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Video:डॉ कफ़ील ने सुनाई अपनी जेल की आपबीती”बच्चों के माँ बाप मुझे गुनेहगार नही मानते,मुझे किसी का ड़र

लखनऊ:बीआरडी हॉस्पिटल ऐंड कॉलेज में पिछले वर्ष ऑक्सीजन की कमी के कारण सैकड़ों की संख्या में बच्चों की मौत हुई थी जिसके बाद डॉक्टर कफ़ील खान नाम के एक डॉक्टर ने अपने इंसान होने का परिचय देते हुए मसीहा बनकर बच्चों की जान बचाने का काम किया था,लेकिन सरकार की बदनामी नाकामी पर पर्दा डालने के लिये कफ़ील को दोषी ठहराया गया था,जिसके चलते कफ़ील ने 8 आठ महीने जेल में गुज़ार हैं।

इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद कफ़ील खान ने अपनी जेल की आपबीती सुनाई है जिसको पढ़कर पत्थर दिल इंसान भी पिघल जायेगा,कफ़ील ने कहा कि “मैं बैरक के एक कोने में बैठा रहता. वहीं सोचता, वहीं सो जाता. कभी खाना खाता, कभी नहीं. कई-कई दिन बीतते, नहाने की हिम्मत नहीं जुटती क्योंकि सबको साथ नहाना होता था. शाम के 6 बजते ही हम अंदर कर दिए जाते तो सुबह 6 बजे ताला खुलता. गिनती होती. कैदियों की कतार में अपनी बारी का इंतजार करते हुए अस्पताल में मरीजों का इंतज़ार याद आता. और वो रात जब मरते बच्चों की सांसों के लिए मैं रातभर यहां से वहां दौड़ता और ऊपरवाले से दुआ मांगता रहा।

गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में पिछले साल ऑक्सीजन की कमी से लगभग 70 बच्चों की मौत के मामले में डॉक्टर खान एकाएक कठघरे में आ गए. सितंबर 2017 से अप्रैल 2018 तक का वक्त जेल में काटा. हाल ही में रिहा हुए कफील के लिए ये 8 महीने किसी आजमाइश से कम नहीं थे।

मुश्किल हालातों में मरीजों की जान बचाने का फैसला चट से लेने वाला ये डॉक्टर जेल के भीतर रोजमर्रा के कामों को लेकर भी पेशोपेश में रहता. ख़ून, बलात्कार, राजद्रोह के आरोपियों के बीच उस इंतज़ार के खत्म होने के इंतज़ार में जिसकी कोई मियाद नहीं थी

2 सितंबर की रात तकरीबन डेढ़ बजे भाई का फोन आया, तब मैं गोरखपुर से छिपते-छिपाते दिल्ली आ चुका था. उसने कहा कि मैं खुद को पुलिस के हवाले न करूं तो लखनऊ में मेरी बहन गिरफ्तार कर ली जाएगी. ये कोरी धमकी नहीं थी. आवाज में थरथराहट मैं फोन पर भी महसूस कर रहा था. अगली सुबह मैं लखनऊ में था. वहां से मुझे एक खुफिया जगह ले जाया गया. सवाल किए गए, धमकियां दी गईं कि मुझे या मेरे परिवार को किसी भी हाल में मीडिया के सामने कोई बयान नहीं देना है.

मेडिकल चेकअप के बाद रातोंरात गोरखपुर जेल में डाल दिया गया. चमचमाती दूधिया रोशनी वाले घर से एकाएक अंधेरी, सीलनभरी एक बैरक में।

60 विचाराधीन कैदियों की क्षमता वाली ‘शताब्दी’ बैरक में दोगुने से भी ज्यादा कैदी थे, मैं उनमें नया जुड़ गया. किसी पर हत्या का इल्जाम था तो किसी पर बलात्कार. बैरक के भीतर घुसते ही सारी आंखें मुझपर जम गईं. किसी में पहचान थी, किसी में संवेदना, किसी में सवाल. मैं सिमटकर एक कोने में बैठ गया. लगभग 15 दिन उसी कोने में बीते।

एक रोज एक कैदी आया. उसके हाथ में चाय थी. उसी रात एक दूसरे साथी ने बड़ी मनुहार से मुझे खाना खिलाया. संगीन अपराधों के ये आरोपी मुझे अवसाद से निकाल रहे थे. अस्पताल का रुआबदार डॉक्टर जेल के भीतर किसी बच्चे की तरह सहमा रहता. एक रोज मैं कोई किताब पढ़ रहा था कि तभी चीखने की आवाज आई. एक कैदी मानो फाड़ खाने के इरादे के साथ मेरी तरफ दौड़ रहा था. इससे पहले कि वो मुझतक पहुंच पाता, बाकियों ने उसे पकड़ लिया. डॉक्टर होने के नाते अब तक मैं समझ चुका था कि ये नशा छोड़ने के तुरंत बाद होने वाली तकलीफ थी।

डर पर काबू पाने का दिखावा करते हुए मैं आगे आया. उसकी सांसें सामान्य करने की कोशिश करते हुए मेरी छाती धड़-धड़ कर रही थी. ऐसे वाकये अक्सर घटते. तब मां की बहुत याद आती।

अब मैं बैरक के उस कोने से तो बाहर आ चुका था लेकिन कोई चीज तसल्ली नहीं देती थी. पहले घड़ी की सुइयों के साथ प्रतियोगिता बदा करता, अब एकदम खाली था. 24 में से पहला घंटा बीतता तो गिनती करता, जानते हुए कि अभी 23 घंटे बाकी हैं. मुझे नहीं पता था कि जेल से बाहर आने में कितना वक्त लगेगा लेकिन दिनों का बीतना ही मुझे जीने का मकसद देता था. सुबह 6 बजे बैरक का दरवाजा खुलता और हमारी गिनती होती. इसके बाद पूरे 12 घंटे होते, एक बार फिर गिनती और फिर दरवाजे के पीछे कैद होने के बीच।

मुझे नहीं पता होता था कि इस वक्त के साथ क्या करना है. बाहर था तो सुबह की शुरुआत अखबार और चाय के साथ होती. जेल में चाय लेना भी जंग जीतने से अलग नहीं था. चाय एक तो सुबह देर से आती, उसपर भारी भीड़. करछुल से एक-एक करके चाय ढाली जाती. अपनी बारी आते घंटाभर और लगता. चाय हाथ में आते तक चीनी वाला रंगीन पानी हो चुकी होती. मैंने चाय छोड़ दी. अखबार भी देर से आता और फिर चिंदी-चिंदी होकर यहां-वहां घूमता।