साहित्य

हम चाहते कुछ और हैं, होना कुछ और चाहिये, होता कुछ और है। जैसे सब गड्डमगड्ड है….By-सर्वेश तिवारी श्रीमुख

Sarvesh Kumar Tiwari
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और अंततः एक बरस और बीत गया। बीतता साल यदि राम के बनवास की तरह बीत जाय तो क्या बात हो, पर जीवन बीतता दशरथ की आयु की तरह ही है। यूँ ही चलते चलते पता चलता है कि हाथ से कुछ पल और सरक गए…

‘बिहारी’ मेरे प्रिय कवि हों, ऐसा नहीं है, पर “जिन दिन देखे वो कुसुम गयी सु बीति बहार!” पर हमेशा अटकता रहा हूँ मैं। या फिर “अब हमारे बाग से फिर मिट रहा है गुलहजारा” कहते बच्चन! लगता है, सबकुछ साला चुपचाप सरक ही तो रहा है। कितना कुछ सरक गया हाथ से…

इस प्रकृति में मनुष्य के अलावे कोई दिन नहीं गिनता। सब चुपचाप बहे जा रहे हैं। सबने समय के बहाव के साथ सामंजस्य बैठा लिया है, और उसी में ढूंढ लिया है आनन्द। शिकारियों के भय के बीच में भी हिरण का बच्चा वैसे ही उछल लेता है, जैसे नाचती उछलती चलती है नदी। काल का तीर लगने के समय तक कोयल के स्वर में दुख नहीं उभरता, उसकी मिठास कम नहीं होती। सब अपने जीवन में खिलखिला ही रहे हैं।

आदमी अपना समूचा विज्ञान झोंक कर नदियों की राह रोक रहा है, फिर भी उसकी धार का जलतरंग कभी दुख के राग नहीं बजाता। अब भी नदी के साथ केवल प्रेम के गीतों पर ही जुगलबंदी हो सकती है।

बस हम हैं जो हानि-लाभ का हिसाब लेकर बैठे हैं। बुद्धिमान होने का दबाव हमसे हमारा सहज बहाव छीन चुका है। तो क्या यह मानें कि बुद्धि आनन्द में बाधक है…? छोड़िये!

हाँ तो बात बीतते साल की। यूँ तो हम न काटें तब भी कट ही जाता है समय, पर समय काटने के दो तरीके हैं। पहला निर्दोष होने के बाद भी सजा काट रहे बन्दी की तरह, जो किसी भी तरह दुख के दिन को काट लेना चाहता है। और दूसरा तरीका है चार दिन की छुट्टी में गाँव आये परदेशी का, जो इसी चार दिन में अपने सारे अपनों से मिल कर हँस-खेल लेना चाहता है। कौन जाने अगली छुट्टी तक क्या रहे क्या न रहे… समय कटना इस दूसरे तरीके से ही चाहिये, पर कट पहले की तरह जाता है।

साल कटे तो ऐसे कटे जैसे प्रेयसी के साथ नदी किनारे बैठे बैठे जाने कैसे कट जाते है तीन घण्टे… जैसे भैंस के पीठ पर सो कर पूर्वी गा रहे किसी चरवाहे के एक ही गीत में कट जाती है साँझ… जैसे बड़े भाई के कंधे पर चढ़ कर अपना पूरा बचपन काटता है कोई छोटू…

रुकिये। हम चाहते कुछ और हैं, होना कुछ और चाहिये, होता कुछ और है। जैसे सब गड्डमगड्ड है। जिंदगी भी तो ऐसे ही कटती है न।
इस साल तो जैसे तैसे कट गया, पर अगले साल सोच समझ कर काटेंगे, ताकि यह कटना कटने जैसा न लगे…
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।