Ayaz Sherwani
============
यहूदी जितनी भी जल्द जितनी कामयाबी पा लें, अब उसमें कोई हैरत नहीं, क्यूंकि यहूदी अपने मज़हब, मुल्क और नस्लों की फ़िक्र से जुनून की हद तक जुड़े हुए हैं । रही बात इजतिमई तौर पर मिल्लते इस्लामिया की तो जब हमारी ज़िंदगी में आपस में… बुग्ज़…किसी भी बात को दिल में रखकर बदला रखकर नीचा दिखाने की फ़िक्र में रहना, हसद…..किसी की हलाल इज्जत और रिज्क या खिदमतगार होने से दिल में उसके लिए बुराई रखना, और गीबत…अपनी ताकत, दौलत या कुनबे के गुरुर में या किसी का बड़ा एहसान छुपाने के लिए बुराई करना ,..किसी से दुश्मनी मानकर नुकसान चाहने की फ़िक्र में, नुकसान करने की फ़िक्र में रहना, लालच…किसी को खुश करने के लिए किसी के खिलाफ किसी भी हद तक जाना, ज़्यादा से ज़्यादा जमा करने की की फ़िक्र में लगे रहना और किसी का नुकसान करके खुद का फायदा सोचना, खौ़फ़…जो किसी भी तरह के नुक़सान के डर से हक के साथ खड़े होने से रोकता है और किसी भी असरदार या सिस्टम या सरकार के डर से उसके खिलाफ़ खड़े होने से रोकता है….ये सब ही अक्सर हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा बना चुके हैं, तब हम खुद सोच सकते हैं कि बतौर एक मुसलमान के हम कहां खड़े हुए हैं…और क्या कुछ बाक़ी है।
और आख़िर में एक संजीदगी से सोचने का मौज़ू ये है कि मसलक के नाम पर जो बुग़ज़, हसद, कीना और दूसरे पर ग़ालिब आने की जो लालच हमारे अंदर है, वो कहीं हमारा बड़े से बड़ा नुकसान करने की फ़िक्र में लगे लोगों को मौका देकर हमें, हमारे ही हाथों किसी और बड़ी बदहाली की तरफ़ ना पहुंचा दे।