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जैवविविधता के नुक़सान और दुनिया भर में बढ़ती आबादी, दस अरब लोगों का पेट हम कैसे भरेंगे? : रिपोर्ट

जीएम फूड यानी जेनेटिकली मॉडीफाइड फूड अभी भी विवादित बना हुआ है. कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि जैवविविधता के नुकसान और दुनिया भर में बढ़ती आबादी को देखते हुए टिकाऊ वैश्विक खाद्य तंत्र का यह विज्ञान-आधारित तरीका अच्छा है.

भोजन का उत्पादन पर्यावरण के लिए भयावह होता है. ऑनलाइन विज्ञान पत्रिका आवर वर्ल्ड इन डाटा के मुताबिक, पर्यावरण में एक चौथाई कार्बन उत्सर्जन और दुनिया की जैवविविधता के नुकसाने के लिए खेती जिम्मेदार है.

एक तरफ पर्यावरण का क्षरण जारी है, दूसरी तरफ दुनिया की आबादी बढ़ती जा रही है. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2057 तक दुनिया की आबादी दस अरब तक पहुंच जाएगी. इसे देखते हुए यह सवाल उठता है कि जैवविविधता के नुकसान और जलवायु संकट की आपदा को कम करते हुए हम खाद्य उत्पादन में पचास फीसदी तक की बढ़ोत्तरी कैसे कर सकते हैं.

जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर डेवलपमेंट रिसर्च के डायरेक्टर और फूड इकोनॉमिक्स के विशेषज्ञ मतीन कईम कहते हैं, “हमें पता चला है कि जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता को देखते हुए कृषि के लिए ज्यादा जमीन का उपयोग करना सबसे बड़ा पाप है. इसका मतलब, हमें कम जमीन पर ही खाद्य उत्पादन करना है ताकि हम प्रकृति को बचा सकें.”

दस अरब लोगों का पेट हम कैसे भरेंगे?
कईम बताते हैं कि ऐसा करने के दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, “एक पक्ष का कहना है कि उपभोग को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए हमें अपने आहार-संबंधी व्यवहार में बदलाव लाना होगा. इसका मतलब है- कम बर्बादी, कम मांस. वहीं दूसरे पक्ष का कहना है कि हमें बेहतर तकनीक की जरूरत है जिससे खेती के लिए और अधिक पर्यावरण अनुकूल तरीके अपनाए जाएं.”

कईम मानते हैं ये दोनों ही दृष्टिकोण जरूरी हैं. एक के लिए हमें भोजन के उत्पादन के तरीके को बदलने की जरूरत है, खासकर जंतुओं से मिलने वाले प्रोटीन्स और पोषक तत्वों में कमी लाकर. हालांकि सिर्फ इतना ही काफी नहीं होगा. कई विशेषज्ञों की तरह उनका भी मानना है कि टिकाऊ खाद्य तंत्र की रणनीति के लिए जेनेटिक तकनीक एक अहम हिस्सा है.

कईम कहते हैं, “हर व्यक्ति चाहता है कि वो कम क्षेत्र में कम रासायनिक कीटनाशकों और कम फर्टिलाइजर का प्रयोग करके ज्यादा खाद्य पदार्थ उत्पन्न करे. यदि आप जेनेटिक तकनीक के जरिए ऐसे पौधे विकसित कर सकते हैं जो अधिक सहनशील और अधिक प्रतिरोधी हैं तो ये अच्छी बात है.”

जीएम फूट वास्तव में हैं क्या?
जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज्म्स ऐसे जीव हैं जिनके डीएनए में हुए बदलाव की वजह से उनके गुणों में भी बदलाव आ जाता है. जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें ज्यादा पैदावार दे सकती हैं, कीट, पाला और सूखे के प्रति इन फसलों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो सकती है और पोषक तत्व भी इनमें बढ़ाए जा सकते हैं.

यही नहीं, इन फसलों को इस तरह से भी मॉडिफाई किया जा सकता है कि वो कार्बन उत्सर्जन को कम कर सकें और खाद्य उत्पादन को और ज्यादा टिकाऊ बना सकें. हालांकि जीएम फसलों का उत्पादन बड़े पैमाने पर हो रहा है फिर भी दुनिया में कृषि योग्य भूमि के महज दस फीसद हिस्से पर ही जीएम फसलों का उत्पादन हो रहा है जबकि बाकी जमीन पर गैर-जीएम फसलों का उत्पादन हो रहा है.

रीप्लेनेट जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता के नुकसान के समाधान के लिए वैज्ञानिक तरीकों की वकालत करने वाले गैर सरकारी संगठनों का महासंघ है. यह महासंघ रीबूट फूड नाम से एक अभियान चलाता है जो कि टिकाऊ खाद्य उत्पादन पर केंद्रित है.

महासंघ के प्रवक्ता और फाइटोपैथोलॉजिस्ट डेविड स्पेंसर कहते हैं, “जीएम कुछ और नहीं बल्कि एक ब्रीडिंग तकनीक है. यह महज क्रॉसिंग की तरह है जो हम हजारों साल से करते आ रहे हैं. लेकिन यह कुछ ज्यादा परिष्कृत है. इसलिए हम बहुत कम समय में बहुत सटीक बदलाव कर सकते हैं.”

जीएम जीवों को पहली बार 1994 में अमेरिका में पेश किया गया था जिसके तहत टमाटर के ऐसे पौधे विकसित किए गए थे जिनमें लगने वाले फल देर से पकते थे और इस तरह वो देर तक पौधे पर लगे रहते थे. तबसे लेकर अब तक सोयाबीन, गेहूं, चावल जैसी तमाम फसलों को ज्यादा प्रोटीन उत्पादन के लिए जीएम बैक्टीरिया के साथ खेती करने की मंजूरी दी जा चुकी है.

भारत में भी वैज्ञानिकों ने चावल की सब 1 किस्म विकसित की है जो कि बाढ़ के प्रति काफी ज्यादा प्रतिरोधी है. उत्तर भारत और बांग्लादेश के धान उत्पादक क्षेत्रों में बाढ़ एक बड़ी समस्या है. जलवायु संकट बढ़ने के साथ यह समस्या और भी बढ़ जाएगी. आज, इस इलाके में करीब साठ लाख किसान अपनी फसल को बाढ़ से बचाने के लिए धान की सब 1 किस्म का इस्तेमाल कर रहे हैं.

दूसरी ओर, गोल्डेन राइस भी एक जीएम किस्म है जिसमें विटामिन ए की मात्रा ज्यादा है और इसे एशिया और अफ्रीका के उन हिस्सों के लिए खासतौर से विकसित किया गया है जहां भोजन में विटामिन ए की कमी है.

रोग प्रतिरोधक जीएम फसल
जीन्स को बदलने की तकनीक की वजह से फसलों को झुलसा रोग से बचाने में भी मदद मिली है. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पपीते में लगने वाले रिंगस्पॉट वायरस ने हवाई द्वीप में पपीते की फसल को लगभग खत्म कर दिया था. लेकिन एक स्थानीय वैज्ञानिक ने एक मॉडिफाइड पपीते का पौधा विकसित किया जिसमें कि इस वायरस से लड़ने की क्षमता थी. इस मॉडीफाइड पपीते के बीज किसानों को बांटे गए और करीब एक दशक बाद पपीते का उत्पादन बचा लिया गया.

डेविड स्पेंसर ने अमेरिका में सोयाबीन को फंगस से होने वाले रोगों से बचाने के लिए भी काम किया है. डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, “फिलहाल बड़े पैमाने पर फफुंदनाशक के प्रयोग के अलावा कोई और वास्तविक समाधान नहीं है. हालांकि इसका इस्तेमाल करना कोई नहीं चाहता है, इसलिए हमने डीएनए को बदलने की तकनीक पर काम किया और ऐसे पौधे से फफुंद के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखने वाले जीन को इन पौधों में जोड़ दिया.”

जीएम फसलों को लेकर विवाद
अभी भी, बहुत से लोग जीएम फसलों से उत्पन्न खाद्यान्न से संतुष्ट नहीं है. 2020 में हुए एक ओपिनियन पोल से पता चलता है कि करीब पचास फीसदी लोग जीएम खाद्य को असुरक्षित मानते हैं. यह ओपिनियन पोल करीब 20 देशों के लोगों पर किया गया था.

तीस साल पहले जब जीएम फसलों का विकास पहली बार हुआ था, तब वैज्ञानिकों ने भी अनिश्चितता और सुरक्षा को लेकर चिंताएं जताई थीं लेकिन अब समय बदल गया है.

बायोसेफ्टी साउथ अफ्रीका में बायोसेफ्टी विश्लेषक जेम्स रोड्स कहते हैं कि तीस साल के सुरक्षा आंकड़े और वैज्ञानिक आकलन ये दिखाते हैं कि जीएम खाद्य भी उसी तरह सुरक्षित हैं जैसे कि गैर-जीएम खाद्य.

रोड्स कहते हैं, “हमारे पास तीस साल की सुरक्षा जानकारी है जो ये बताती है कि जीएम खाद्य खाने के लिए पूरी तरह से सुरक्षित हैं और यह भी पता चलता है कि ये पर्यावरण के लिए खतरनाक नहीं हैं.”

रोड्स के मुताबिक, किसी भी देश में ये संभव नहीं है कि वो पूरी तरह से बिना जांचे-परखे जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज्म्स का उपयोग कर ले.

वो कहते हैं, “जब तक इसे खेत में लाया जाता है और इसे व्यावसायिक अनुमोदन मिलता है, तब तक यह विकास के एक लंबे इतिहास से गुजर चुका होता है, खासकर जोखिमों के लिहाज से.”

मोंसेंटो ने जीएम फूड की प्रतिष्ठा को धूमिल कर दिया
कईम का मानना है कि जीएमओ को लेकर हुए विवाद दरअसल कॉर्पोरेट औद्योगिक कृषि की बहस में उलझकर रह गए. मोंसेंटो का भूत अभी भी इंडस्ट्री पर मंडरा रहा है.

कईम कहते हैं, “मोंसेंटो जैसी कंपनियों के बड़े कॉर्पोरेट हितों को लेकर चिंताएं हैं जो कि काफी ज्यादा पेस्टीसाइड और मोनोकल्चर के साथ कृषि के गलत तरीकों को बढ़ावा देती हैं और किसानों को बहुत महंगे दामों पर फसलों के बीच बेचती हैं.”

इस बात पर कईम भी अपनी चिंता जताते हैं लेकिन कहते हैं कि बड़ी समस्या यह है कि तकनीक को कैसे विनियमित किया जाए ना कि जीन में बदलाव करना.

वो कहते हैं, “कॉर्पोरेट औद्योगिक कृषि का यह मॉडल ठीक नहीं है कि इस पर कुछेक लोगों का प्रभुत्व स्थापित हो जाए. लेकिन इसका जीन टेक्नोलॉजी से कुछ भी लेना-देना नहीं है. जीएमओ पर प्रतिबंध लगा देना कुछ ऐसा ही होगा जैसे इंटरनेट पर यह सोचकर प्रतिबंध लगा देना कि उसके जरिए नशीली दवाइएं और पोर्नोग्राफी बिक रही है.”

जीएम खाद्य उद्योग भी बदल रहा है
जीएम कृषि मोंसेंटो बिग-डॉग कॉर्पोरेट मॉडल से आगे बढ़ रही है. जीएम उत्पाद तेजी से सामाजिक और सरकारी उपक्रमों की ओर केंद्रित हो रहे हैं और इंडस्ट्री ज्यादा स्थानीय स्तर पर सोच रही है ताकि विकासशील देशों के छोटे किसानों तक पहुंचा जा सके और उनकी समस्याओं के समाधान में मदद की जा सके.

इसके लिए विनियमन और लाइसेंसिंग बहुत अहम चीजें हैं. रीप्लेनेट जैसे कई संगठन खुले स्रोत वाले बीजों और जीएम तकनीक की खुली वकालत कर रहे हैं.

कईम कहते हैं, “आप मानवतावादी पब्लिक संगठनों द्वारा विकसित पेटेंट्स के बिना जीएमओ विकसित कर सकते हैं. हमें इन्हें स्मार्ट तरीके से विनियमित करने और बाजार में प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने की जरूरत है. कॉर्पोरेट औद्योगिक कृषि एक गलत मॉडल है.”

आखिरकार, यह एक लाइसेंसिंग परिदृष्य के निर्माण के बारे में है जिससे कि स्थानीय किसान सशक्त हो सकें और टिकाऊ खेती की मांगों को पूरा कर सकें, लेकिन इन सबमें इतनी तेजी दिखानी पड़ेगी जिससे कि बढ़ती आबादी और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का सामना कर सकें.

हालांकि रोड्स के मुताबिक नई जीएम तकनीक की स्वीकार्यता ज्यादा होगी क्योंकि उनकी आवश्यकता अधिक हो जाएगी. ठीक वैसे ही जैसे कि पपीता वायरस के मामले में हुआ.