियान के अगुआ नेताओं में से एक हैं. हजारों समर्थकों की भीड़ के साथ वह देश के कई राज्यों में प्रदर्शन और धरने कर चुके हैं. हाल ही में उन्होंने रांची में ऐसे ही एक प्रदर्शन में कहा, “यह हमारे मान-सम्मान की लड़ाई है.” उनके इस कथन पर भीड़ ने जोर का नारा लगाया, “सरना धर्म की जय.”

मुर्मू अपने इस संघर्ष को शहरी केंद्रों से आगे आदिवासी गांवों तक भी ले जा रहे हैं. उनका संदेश हैः “अगर सरना धर्म खत्म हो गया, तो देश के सबसे शुरुआती बाशिंदों से उसका संपर्क भी खत्म हो जाएगा.” मुर्मू कहते हैं, “अगर सरकार ने हमारे धर्म को मान्यता नहीं दी, तो मुझे लगता है कि हम पूरी तरह खत्म हो जाएंगे. यदि हम किसी लोभ के कारण, किसी दबाव की वजह से या फिर किसी जोर-जबर्दस्ती के कारण अन्य धर्मों को अपनाएंगे, तो अपना पूरा इतिहास और जीवनशैली खो बैठेंगे.”

वैसे मुर्मू जिस उद्देश्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उस पर पहले भी ठोस काम हो चुका है. 2011 में आदिवासियों के लिए काम करने वाली एक सरकारी संस्था ने भी सरकार से सरना धर्म को मान्यता देने की सिफारिश की थी. 2020 में झारखंड राज्य की सरकार ने इसी मकसद से एक प्रस्ताव भी पारित किया था. झारखंड की 27 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. इस बारे में भारत सरकार ने कोई टिप्पणी नहीं की है.

क्यों मिले अलग धर्म का दर्जा?
रांची यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके मानवविज्ञानी और आदिवासी जीवन का गहन अध्ययन करने वाले करमा ओरांव कहते हैं कि सरना धर्म को औपचारिक मान्यता का एक ठोस तर्क तो इसके मानने वालों की संख्या ही है. वह बताते हैं कि 2011 की राष्ट्रीय जनगणना के मुताबिक सरना धर्म के अनुयाइयों की संख्या जैन धर्म को मानने वालों की संख्या से ज्यादा है. जैन धर्म भारत का छठा सबसे बड़ा धार्मिक समूह है. हिंदू धर्म सबसे बड़ा है, जिसके मानने वाले देश की कुल 1.4 अरब आबादी के 80 प्रतिशत हैं.

2011 की जनगणना में 49 लाख से ज्यादा लोगों ने धर्म के कॉलम में अन्य को चुना था और अन्य के साथ ‘सरना धर्म’ लिखा था. जैन धर्म के मानने वालों की संख्या लगभग 45 लाख है. इस तर्क के साथ ओरांव कहते हैं, “हमारी आबादी जैन धर्म को मानने वालों से ज्यादा है. तो हमें एक अलग धर्म के रूप में मान्यता क्यों नहीं मिल सकती?”

भारत में सक्रिय हिंदू संगठन देश के तमाम आदिवासियों को हिंदू धर्म का ही हिस्सा कहते हैं, लेकिन ओरांव इसे गलत बताते हैं. वह कहते हैं, “आदिवासियों और हिंदुओं में कुछ सांस्कृतिक समानताएं हैं, लेकिन हम उनके धर्म में शामिल नहीं हैं.” ओरांव बताते हैं कि उनके धर्म में ना तो जाति-पांति होती है और ना ही मंदिर व ग्रंथ आदि. सरना धर्म में पुनर्जन्म जैसे विश्वास भी नहीं हैं.

सरना धर्म के नेता मानते हैं कि हिंदू और ईसाई धर्म में धर्मांतरण के कारण उनका मत अस्तित्व के खतरे से जूझ रहा है. इसलिए उन्हें औपचारिक मान्यता मिलना उनके वजूद से जुड़ा है.

वीके/वीएस (एपी)