विशेष

सूखा और गीला रौज़ा…..इस मक़बरे में शेरशाह सूरी के साथ उसके परिवार के अन्य 24 लोगों की क़ब्रें भी हैं!

Tajinder Singh
=========
सूखा और गीला रौजा…..
इधर शेर शाह सूरी पर काफी पोस्ट देखने को मिल रही है। 22 मई 1545 को गोला फट जाने के कारण शेरशाह की मृत्यु हो गयी थी। कुछ लोग कहते हैं कि सासाराम स्थित शेरशाह के मकबरे में उसका केवल एक हाथ ही दफन है। इस मकबरे में शेरशाह के साथ उसके परिवार के अन्य 24 लोगों की कब्रें भी हैं। हुमायूं को खदेड़ने वाले इस कुशल पठान शासक के मात्र 5 साल के शासन के नाम बहुत उपलब्धियां है।

अपने बड़े साहब से प्रेरणा लेते हुए अगर मैं इस महान शासक शेरशाह से अपना कोई सम्बन्ध न निकाल सकूं….तो लख लानत है मुझ पर।
तो साहबान, इस शेरशाह के गृहनगर सासाराम में तीन साल प्रवास करने का सौभाग्य प्राप्त है मुझे। उससे भी बड़े सौभाग्य की बात की मेरा घर शेरशाह के मकबरे से मात्र 150 मीटर की दूरी पर ही था। घर की छत से आप मकबरे को निहार सकते थे।

अधिकतर लोग शेरशाह के मकबरे के बारे में ही जानते हैं। लेकिन सासाराम में एक नही दो मकबरे हैं। एक मुख्य मकबरा जिसके चारों तरफ एक कृत्रिम झील है, इसे स्थानीय लोग गीला रौजा कहते हैं। उससे कुछ ही दूरी पर सासाराम के लस्करीगंज में एक दूसरा मकबरा भी है, जिसे स्थानीय लोग सूखा रौजा कहते हैं।

पुराने जीटी रोड से एक बेहद चौड़ी सड़क करीब 300 मीटर दूर स्थित शेरशाह के मुख्य मकबरे यानी गीला रौजा तक जाती है। आगे गाड़ियों के लिए पार्किंग स्थल, टिकट घर, शौचालय की व्यवस्था भी है। पुरातत्व विभाग के अधीन इस मकबरे में भारतीयों के मुकाबले विदेशियों के लिए टिकट बहुत मंहगा है। यहां आपको विदेशी बौद्ध टूरिस्ट अक्सर देखने को मिल जाएंगे। जो बौद्ध सर्किट यानी बनारस के सारनाथ और बोध गया के महाबोधि मंदिर के दर्शनों के दौरान रास्ते मे पड़ने वाले शेरशाह के मकबरे को देखने भी आ जाते हैं।

चारो तरफ से 1200 बाई 900 फ़ीट की कृत्रिम झील से घिरा शेरशाह का मकबरा भारतीय और अफगान स्थापत्य कला का बेहतरीन उदाहरण है। ये यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में भी शामिल है। झील के बीच एक ऊंचे वर्गाकार प्लेटफार्म पर ये मकबरा बना हुआ है। इसका गुम्बद 250 फीट चौडा और 150 फीट ऊंचा है। आपको हैरानी होगी कि इसका गुम्बद ताजमहल के गुम्बद से 10 फ़ीट ऊंचा है। इसका निर्माण शेरशाह ने अपने जीवन काल मे ही शुरू कर दिया था। किसी समय इस झील में ताजे पानी के प्रवाह और निकास की व्यवस्था की गई थी। लेकिन अब ऐसी कोई व्यवस्था नही। इसके लिए बनी नहर में अब पानी नही। इस कारण इस झील का खड़ा पानी काफी बदबूदार हो जाता है। उस पर समस्या ये की इसी खड़े पानी मे विभिन्न अवसरों पर मूर्तियों का भसान भी किया जाता है। मैं जब सासाराम में था तो कुछ जागरूक लोगों ने झील को बचाने के लिए इसे रोकने की कोशिश की थी। लेकिन परम्परावादियों ने उनकी एक न चलने दी। और भसान की प्रथा बदस्तूर जारी रही। आज क्या स्थिति है…मैं कह नही सकता। लेकिन भारतीयों की मानसिकता को देखते हुए ये अनुमान लगा सकता हूँ कि हम आज भी ये प्रथा जारी रखे होंगे। हम अपनी ऐतिहासिक धरोहरों का कितना ख्याल रखते हैं ये बताने के लिए ये एक उदाहरण ही काफी नही है।

इससे कुछ 100 गज की दूरी पर स्थित सूखे रौजे की अगर बात करें तो आज इसके चारों तरफ घनी आबादी बसी हुई है। इस स्थान को लस्करीगंज कहते हैं। यहां सूखे रौजे में आने जाने की कोई रोकटोक नही हैं। घनी आबादी के कारण अब ऐसा सम्भव भी नही। इसके अंदर एक बावड़ी है। कुछ स्थानीय लोग इसे स्त्रियों का स्नानघर कहते हैं। क्योंकि यहां अंदर दीवार का पर्दा भी है। कुछ लोग इसे वजुघर कहते हैं। क्योंकि इस सूखे रौजे के परिसर में एक मस्जिद भी है। जहां आज भी नमाज अदा की जाती है।

इस सूखे रौजे का निर्माण शेरशाह सूरी ने अपने पिता हसन शाह सूरी के लिए कराया था। सूखे और गीले दोनों रौजे का वास्तुकार एक ही व्यक्ति मीर मुहम्मद अलीवाल खान था।

मैं 2005 से 2008 तक सासाराम में सहायक शाखा प्रबंधक के पद पर था। उस समय शेरशाह के मकबरे को जाने वाली मुख्य सड़क मेरे लिए कौतूहल का विषय हुआ करती थी। इस सड़क के दोनों तरफ अधिकतर डॉक्टर और क्वैक ही थे। 10 बाई 10 के उनके चैम्बरों के सामने सड़क पर बिछी चौकियों पर मरीजो का खुले में इलाज होता है। किसी को ड्रिप लगी है तो कोई पलस्तर करवा कर लेटा है। मेरे लिए ये बड़ा अजीब नजारा होता था। एक बार जरूरत पड़ने पर मैं भी पत्नी को वहीं ले गया था।

एक और घटना मुझे याद है। हमारे एक साथी की तबियत खराब हो गयी। मेरा घर जीटी रोड के करीब ही था। जीटी रोड के दूसरी तरफ डॉक्टर साहब का घर और क्लिनिक एक साथ था। रात 9 बजे के करीब हम साथी को लेकर डॉक्टर साहब के पास पहुंचे। क्लिनिक बंद और डॉक्टर साहब ऊपर अपने घर मे थे। खटखटाने पर एक व्यक्ति ने बड़ी हील हुज्जत के बाद दरवाजा खोला और हमे अंदर घुसने दिया। उसके बाद उसने फिर मुख्य दरवाजे पर ताला लगा दिया। इसके बाद उसने ऊपर डॉक्टर साहब के घर को जाते दरवाजे का ताला खोला। डॉक्टर साहब आये मरीज को देखा, दवा लिखी और फिर ऊपर चले गए। फिर ऊपर उनके घर को जाते दरवाजे का ताला बंद हो गया और फिर हमारे लिए क्लिनिक का ताला खोल हमे बाहर निकाला गया।

मेरे लिए ये सब बिल्कुल हैरान करने वाला दृश्य था। लेकिन वहां के लोगों के लिए बिल्कुल सामान्य। जिंदगी में सबसे पहले एक आम नागरिक के कंधे पर रायफल लटकती पहली बार मैंने वहीं देखी। बन्दा भले सायकिल से जा रहा हो लेकिन पीछे कंधे पर रायफल लटकती आप देख सकते थे। रायफल वहां की जरूरत थी या शान….ये बात मुझे समझ नही आयी।

लेकिन एक बात जरूर समझ आई कि शेरशाह का मकबरा यानी गीला रौजा सासाराम की शान जरूर है। अगर कभी इस रास्ते से गुजरे तो इसे देखने के लिए समय जरूर निकालें। वैसे पहले पुराने जीटी रोड से, जो सासाराम के बीच से होकर गुजरता था, ये मकबरा मात्र 300 गज की दूरी पर था। लेकिन अब जीटी रोड का रास्ता बदल जाने के कारण ये काफी दूर हो गया है।

लेखा कृति
सासाराम में मेरे पिताजी उप विकास आयुक्त(डीडीस) के पद पर 1999 से 2002 तक थे।तब हमें भी वहाँ रहने और घूमने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
सूखा रौजा का नाम सुने थे पर वहाँ कभी गए नहीं।जबकि गिला रौजा तो कई बार घूमने गए थे।
बिहार में कई जगह और भी छोटे- छोटे मकबरे टाइप के हैं। जिसके बारे में स्थानीय लोग भी सही से कुछ नहीं बता पाते।पर लगता यही है कि वो सब भी शेरशाह के काल का ही है।
मेरे अनुमान से तो यही लगा कि तब रात्रि पड़ाव के लिए बनाया गया होगा।या वहां छोटा-मोटा दरबार लगता होगा।


जानने की इच्छा से दो जगह मैं गई।जहाँ बाहर का गुम्बद और अंदर हॉल जैसा है पर अंदर कोई मजार नहीं।एक जगह का बनावट आठ कोणीय तो दूसरी जगह का षटकोण था।षटकोण वाले हॉल में गुम्बद से जंजीर लटका था।जिसे स्थानीय लोग अब रहने न दिए बस अवशेष के रूप में कड़ी ही शेष है।
हम जानना चाहें वहां के लोगों से कि इसे क्या कहते हैं?
तो कहता है-ई मकरौआ है।
पता न क्यों ये शब्द मुझे मकबरा का भ्रंस लगा।कुछ तस्वीरें शेयर करना चाहूंगी