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हत्याओं और जनसंहार के मौसम में साहित्य के रंगारंग जलसों में गाने-बजाने वालों से…

Kavita Krishnapallavi
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जिस दिन हम सत्ता के आगे झुकने वालों से, फासिस्ट हत्यारों के हाथ चूमकर उनसे ईनाम और वजीफा लेने वालों से, हत्याओं और जनसंहार के मौसम में साहित्य के रंगारंग जलसों में गाने-बजाने वालों से, पतित छद्मवामियों, लिजलिजे लिबरलों, निठल्ले कायर बकवासियों, अवसरवादियों, कैरियरवादियों, बौद्धिक लफंगों और साहित्यिक दुराचारियों व दल्लों से हद दरजे की नफ़रत का खुला इजहार करना और इन सबको नंगा करते रहना बंद कर दें, तो समझ लेना कि हमने भी ज़मीर का सौदा कर लिया, समझ लेना हम भी थक गये, चुक गये या बिक गये! तब समझ लेना कि हमने भी सपने देखना बंद कर दिया और सफल सद्गृहस्थ बन गये!
जब सड़कों पर अत्याचार और बर्बरता की बारिश हो रही हो और हमारी कलम उसके ख़िलाफ़ लोगों से खुलकर बात करने की जगह शब्दों की अमूर्त रेशमी कताई-बुनाई करती दीखे तो समझ लेना कि हम भी पक्षत्यागी बन चुके हैं और भ्रम का कुहासा फैलाने वाले उन बौद्धिकों में शामिल हो चुके हैं जो किसी भी अत्याचारी सत्ता के वर्चस्व (हेजेमनी) के प्रमुख अवलंब होते हैं!
यह भूलना नहीं होगा कि इंसाफ़ की लंबी ऐतिहासिक लड़ाई में खंदकों से मोर्चा छोड़कर भागने वाले सांस्कृतिक-बौद्धिक सेनानी अन्याय की सत्ता के पक्ष में खड़े सबसे ख़तरनाक बहुरूपिये होते हैं क्योंकि वे शब्दों का मायावी इंद्रजाल रचकर भविष्य के प्रति लोगों की उम्मीदों को दीमक की तरह चाट जाते हैं, उनकी इतिहास-दृष्टि को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं और उनकी संकल्प-शक्ति और युयुत्सा को क्षरित-विघटित कर देते हैं! मुख्यतः ऐसे ही कायर, गद्दार बौद्धिकों के ज़रिए अत्याचारी और फ़ासिस्ट शासक तक जनता से यह ‘सहमति’ (कंसेंट) हासिल कर लेते हैं कि वे उसपर शासन करते रहें क्योंकि किसी भी क्रान्तिकारी आमूलगामी बदलाव के प्रोजेक्ट के बारे में सोचना निरर्थक है, अव्यावहारिक है, असंभव है, एक यूटोपिया है!
ऐसे मायावी शैतानों के साथ जो उदारता का बर्ताव करते हैं, समझ लीजिए, कल वे भी उन्हीं की महफ़िलो में पाये जायेंगे!

Kavita Krishnapallavi
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कवि राजेश जोशी की एक पोस्ट और उसपर मेरा कमेंट :
“अचानक ही एक बात याद आगई ।चार्ली चैप्लिन की ग्रेट डिक्टेटर की अन्तिम स्पीच चैप्लिन किस मंच से देता है? वह मंच तो हिटलर के लिये बना, उसकी सरकार का मंच था ।”
— राजेश जोशी
“यह तर्क बेहद बोदा और हास्यास्पद है I चार्ली हिटलर विरोधी की खुली पहचान के साथ, और नाज़ियों के आमंत्रण पर, वहाँ भाषण देने नहीं गया था! फिल्म में नाटकीय परिस्थितियों में उस नाई को हिटलर समझ लिया जाता है और वह वहाँ अपनी बात कहने में सफल हो जाता है I दूसरी बात, फ़ासिज़्म और युद्ध विरोधी मेसेज देने के लिए चार्ली ने फ़िल्म में एक नाटकीय कल्पना को, या कहें कि अयथार्थ को यथार्थ के रूप में दर्शाया है I इस बात को न समझना कला की कुत्सित प्रत्यक्षवादी दुर्व्याख्या होगी I जो दंगों, जनसंहार, माब लिंचिंग के बर्बर सूत्रधारों की गोदी मीडिया के गोयबल्सी गिरोह के मंच पर गये थे, उन्हें मोदी गोदी के पत्रकार टट्टुओं ने भाजपाई होने के भ्रम में नहीं बुलाया था (और यदि ऐसा होता तब तो यह आजतक और विश्व रंग का मंच सजाने वाले प्रगतिशीलों के लिए और भी शर्म की बात होती!) बल्कि ऐसा प्रगतिशील जानकर बुलाया था जिनके दौड़े चले आने की उम्मीद थी! यहाँ बुर्जुआ जनवादी स्पेस के इस्तेमाल का तर्क भी अगर कोई देगा तो बेहद अश्लील लगेगा!”
— कविता कृष्णपल्लवी

Kavita Krishnapallavi
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पुराणों में किस्से मिलते हैं कि जीवन भर ब्रह्मचर्य पर अडिग किसी ऋषि-मुनि का चित्त चौथेपन की अवस्था में किसी चंचला को देख चंचल हो गया और उनका तपोव्रत-भंग हो गया ।
हिन्दी के कई सुप्रतिष्ठित वामी लेखकों के साथ भी ऐसा होता है । जीवन भर पुरस्कारों और वजीफों की संस्कृति का विरोध करते रहे और बुढ़ापे में कोई सम्मान या पुरस्कार लेने के लिए सत्ता या पूँजी के किसी संस्क़ृति-प्रतिष्ठान में मंच को सुशोभित करते नज़र आये ।
हिन्दुत्ववादी फासिस्टों का भोंपू मीडिया घराना भी अगर आसमान का तारा बनाने लगे तो बनने को मन तो डोल ही जाता है ।

डिस्क्लेमर : लेखिका के निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है