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पाकिस्तान-चीन की ‘जिगरी दोस्ती’ में दरार आ गई है, पूरा मामला क्या है, जानिये!

साल 2013 में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का आगाज़ इस उम्मीद के साथ हुआ था कि ये पाकिस्तान की तस्वीर को पूरी तरह बदल देगा और उसकी गिनती दक्षिण एशिया की बड़ी ताकतों के रूप में होगी.

दशक भर का वक्त गुज़र जाने के बाद अब इसी परियोजना की वजह से सदाबहार दोस्त माने जाने वाले चीन और पाकिस्तान के रिश्तों में तनाव के कयास लगाए जा रहे हैं.

दरअसल, पाकिस्तान की मीडिया में ये रिपोर्ट आई है कि चीन ने सीपीईसी परियोजना के तहत ऊर्जा, जल प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन जैसे कई क्षेत्रों में पाकिस्तान के प्रस्तावों को मानने से इनकार कर दिया है.

सीपीईसी परियोजना की जॉइंट कोऑपरेशन कमेटी (जेसीसी) की बैठक के बाद दोनों देशों की ओर से जिस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए गए, उसको आधार बनाते हुए ये रिपोर्ट छापी गई थी.

इसके अनुसार, चीन ने पाकिस्तान की ओर से गिलगित-बाल्टिस्तान, ख़ैबर पख़्तूनख्वाह, पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर और तटीय इलाकों को लेकर दिए गए कई प्रस्तावों पर मंज़ूरी नहीं दी. इसके उलट पाकिस्तान ने चीन को सीपीईसी के कार्यों में कई बड़ी रियायतों पर हामी भरी है.

पूरा मामला क्या है?

कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान में अमेरिका के राजदूत डोनाल्ड ब्लोम ने ग्वादर पोर्ट का दौरा किया था. ग्वादर की रणनीतिक स्थिति तो अहम है ही लेकिन ये सीपीईसी परियोजना का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा भी है.

ताज़ा घटनाक्रम को कई मीडिया रिपोर्टों और जानकारों की नज़र में दोनों मुल्क़ों के बीच तनाव के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन वास्तविकता क्या है?

जेसीसी चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के लिए रणनीतिक फ़ैसले लेने वाली इकाई है. इसकी ग्यारहवीं बैठक 27 अक्टूबर, 2022 को हुई थी. उस समय पाकिस्तान मुस्लिम लीग़ (नवाज़) यानी पीएमएलन के आग्रह पर ये बैठक आयोजित की गई थी.

इस बैठक के करीब नौ महीने बीतने के बाद दोनों देशों ने एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए. इस दस्तावेज़ से पता चलता है कि चीन ने गिलगित-बाल्टिस्तान, ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में क्रॉस बॉर्डर टूरिज़्म और तटीय पर्यटन के प्रचार के प्रस्तावों पर सहयोग देने से इनकार कर दिया है.

चीन की असहमति

चीन ने सीपीईसी के फ़्रेमवर्क में जल संसाधन प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन और शहरी बुनियादी ढांचा विकास जैसे कई मामलों को शामिल करने के लिए पाकिस्तान के प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया. पाकिस्तान ने जल संसाधन के लिए नई कार्यकारी समूह के गठन का प्रस्ताव दिया, और चीन ने इसे भी ठुकरा दिया.

‘द एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि चीन ने दस्तावेज़ से कई बिजली कंपनियों की वित्तीय चुनौतियों से जुड़ी जानकारी को भी हटा दिया.

जलवायु और ऊंची लागत जैसे कई कारणों से पाकिस्तान ने ये भी प्रस्ताव दिया था कि ग्वादर में बन रहे 300 मेगावॉट वाली बिजली परियोजना को अभी या तो टाला जाए या स्थानीय कोयले का इस्तेमाल करने के लिए इस परियोजना को थार (थारपरकर) शिफ़्ट कर दिया जाए. लेकिन चीन सहमत नहीं हुआ.

लेकिन बैठक के बाद जो दस्तावेज़ सामने आए उससे पता चलता है कि दोनों देशों ने ग्वादर पावर प्लांट पर मौजूदा योजना के अनुसार ही आगे बढ़ने का निर्णय लिया

तो क्या ‘जिगरी दोस्ती’ में दरार आ गई है?

पाकिस्तान में अमेरिका के राजदूत डोनाल्ड ब्लोम ने बलूचिस्तान के प्रांत में ग्वादर बंदरगाह का दौरा किया.

ग्वादर वो जगह है जिसे 50 अरब डॉलर की लागत वाले सीपीईसी का सबसे अहम हिस्सा माना जाता है.

ये दौरा इसलिए भी ख़ास हो जाता है क्योंकि साल 2021 के बाद कोई अमेरिकी शीर्ष राजनयिक यहां नहीं गए थे. उस समय भी पाकिस्तान में अमेरिका के चार्ज डि अफ़ेयर्स बहुत कम समय के लिए ग्वादर पर रुके. उससे पहले किसी भी अमेरिकी अधिकारी ने साल 2006 के बाद से ग्वादर में कदम नहीं रखा था.

वर्ष 2022 में अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने कांग्रेस के सामने पेश की गई अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा था कि ग्वादर एक दिन चीन की सेना के लिए ठिकाना बन सकता है.

अमेरिकी राजदूत का दौरा

जापानी पब्लिकेशन ‘निक्केई एशिया’ की एक रिपोर्ट कहती है कि अमेरिकी राजदूत ब्लोम ने इस दौरे पर स्थानीय अधिकारियों, पाकिस्तानी नौसेना के वेस्ट कमांडर से भी मुलाकात की.

12 सितंबर को हुए इस दौरे के बाद पाकिस्तान में अमेरिका के दूतावास ने एक बयान जारी किया जिसके अनुसार, “डोनाल्ड ब्लोम ने ग्वादर पोर्ट का दौरा किया और वहां संचालन व्यवस्था की जानकारी ली.”

निक्केई एशिया ने एक लेख में इस दौरे को चीन के साथ तनाव भरे माहौल के बीच पाकिस्तान की ओर से सीपीईसी में कुछ रियायत लेने की तरीके के तौर पर देखा गया है. लेख में अमेरिकी राजदूत के दौरे को चीन को लेकर पाकिस्तान की उभरती रणनीति भी बताया गया है.

पाकिस्तान सरकार के एक अधिकारी के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले महीने सीपीईसी की कुछ परियोजनाओं पर आख़िरी मुहर लगनी है. पाकिस्तान इसमें चीन से कुछ रियायत चाहता है. ऐसे में ब्लोम के ग्वादर दौरे को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

सदाबहार दोस्त चीन

लेकिन पाकिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके टीसीए राघवन ये नहीं मानते कि पाकिस्तान अपने सदाबहार दोस्त चीन के लिए अपनी रणनीति को बदल रहा है.

वो कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि पाकिस्तान की ऐसी कोई रणनीति है कि अब चीन से दूर होकर अमेरिका के करीब जाए. पाकिस्तान की कोशिश हमेशा ये रहती है कि उसके चीन के साथ जो रिश्ते हैं वो मज़बूत रहे और इसके साथ ही अमेरिका के साथ भी उसके संबंध सुधरते रहें. मुझे नहीं लगता कि पाकिस्तान कभी भी अपने आपको ऐसी स्थिति में डालेगा कि उसे चीन के साथ अपने रिश्तों पर किसी भी तरह का समझौता करना पड़े.”

टीसीए राघवन का मानना है कि किसी एक घटना से रिश्ते नहीं बदल जाते.

फिर चीन क्यों कर रहा आनाकानी?

अगर ये मान लिया जाए कि पाकिस्तान और चीन के बीच सब कुछ ठीक चल रहा है तो भी ये सवाल उठना लाज़िम है कि चीन अपनी महत्वकांक्षी सीपीईसी परियोजना में निवेश से क्यों बच रहा है?

निक्केई एशिया की एक रिपोर्ट के अनुसार असल में सीपीईसी के तहत बने पावर प्लांट्स के लिए पाकिस्तान की ओर से भुगतान न किया जाना चीन की हताशा का सबसे बड़ा कारण है.

इसके साथ ही पाकिस्तान लगातार चीन के साथ सीपीईसी के तहत बनने वाली सबसे बड़ी रेलवे लाइन की लागत को कम करवाने के लिए मोलभाव कर रहा है.

पाकिस्तान चाहता है कि मेन लाइन-1 की लागत 9.9 अरब डॉलर से घटाकर 6.6 अरब डॉलर तक की जाए.

राजनीतिक अस्थिरता

जेएनयू में साउथ एशियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर महेंद्र लामा भी कहते हैं कि चीन अपने सीपीईसी परियोजना के ज़रिए पाकिस्तान के कोने-कोने तक इस तरह पहुंच गया है कि अब ये दोनों देश एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ सकते.

पाकिस्तान बीते कुछ सालों से आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता से घिरा हुआ है.

इसी ओर ध्यान दिलाते हुए महेंद्र लामा कहते हैं, “चीन नाराज़ भी नहीं है. बल्कि वो अभी पाकिस्तान में चुनाव का इंतज़ार कर रहा है. पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता तो है ही. इसलिए चीन ये देखना चाहता है कि चुनाव में क्या होता है. मुझे लगता है कि ये चीन का एक खेल है कि वो थोड़ा रुक कर आगे बढ़ेंगे ताकि नई सरकार व्यवस्था को जान-समझ ले. दरअसल, पाकिस्तान में जो भी सरकार आती है उसकी नीति सीपीईसी को लेकर बदल जाती है. और अभी तो वहां सरकार ही नहीं है.”

पाकिस्तान की माली हालत

द इंडिपेंडेंट की उर्दू सेवा ‘इंडी उर्दू’ के संपादक हारून राशिद का भी कुछ ऐसा ही मानना है.

हारून भी ये कहते हैं कि ताज़ा घटनाक्रम के लिए चीन की नाराज़गी नहीं बल्कि पाकिस्तान की माली हालत ज़िम्मेदार है. पूरी दुनिया में महंगाई ज़ोर पर है. हर मुल्क अपनी आर्थिक प्राथमिकताओं को पहले देख रहे हैं. चीन भी अपनी अर्थव्यवस्था और महंगाई से निपटने में लगा होगा, तो हो सकता है कि कुछ समय के लिए विदेशी निवेश कम कर दे. ये भी एक कारण हो सकता है कि चीन फिलहाल सीपीईसी में भारी निवेश से बच रहा है.

उनका कहना है कि पाकिस्तान तो चाहता है कि चीन का उसके यहां ज़्यादा से ज़्यादा निवेश हो लेकिन जब दूसरी तरफ़ चीन को देखें तो वो उसी परियोजना में निवेश करेगा, जिसमें उसे अपना फ़ायदा नज़र आएगा. वो सिर्फ़ पाकिस्तान के भले के लिए कोई काम नहीं करेगा, जब उसे अपना कोई रिटर्न न मिल रहा हो.

बेलआउट पैकेज

इंस्टिट्यूट ऑफ़ साउथ एशियन स्टडीज़ के लिए एक लेख में भारत के वरिष्ठ पत्रकार सी राजा मोहन ने भी अमेरिकी राजनयिक के ग्वादर दौरे को पाकिस्तान में चीन के दबदबे को कम करने के लिए अमेरिका की कोशिश से जोड़ा है.

वो लिखते हैं कि पिछले साल भारत को नाराज़ करके अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ़-16 जेट के रखरखाव के लिए आर्थिक मदद को मंज़ूरी दी. पाकिस्तान को बाढ़ से उबरने में मदद की. अमेरिका ने कथित तौर पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से पाकिस्तान को बेलआउट पैकेज दिलवाने में भी भूमिका निभाई.

इस लेख में सी राजामोहन कहते हैं कि ब्लोम का ग्वादर जाना ये दिखाता है कि पाकिस्तान अमेरिका और चीन के साथ अपने रिश्तों में संतुलन बैठाना चाह रहा है.

हारून राशिद इस ‘बैलेंसिंग एक्ट’ के लिए पाकिस्तान की पीठ थपथपाते हैं.

उनका कहना है कि पाकिस्तान अभी तक तो अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बैठाने का काम चालाकी से कर रहा है, वो दोनों से ही डॉलर ले रहा है.

ये देश भी बदले में पाकिस्तान से कुछ न कुछ लेते हैं. तो जब तक ये चल रहा है तब तक पाकिस्तान भी खुश और चीन-अमेरिका भी खुश.

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प्रियंका झा
पदनाम,बीबीसी संवाददाता