नई दिल्ली:इस्लामी दुनिया के प्रतिद्वंदी कई देशों में एक दूसरे के विरुद्ध लड़ रहे हैं। उनकी आपसी दुश्मनी उत्तर कोरिया के वैश्विक खतरे से अधिक बड़ा हो सकता है। दुनिया का अगला युद्ध कहां होगा? और इसका कारण कौन बनेगा?
Saudi Arabia's crown prince says his country will develop a nuclear bomb if Iran builds nuclear weapons. Mohammed Bin Salman made that startling statement during @NorahODonnell's recent visit to Saudi Arabia for this Sunday's @60Minutes https://t.co/iTga0YCnPm pic.twitter.com/iKRXt6pqYZ
— CBS News (@CBSNews) March 15, 2018
हालांकि उत्तर कोरिया का खतरनाक परमाणु कार्यक्रम अफने स्तर पर बाकी है, लेकिन एक बार फिर ऐसा प्रतीत होता है कि युद्ध का अगला मैदान भी मध्य पूर्व ही होगा, और इसका कारण इस क्षेत्र के दो शक्तिशाली देशों ईरान और सऊदी अरब की प्रतिद्वंदता होगी।
पिछले कुछ सप्ताहों में पूरे मध्य पूर्व में संघर्ष की स्थिति खतरनाक हद तक पहुँच गई है। सीरिया में युद्ध, इस्राईल के हस्तक्षेप का खतरा, यमन की मानवीय त्रासदी, लेबनान में संकट, इराक़ में समुदायिक झड़पें, और इस चीज़ का डर कि क्षेत्र में नए परमाणु हथियारों का प्रवेश हो जाए, यह वह चीज़ें हैं जिन्होंने स्थिति को गंभीर बना दिया है।
जिस चीज़ ने विश्लेषकों को सबसे अधिक चितित कर रखा है वह है ईरान और सऊदी अरब के बीच तनाव। यह तनाव न केवल धार्मिक आधार पर है, बल्कि इसने पूरी इस्लामी दुनिया को शिया और सुन्नी में बांट दिया है।
और यह तनाव मध्य पूर्व में शक्ति प्राप्त करने और ऐतिहासिक आधार पर भी है। क्षेत्र पर कौन अपना प्रभाव बना सकेगा? और भविष्य का निर्माण करेगा? कौन हारेगा? क्षेत्र के संकटों की समीक्षा उसके इतिहास को समझे बिना संभव नहीं है।
पिछले दिनों बीपीएस ने “सऊदी अरब और ईराक की कड़वी प्रतिद्वंदता” नाम से एक डाक्यूमेंट्री प्रकाशित की है।
इस डाक्यूमेंट्री बनाने वाली टीम के सदस्य रिपोर्ट मार्टिन स्मिथ ने पिछले दो वर्शों में क्षेत्र के सात देशों का दौरा किया है, और जो चीज़ें सऊदी अरब और ईरान को उत्तेजित कर रहीं हैं उनको एकत्र किया है, और उन्होंने बताया है कि वह कौन सी शक्तियां है जो आज के संकटों का मार्गदर्शन कर रही हैं।
सऊदी अरब और ईरान के बीच का मतभेद ऐतिहासिक है, इसका हालिया रुख तब प्रकट हुआ कि जब 2011 में अरब बहार के रूप में अरब जनता के बीच उठने वाले विद्रोह के बाद सऊदी अरब को पूरी अरब दुनिया में जनता की क्रांति का जब खतरा दिखाई दिया तो उसने इस आग को भड़काने का आरोप ईरान के सर पर मढ़ दिया।
जब अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा थे तो उन्होंने मध्य पूर्व की दो शक्तियों के बीच तनाव कम करने की कोशिश की। उनका कहना था कि इन दोनों को अपने पड़ोसियों का सम्मान करना चाहिए, हालांकि उनके इस बयान से सऊदी क्रोधित हो गए। इतिहास ने दिखा दिया कि कम से कम इस मामले में ओबामा की सोंच सही थी।
लेकिन अमरीका के दूसरे राष्ट्रपति ट्रम्प ने ठीक इसके उलट रुख अपनाया। वह विश्व शक्तियों और ईरान के बीच होने वाले परमाणु समझौते को समाप्त कर देना चाहते हैं, ताकि इस प्रकार ईरान को अलग थलग कर सकें।
ओबामा के उलट उन्होंने सऊदी अरब के लिए कोई लक्षमण रेखा नहीं खींची। और इसका एक प्रमाण यमन में देखा जा सकता है जहां पर सऊदी अरब पर युद्ध अपराध के आरोप लग रहे हैं लेकिन ट्रम्प चुप हैं। इस बीच ईरान ने भी सीरिया में बशार असद का समर्थन किया और लेबनान में हिज़्बुल्लाह को वित्तीय सहायता देता रहा।
बीपीएस की डक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि अगर पिछले एक दशक में क्षेत्रीय संघर्षों में दस लाख से अधिक लोगों की मौत हुई है, तो उनमें सऊदी और ईरानी नागरिकों की संख्या बहुत कम थी। यह कार्यक्रम संभवता ईरान और सऊदी अरब के इतिहास को दिखाता है। इसमे कोई संदेह नहीं है कि अमरीकी सरकार ने अधिकतर मौकों पर विनाश में मध्य पूर्व के इतिहास में बड़ी भूमिका निभाई है। अगरचे अमरीकी भूल गए हैं, लेकिन मध्य पूर्व के लोग नहीं भूलेंगे।
इस कार्यक्रम ने अपना आरम्भ ऐसी चीज़ से किया है जो इस विषय को दर्शाता है। यह एक ऐसी घटना थी जिसने ईरानियों को आज इस स्थान तक पहुँचाया है, लेकिन बहुत कम अमरीकी इसके बारे में जानते हैं। 1953 में ईरान की धर्मनिर्पेक्ष और डेमोक्रेटिक सरकार जिसके राष्ट्रपति वज़ीर मोहम्मद मुसद्दिक थे, को सीआईए और ब्रिटिश खुफिया विभाग एम16 द्वारा नियोजित तख्ता पलट से गिरा दिया गया, इसी कारण ईरान का शाह और इसका अत्याचारी शासन वापस आया और आखिरकार उसका 1979 में पतन हो गया।