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‘हर संपत्ति-साम्राज्य के पीछे कोई बड़ा अपराध होता है’

Kavita Krishnapallavi
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(ये टिप्पणियाँ कुछ वर्षों पुरानी हैं! अभी के समय में बहुत प्रासंगिक लग रही हैं, इसलिए फिर से दे रही हूँ)
बाल्ज़ाक ने लिखा था कि ‘हर संपत्ति-साम्राज्य के पीछे कोई बड़ा अपराध होता है !’ बाल्ज़ाक का यह कथन पूँजीवादी समाज के एक ऐसे अन्तर्निहित तर्क को उद्घाटित करता है, जिसे हम जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी विस्तारित कर सकते हैं ! अपवादों को अगर छोड़ दें, तो यश-ख्याति, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा सत्ताधारियों और सेठों द्वारा प्राप्त प्रशंसा, पुरस्कार, पद आदि के भी जो साम्राज्य एक रुग्ण-पतित-अत्याचारी-अनैतिक बुर्जुआ समाज में जीते हुए कुछ भद्र-कुलीन-बौद्धिक जन सामाजिक-राजनीतिक जीवन या साहित्य-कला-संस्कृति-थियेटर आदि के क्षेत्र में खड़े कर लेते हैं, उनके जीवन की नीम-अँधेरी पार्श्वभूमि में यदि झाँका जाए और उनकी रंगशाला के तलघर की खोजबीन की जाए; तो वहाँ शातिर अपराधी के तमाम सरंजाम — दस्ताने, नकाब, छुरे, नक़बजनी और ठगी के सामान, भेस बदलनेके सामान आदि मिल जायेंगे ! वहाँ दरबारी पोशाकें भी मिलेंगी और स्टाम्प पेपर्स पर टंकित आत्मा और ज़मीर को गिरवी रखने के दस्तावेज़ भी !

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बाल्जाक का कहना है,”दिन दहाड़े जुआ खेलने वाले और रात को खेलने वाले के बीच वही फ़र्क़ होता है जो एक बेपरवाह पति और अपनी प्रेमिका की खिड़की के नीचे बेसुध पड़े प्रेमी के बीच होता है !”

साहित्य-कला-संस्कृति की दुनिया में खुले दक्षिणपंथी सत्ताधर्मियों और छद्म-वामपंथी सत्ताधर्मियों में भी बस इतना ही फ़र्क़ होता है I
पहले कुछ लोग होते थे जो धूप में चटाई बिछाकर सुड़क-सुड़क कर घी पीते थे, सबके सामने ! और कुछ कम्बल ओढ़कर पीते थे I धीरे-धीरे सभी जान गए कि कौन-कौन घी पी रहा है !

तब यह तर्क दिया जाने लगा कि ड्योढ़ी से जब घी बँट ही रहा है, तो पीने में कोई बुराई नहीं है ! अब जब भी किसी ड्योढ़ी से घी बँटता है, सभी मंदिर के बाहर बैठे भिखमंगों की तरह कतार लगाकर घी पीने बैठ जाते हैं ! कहते हैं कि घी पीने से हमारे कंठ में बहुत ताक़त आ जायेगी और हम और अधिक दहाड़ भरी आवाज़ में जनता के गीत गायेंगे !😀😃😄😁😆😅😂🤣