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#Arabs #WorldHistory : तेल का कुआँ : अपनी जवानी में सिर्फ़ चालीस ऊँट सवार के साथ उन्होंने रियाध पर क़ब्ज़ा कर लिया था!

Praveen Jha प्रवीण झा
लेखक प्रवीण झा पेशे से चिकित्सक हैं

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#Episode2 #Season3
एक सवाल मन में उठता है कि मदीना के लिए चलने वाली हिजाज़ रेलवे आखिर गयी कहाँ। उस्मानिया सल्तनत में यह दुनिया की पहली रेलवे लाइन में से एक हुआ करती थी। आज जब सऊदी अरब के पास अकूत संपत्ति है, तो दमिश्क से मदीना को जोड़ती यह पटरी लगभग गायब है। हालाँकि मक्का-मदीना क्षेत्र में तमाम आधुनिक सुविधाओं से लैस तेज गति की हरमैन अस्सारी (एक्सप्रेस) ट्रेन चलती है, लेकिन उसका रूट सीमित है।

1917 में ब्रिटिश अफ़सर टी ई लॉरेंस के लिए एक बड़ा ख़ुफ़िया मिशन था इस हिजाज़ रेलवे लाइन को उड़ा देना। एक बार यह पटरी उड़ गयी, तो उस्मानिया सेना के लिए अरब के रेगिस्तान में हथियार लाना बहुत कठिन था। समस्या यह थी कि इसे उड़ाने के लिए ब्रिटिश फौज भी इस रेगिस्तान में नहीं पहुँच सकती थी। यह तो सिर्फ़ हिजाज़ के क़बीले और बदू ही कर सकते थे।

रेलवे आ जाने के बाद उन बदू लोगों का धंधा मंदा पड़ रहा था, जो ऊँट से हज यात्रियों को पहुँचाते थे। वे इस रेलवे से यूँ भी ख़फ़ा थे। वहीं अमीरों के दिल में अरब मुल्क का स्वप्न पल रहा था। लॉरेंस की मदद से अरबी क़बीलों ने एक-एक कर रेलवे स्टेशनों पर हमले और लूट शुरू किए। पटरियाँ उड़ायी जाने लगी, और तुर्क फ़ौजियों को ट्रेन से उतार कर बंदी बनाया जाने लगा। विश्व युद्ध के अंत तक यह रेलवे हमेशा के लिए बंद ही पड़ गयी।

क्या इस तरह अरब के लोगों ने खुद अपनी ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली? क्या रेलवे लाइन उड़ाना बग़ावत के लिहाज से उचित कदम था?

इन प्रश्नों का जवाब ढूँढना कठिन है। अगर लॉरेंस के अपने विवरण पढ़ें, तो उसमें लिखा है कि तुर्क सेना अरबों से कहीं अधिक आधुनिक लड़ाई लड़ रही थी, और बाग़ी बुरी तरह हार रहे थे। ख़ास कर एक क़बीले के लोगों की निर्मम हत्या और स्त्रियों के बलात्कारों का विवरण है, जिसके बाद उनका मनोबल टूटने लगा था। मुमकिन है ऐसी ही दमन की (अतिशयोक्तिपूर्ण?) ख़बरों ने उन्हें पटरियाँ उखाड़ने के लिए भड़काया भी।

जब विश्व-युद्ध में जर्मन-उस्मान तुर्क ख़ेमा हारने लगा, तो इन बाग़ियों के लिए यह सवाल था कि अब आगे क्या। पहले यह तय हुआ कि मक्का के शरीफ़ हुसैन स्वयं हिजाज़ के बादशाह कहलाएँगे। मगर ब्रिटिशों ने यह प्रस्ताव रखा कि उनके बेटों के बीच विवाद न हो, इसलिए उनका हक़ पहले तय हो जाए।

फ़ैसल के नाम सीरिया और जॉर्डन का इलाक़ा, ज़ैद के नाम इराक़ और वर्तमान अरब के कुछ हिस्से, अब्दुल्ला के नाम बग़दाद, और अली को मक्का का शरीफ़ बनाना तय हुआ। हद तो यह कि शेष दक्षिण का हिस्सा जो आज के खाड़ी अरब देश कहे जाते हैं, वह उन्हें नहीं मिला। अरब जुड़ने के बजाय टूटता नज़र आने लगा। अभी यह काग़ज़ी बँटवारा चल ही रहा था कि फ्रांस ने भी अपनी दख़ल दी कि हमारे हिस्से का क्या!

अरबी मुसलमानों को एक और झटका तब लगा जब उन्हें वादा-ए-बलफोर (Balfour declaration) की जानकारी मिली, जिसके अनुसार जेरुसलम यहूदियों को देने की बात हुई। मक्का के शरीफ़ हुसैन ने काहिरा के ब्रिटिश हाइकमिश्नर मैकमोहन को लिखा कि यह तो हमारे बीच कभी तय नहीं हुआ था। भला फ़िलिस्तीन यहूदियों को देने का एकतरफ़ा फैसला कैसे किया जा सकता है?

युद्ध के बाद जनवरी 1919 में पेरिस में शांति-वार्ता शुरू हुई। वहाँ फ़ैसल ने अपना वक्तव्य दिया, जिसका अनुवाद प्रस्तुत करता हूँ-

“सिंकंदरिया से फ़ारस तक की रेखा से दक्षिण के सागर तक जो लोग रहते हैं, वे अरब हैं। एक ही नस्ल की शाखाएँ और एक ही भाषा। वहाँ ग़ैर-अरबी एक प्रतिशत से भी कम हैं।
मेरे पिता ने जिस अरब राष्ट्रवादी क्रांति की शुरुआत की, उसका लक्ष्य एक संगठित अरब मुल्क था। मैंने स्वयं जिस आंदोलन का नेतृत्व किया उसमें सीरिया, मेसोपोटामिया और अरब क्षेत्र के लोग थे…अरब के रेगिस्तानी क़बीले सदियों से बिखरे रहे हैं, लेकिन पिछले वर्षों में रेलवे और टेलीग्राफ़ जैसे साधनों ने संपर्क बढ़ाया है।

मैं यह मानता हूँ कि वर्तमान स्थिति में सीरिया, इराक़, जज़ीरा, नज्द और यमन सांस्कृतिक एवं सामाजिक रूप से भिन्न हैं जिन्हें किसी एक सरकार से प्रशासित करना कठिन है। इस प्रशासन के लिए आपका सहयोग अपेक्षित है…

फ़िलीस्तीन के मुद्दे पर कहना चाहूँगा कि वहाँ बहुसंख्यक अरब ही हैं। हालाँकि यहूदी और अरब के ख़ून में समानता है और उनके चरित्र से हमारा कोई द्वंद्व नहीं। सैद्धांतिक रूप से देखें तो हम एक ही हैं। किंतु अरब इस समय ऐसी परिस्थितियों का जोख़िम नहीं उठा सकता, जो मज़हबों की लड़ाई से उत्पन्न हो सकती है। हमें अरब को विकास और समृद्धि के पथ पर ले जाना है, किसी ज़ंग में नहीं उलझना।

…मैं आपसे यह निवेदन करता हूँ कि आप अपनी सभ्यता हम पर थोपने का प्रयास न करें, बल्कि अपने अनुभव से हमें सही दिशा देने में सहयोग करें। इसके एवज में हम आपको बहुत कुछ तो नहीं दे सकते, किंतु हम आपके सदा आभारी रहेंगे”

फ़ैसल भी जानते थे कि वे इन पश्चिमी ताक़तों के कठपुतली बन चुके हैं। मार्च 1920 में सीरिया को एक देश का दर्जा देकर उन्हें दमिश्क की गद्दी पर बिठाया गया। अगस्त में फ्रांस ने उन्हें उतार कर बाहर का रास्ता दिखा दिया। अरब में पश्चिम की दख़ल का एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जो आज तक कमोबेश कायम है।

ख़ैर, उस वक्त ब्रिटिशों को यह लगने लगा कि इन फ़ैसल बंधु में ख़ास भविष्य नहीं। वह अरब के रेगिस्तान के मध्य में बैठे एक अमीर में भविष्य देख रहे थे।
मुझे 1925 की एक तस्वीर दिखी। लंदन के स्टार मोटर कंपनी की गाड़ी ‘किंग ऑफ अरबिया’ यानी अब्दुल अज़ीज़ अल सऊद के नाम।
(क्रमशः)
#Arabs #WorldHistory


Praveen Jha प्रवीण झा
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#Episode3 #Season3
“इस्लाम कोई पारिवारिक संस्था नहीं थी बल्कि पूरी दुनिया में फैली हुई आस्था थी। ऐसे में मक्का को स्थानीय प्रशासन के हवाले करना कुछ ऐसा ही होता जैसे वैटिकन को रोम नगर निगम के हवाले कर देना”

– टिम एम स्मिथ, पुस्तक ‘अरब्स’ में
प्रथम विश्व युद्ध में उस्मान तुर्कों की हार का असर सिर्फ़ अरब पर नहीं, बल्कि दुनिया के अन्य क्षेत्रों के मुसलमानों पर पड़ रहा था। अरब और ख़ास कर मक्का-मदीना जो इस्लाम की धुरी थी, उस पर यूरोपीय प्रभाव को लेकर चिंता थी। मसलन मुसलमानों की सबसे बड़ी जनसंख्या भारतीय उप-महाद्वीप में थी, जहाँ ख़िलाफ़त आंदोलन की शुरुआत हो रही थी।

लेकिन, अरब की मुख्य-भूमि को उस्मान तुर्कों से ख़ास सहानुभूति नहीं थी। वे भले ही मक्का-मदीना को ब्रिटिश हाथों में जाने देना नहीं चाहते, लेकिन इसे इस्तांबुल के हाथ भी नहीं सौंपना चाहते थे। जैसा हम जानते हैं कि विश्व युद्ध के दौरान उनके कुछ गुटों ने अंग्रेज़ों के साथ मिल कर बग़ावत भी की। सवाल यह था कि युद्ध के बाद मक्का-मदीना की देख-रेख और सुरक्षा किसके हाथ में रहे।

मक्का के शरीफ़ हुसैन का परिवार चूँकि अरब की बग़ावत में अग्रणी रहा था, तो वे स्वयं को स्वाभाविक रूप से उत्तराधिकारी मानते थे। लेकिन, नज्द के रेगिस्तान में अपना ख़ासा प्रभाव रखते सऊद परिवार इससे सहमत नहीं थे। वे वहाबी पंथ से ताल्लुक़ रखते थे, और पहले भी उनके पूर्वजों ने अपने कदम मदीना की ओर बढ़ाए थे। उस वक्त उस्मानिया सल्तनत ने उन्हें दबा दिया था, लेकिन अब तो उनकी भी ताक़त कमजोर हो चुकी थी। यह सऊद के लिए उचित समय था कि अरब प्रायद्वीप के रेगिस्तान पर अपना एकछत्र राज स्थापित कर सकें।

लेकिन, ब्रिटिश और फ्रेंच शक्तियों के होते यह कैसे मुमकिन था?
इसके लिए उन्होंने पहले से ही अपने समीकरण स्थापित कर लिए थे। 1915 में फ़ारस सागर में स्थित तारूत द्वीप पर ब्रिटिश सरकार और अब्दुल अज़ीज़ सऊद के मध्य एक करारनामा हुआ। इसके तहत रियाध और उसकी परिधि में स्थित रेगिस्तान के बड़े हिस्से पर सऊद परिवार का अधिकार तय हुआ। कुवैत, क़तर, और आज के एमिरात इलाक़े इत्यादि को उनसे मुक्त रखा गया। ब्रिटिश सरकार ने बाक़ायदा उनके लिए हथियार और वार्षिक धन-राशि भी मुहैया करायी, ताकि वह अपना प्रशासन संभाल सकें। लेकिन इस करारनामे में मक्का का ज़िक्र नहीं था।

अब्दुल अज़ीज़ सऊद की तस्वीर अगर देखें तो वह 6 फीट से अधिक लंबे, हट्टे-कट्टे क़बीला सरदार की तरह दिखते हैं। वे उस रेगिस्तान की रग-रग से वाक़िफ़ थे। कहा जाता है कि अपनी जवानी में सिर्फ़ चालीस ऊँट सवार के साथ उन्होंने रियाध पर क़ब्ज़ा कर लिया था। लेकिन, उन्हें सिर्फ़ एक रेगिस्तानी क़बीलाई सरदार मानना भूल होगी।

वह उस दौर के ऐसे कूटनीतिज्ञ हुए, जो हवा का रुख़ खूब समझते थे। उन्हें लगा कि अगर ब्रिटेन उनका इस्तेमाल करना चाहती है, तो वह भी उनका इस्तेमाल कर सकते हैं। जिस अरब मुल्क का ख़्वाब लोग उस्मानिया सल्तनत से बग़ावत या ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ जाकर करना चाहते हैं, वह ख़्वाब तो इसके बिना भी पूरा हो सकता है। जो इस्लाम पश्चिम के प्रभाव से घबरायी हुई है, उसे वे पश्चिम की मदद से ऐसी रूढ़ वहाबी शक्ल दे सकते हैं जैसी सदियों से नहीं मिली।

ऐसा नहीं कि अब्दुल अज़ीज अंग्रेज़ों द्वारा बिछाए रेड कारपेट पर चल रहे थे। उन पर भी वही ख़तरे थे, जो बाकियों पर थे। पश्चिमी ताक़तों से। हिजाज़ के फ़ैसल बंधु से। अरब के रेगिस्तान में भटकते और लूट-पाट करते बदू लोगों से। उनके अपने भाइयों और वहाबी क़बीलों से भी। जब इतिहास में कभी अरब नाम का मुल्क नहीं बन सका, तो वह कैसे आसानी से बना लेते?

उनकी सत्ता रणनीति के चार ऊँट माने जा सकते हैं। चार पहिए की मिसाल नहीं दे रहा, क्योंकि अरब में ऊँट बेहतर उपमा है। पहला कि पश्चिम ताक़तों से अच्छे संबंध बने रहें। दूसरा कि बदू क़बीले जो सदियों से भटकते रहे हैं, उनको अब रोक कर कहीं बसाया जाए। तीसरा कि मज़हबी एकता की ताक़त का प्रयोग किया जाए। चौथा कि अपने सऊद परिवार में गुणात्मक वृद्धि की जाए, और सभी को मिला कर (नियंत्रित कर) रखा जाए।

पश्चिम से संबंध का ज़िक्र किया है जो बाद में प्रगाढ़ होता गया। बदू क़बीलों को बसा कर उन्हें वहाबी तरीक़े से मज़हबी बनाया गया, और एक ‘इख़वान’ (ब्रदरहुड) सेना तैयार की जाने लगी। मज़हबी एकता के लिए कड़े क़ायदे-कानून तैयार किए गए, जिसमें भटकने की गुंजाइश कम हो। सऊद परिवार बढ़ाने के लिए वंश-वृद्धि की गयी। स्वयं अब्दुल अज़ीज़ के पैंतालीस बेटे बताए जाते हैं।

5 दिसंबर 1924 को अपने वहाबी और इख़वान सेना के साथ अब्दुल अज़ीज़ सऊद का मक्का में प्रवेश हुआ। वह दिन है और आज का दिन है। इन पंक्तियों के लिखने के अगले वर्ष इस घटना को एक सदी हो जाएँगे।
(क्रमशः)
#Arabs #WorldHistory


Praveen Jha प्रवीण झा
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#Episode4 #Season3
तेल का कुआँ!
जिस रेगिस्तान में पानी का कुआँ मिलना दूभर था, वहाँ तेल के कुएँ मिलने की उम्मीद नगण्य थी। यूँ भी उन दिनों यह अनुमान नहीं था कि भविष्य में दुनिया का सबसे प्रचलित ईंधन पेट्रोलियम होगा। जब उन्नीसवीं सदी के अंत अमरीका ने तेल निकालने शुरू भी हुए, तो यूरोप और एशिया में ख़ास उत्साह नहीं था। किंतु प्रथम विश्व युद्ध ने सभी समीकरण बदल दिए। वहाँ विजेता शक्तियों ने ईंधन के रूप में पेट्रोल का अधिक उपयोग किया, और जर्मनी की हार का एक कारण यह काले रंग का चिपचिपा द्रव भी रहा।
1909 में एक ब्रिटिश कंपनी APOC (एंग्लो-पर्सियन ऑय्ल कंपनी) ने फ़ारस (ईरान) के मस्जिद सुलेमान में तेल का एक बड़ा कुआँ खोद निकाला। किंतु ईरान का भूगोल अलग था। अरब प्रायद्वीप से तेल की उम्मीद नहीं थी, और न ही वह इलाक़ा ऐसे किसी शोध के लिए सुरक्षित था। जिस रेगिस्तान में यात्रा सबके बस की नहीं थी, वहाँ भटकते हुए तेल कहाँ ढूँढते? वहाँ के क़बीलों में ऐसी केंद्रित प्रशासन व्यवस्था नहीं थी और न ही उनके सरदारों में ऐसी दृष्टि थी। सिवाय इब्न सऊद (अब्दुल अजीज़ सऊद) के।

इब्न सऊद के अंदर एक क़बीलाई सरदार के साथ-साथ व्यापारिक बुद्धि भी थी। मक्का पर आधिपत्य की वजह मज़हबी हो सकती है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि वह आय का बड़ा स्रोत था (और है)। हिजाज़ रेल चलने के साथ ही वार्षिक हज-यात्रियों की संख्या लाख पहुँचने लगी थी। जब युद्ध के बाद यह रेल-यात्रा भंग हुई, तो यात्री घटने लगे। 1929 में आयी वैश्विक महामंदी ने तो संख्या घटा कर चालीस हज़ार कर दी। इब्न सऊद को लगने लगा कि आय का कोई स्थायी स्रोत ढूँढना ही होगा।

1931 में जब बहरैन में स्टैंडर्ड ऑय्ल कंपनी (कैलिफ़ोर्निया) ने तेल का कुआँ खोदा, तो इब्न सऊद की उम्मीद जगी। उन्होंने पहले ब्रिटिश कंपनी से संपर्क किया जिन्होंने अरब में तेल की संभावना से इंकार कर दिया। अमरीकी मूल कंपनी ने 1933 में आखिर एक करारनामा किया कि वे अरब में तेल की संभावना ढूँढ सकते हैं।

23 सितंबर 1933 को अमरीकी टीम अल-जुबैल गाँव में तेल तलाशने लगी। अगले दो वर्षों तक वे वहाँ से अल-दहरान की पहाड़ियों तक तेल तलाशते रहे, मगर कुछ हाथ नहीं आया। इब्न-सऊद स्वयं आकर इन वैज्ञानिकों के साथ उम्मीद लगाए घंटों बैठे रहते और हाथ के इशारे से कहते कि तेल वहाँ मिलेगा। किंतु विज्ञान उनके इशारे से तो नहीं चल सकता था। वह किसी झाड़ी को देख कर पानी का स्रोत ढूँढ भी लेते, मगर तेल तो उनकी समझ से बाहर थी।

1935 में समुद्र तट पर स्थित दमाम की छोटी पहाड़ियों पर काम शुरू हुआ। सात महीने तक खुदाई करने पर आखिर ज़मीन की गहराई से धुआँ निकलना शुरू हुआ। वैज्ञानिक उत्साहित हुए क्योंकि उसमें तेल की गंध थी। लेकिन सिर्फ़ धुआँ ही निकलता रहा, तेल की एक बूँद न मिली।


1936 के जून के तपते महीने में पहली बार दमाम के कुएँ में थोड़ा-बहुत तेल निकला। इब्न सऊद अपने काफ़िले के साथ वहाँ पहुँचे। उत्सव का माहौल बन गया। उन्हें कहा गया कि अब आगे के काम में सैकड़ों मज़दूर लगेंगे। अगले ही दिन से ऊँटों पर काफ़िले आने लगे। तीन कुएँ खोद दिए गए, मगर तेल नगण्य। छह कुएँ खोदने के बाद भी स्थिति नहीं बदली। यह साल सूखा निकला। अगला साल भी। अमरीकी टीम अपना बोरिया-बिस्तर बाँधने लगी, मगर सैकड़ों अरबी अब भी आस लगाए बैठे थे। उनके लिए ऐसी तपिश, ऐसी असफल तलाश, ऐसी अपूर्ण आशाएँ तो कोई नयी नहीं थी। सातवाँ कुआँ खोदा गया।

मार्च 1938 को लगभग डेढ़ किलोमीटर गहराई से तेल निकला। पहली खेप में 1500 बैरल तेल निकल आया। 7 मार्च तक यह बढ़ कर 3700 बैरल हो गया। उसके बाद तो बस निकलता ही चला गया। अमरीकी टीम खुशी से नाचने लगी, क्योंकि ऐसा अनवरत स्रोत दुर्लभ था। वहीं अरबी मज़दूर इस प्रतीक्षा में थे कि अब अगला कुआँ कहाँ खोदें।
ठीक अगले वर्ष 1 मई 1939 को इब्न सऊद रास तन्नुरा तट पर आए, और एक तेल पाइपलाइन का वाल्व अपने हाथों से खोला। सऊदी अरब से निकल कर पहला तेल टैंकर दुनिया में जा रहा था।

कुछ ही महीनों में एडॉल्फ हिटलर नामक व्यक्ति की सेना पोलैंड की ओर बढ़ रही थी। दुनिया को तेल की बहुत ज़रूरत पड़ने वाली थी। उन्हीं दिनों इब्न सऊद रियाध के बाहर आलीशान मुरब्बा पैलेस बनवा रहे थे। वहाँ ठेकेदारों की भीड़ में एक यमनी युवा ठेकेदार भी था।

विश्व-युद्धों और तेल कुओं के मध्य उस ठेकेदार का ज़िक्र ग़ैर-ज़रूरी होता अगर उसका नाम मोहम्मद बिन लादेन न होता।

(क्रमशः)
#Arabs #WorldHistory