धर्म

तौहीद और शिर्क : उन्हें इस भूल में नहीं रहना चाहिए कि वे अपने कर्मों की सज़ा और प्रतिफल से बच जाएंगे : पार्ट-21

وَأَمَّا الَّذِينَ فَسَقُوا فَمَأْوَاهُمُ النَّارُ كُلَّمَا أَرَادُوا أَنْ يَخْرُجُوا مِنْهَا أُعِيدُوا فِيهَا وَقِيلَ لَهُمْ ذُوقُوا عَذَابَ النَّارِ الَّذِي كُنْتُمْ بِهِ تُكَذِّبُونَ (20) وَلَنُذِيقَنَّهُمْ مِنَ الْعَذَابِ الْأَدْنَى دُونَ الْعَذَابِ الْأَكْبَرِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ (21)

और वे लोग जिन्होंने अवज्ञा की तो उनका ठिकाना आग है। जब भी वे उसमें से निकलना चाहेंगे तो उसी में लौटा दिए जाएँगे और उनसे कहा जाएगा कि उस आग के दंड का स्वाद चखो जिसे तुम सदैव झुठलाते रहे थे। (32:20) और हम अवश्य ही (प्रलय के) उस बड़े दंड से पहले उन्हें (इसी दुनिया में) छोटे दंड का मज़ा चखाएँगे कि शायद वे (सही मार्ग पर) लौट आएँ। (32:21)

وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنْ ذُكِّرَ بِآَيَاتِ رَبِّهِ ثُمَّ أَعْرَضَ عَنْهَا إِنَّا مِنَ الْمُجْرِمِينَ مُنْتَقِمُونَ (22)

और उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा जिसे उसके पालनहार की आयतों के माध्यम से नसीहत की जाए (लेकिन) वह फिर भी उनसे मुँह मोड़ ले? निश्चय ही हम अपराधियों से बदला लेने वाले हैं। (32:22)

وَلَقَدْ آَتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ فَلَا تَكُنْ فِي مِرْيَةٍ مِنْ لِقَائِهِ وَجَعَلْنَاهُ هُدًى لِبَنِي إِسْرَائِيلَ (23) وَجَعَلْنَا مِنْهُمْ أَئِمَّةً يَهْدُونَ بِأَمْرِنَا لَمَّا صَبَرُوا وَكَانُوا بِآَيَاتِنَا يُوقِنُونَ (24) إِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَفْصِلُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فِيمَا كَانُوا فِيهِ يَخْتَلِفُونَ (25)

और निश्चय ही हमने मूसा को (आसमानी) किताब प्रदान की थी अतः उससे मिलने (और ईश्वरीय आयतें प्राप्त करने) के बारे में आप किसी सन्देह में न रहें। और हमने (उस किताब को) बनी इस्राईल के लिए मार्गदर्शन बनाया था। (32:23) और हमने उनमें से ऐसे इमाम व नेता बनाए जो हमारे आदेश से मार्गदर्शन करते थे जब वे लोग संयम से काम लेते थे और हमारी आयतों पर विश्वास रखते थे। (32:24) निश्चय ही प्रलय के दिन आपका पालनहार उनके बीच उन बातों का फ़ैसला करेगा, जिनमें वे मतभेद करते रहे हैं। (32:25)

أَوَلَمْ يَهْدِ لَهُمْ كَمْ أَهْلَكْنَا مِنْ قَبْلِهِمْ مِنَ الْقُرُونِ يَمْشُونَ فِي مَسَاكِنِهِمْ إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآَيَاتٍ أَفَلَا يَسْمَعُونَ (26)

क्या उनके लिए यह बात स्पष्ट नहीं हुई कि हम उनसे पहले भी कितनी ही (जातियों और) नस्लों को तबाह कर चुके हैं जिनके रहने-बसने की जगहों में वे चलते-फिरते हैं? निःसंदेह इसमें अनेक निशानियाँ (व पाठ) हैं तो क्या वे सुनते नहीं? (32:26)

أَوَلَمْ يَرَوْا أَنَّا نَسُوقُ الْمَاءَ إِلَى الْأَرْضِ الْجُرُزِ فَنُخْرِجُ بِهِ زَرْعًا تَأْكُلُ مِنْهُ أَنْعَامُهُمْ وَأَنْفُسُهُمْ أَفَلَا يُبْصِرُونَ (27)

क्या उन्होंने देखा नहीं कि हम सूखी पड़ी भूमि की ओर पानी ले जाते हैं। फिर उसके माध्यम से खेती उगाते हैं जिसमें से वे स्वयं भी खाते हैं और उनके चौपाए भी? तो क्या उन्हें दिखाई नहीं देता? (32:27)

وَيَقُولُونَ مَتَى هَذَا الْفَتْحُ إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ (28) قُلْ يَوْمَ الْفَتْحِ لَا يَنْفَعُ الَّذِينَ كَفَرُوا إِيمَانُهُمْ وَلَا هُمْ يُنْظَرُونَ (29) فَأَعْرِضْ عَنْهُمْ وَانْتَظِرْ إِنَّهُمْ مُنْتَظِرُونَ (30)

और वे कहते हैं कि यदि तुम सच्चे हो तो यह विजय कब होगी? (जिसका तुम वादा करते हो) (32:28) कह दीजिए कि विजय के दिन काफ़िरों का ईमान उनके कोई काम न आएगा और न उन्हें मोहलत दी जाएगी। (32:29) तो उन्हें उनकी स्थिति पर छोड़ दीजिए और प्रतीक्षा कीजिए कि वे भी प्रतीक्षित हैं। (32:30)

بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ. يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ اتَّقِ اللَّهَ وَلَا تُطِعِ الْكَافِرِينَ وَالْمُنَافِقِينَ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمًا (1) وَاتَّبِعْ مَا يُوحَى إِلَيْكَ مِنْ رَبِّكَ إِنَّ اللَّهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا (2) وَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ وَكَفَى بِاللَّهِ وَكِيلًا (3)

अल्लाह के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। हे पैग़म्बर! (केवल) ईश्वर से डरिये और काफ़िरों व मिथ्याचारियों की बात न मानिये कि निश्चय ही ईश्वर सबसे बड़ा ज्ञानी (व) तत्वदर्शी है। (33:1) और (हे पैग़म्बर!) जो चीज़ आपके पालनहार की ओर से आपकी ओर (विशेष संदेश द्वारा) भेजी गई है, उसी का पालन कीजिए कि निश्चय ही ईश्वर हर उस बात से अच्छी तरह अवगत है जो तुम लोग करते हो। (33:2) और (हे पैग़म्बर!) ईश्वर पर भरोसा कीजिए कि वही भरोसे के लिए काफ़ी है। (33:3)

مَا جَعَلَ اللَّهُ لِرَجُلٍ مِنْ قَلْبَيْنِ فِي جَوْفِهِ وَمَا جَعَلَ أَزْوَاجَكُمُ اللَّائِي تُظَاهِرُونَ مِنْهُنَّ أُمَّهَاتِكُمْ وَمَا جَعَلَ أَدْعِيَاءَكُمْ أَبْنَاءَكُمْ ذَلِكُمْ قَوْلُكُمْ بِأَفْوَاهِكُمْ وَاللَّهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَهُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ (4)

ईश्वर ने किसी भी पुरुष के अंदर दो दिल नहीं रखे। और न उसने तुम्हारी उन पत्नियों को, जिनसे तुम ज़िहार करते हो, तुम्हारी माँएं बनाया, और न उसने तुम्हारे मुँह बोले बेटों को तुम्हारे (वास्तविक) बेटे बनाया है। ये तो तुम्हारी बातें हैं जो तुम अपने मुँह से कहते हो और ईश्वर तो सच्ची बात कहता है और वही (सीधा) मार्ग दिखाता है। (33:4)

ادْعُوهُمْ لِآَبَائِهِمْ هُوَ أَقْسَطُ عِنْدَ اللَّهِ فَإِنْ لَمْ تَعْلَمُوا آَبَاءَهُمْ فَإِخْوَانُكُمْ فِي الدِّينِ وَمَوَالِيكُمْ وَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ فِيمَا أَخْطَأْتُمْ بِهِ وَلَكِنْ مَا تَعَمَّدَتْ قُلُوبُكُمْ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَحِيمًا (5)

उन्हें (अर्थात मुंह बोले बेटों को) उनके बापों के नाम से पुकारो कि यह ईश्वर के निकट अधिक न्यायसंगत है। और यदि तुम उनके बापों को नहीं जानते तो वे धर्म में तुम्हारे भाई और तुम्हारे मित्र हैं। इस संबंध में तुमसे (पहले) जो ग़लती हुई हो उसमें तुम पर कोई पाप नहीं किन्तु जिसका संकल्प तुम्हारे दिलों ने कर लिया था और जो कुछ तुमने जान बूझ कर किया था (उसमें तुम पापी हो) और ईश्वर तो अत्यन्त क्षमाशील व दयावान है। (33:5)

النَّبِيُّ أَوْلَى بِالْمُؤْمِنِينَ مِنْ أَنْفُسِهِمْ وَأَزْوَاجُهُ أُمَّهَاتُهُمْ وَأُولُو الْأَرْحَامِ بَعْضُهُمْ أَوْلَى بِبَعْضٍ فِي كِتَابِ اللَّهِ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُهَاجِرِينَ إِلَّا أَنْ تَفْعَلُوا إِلَى أَوْلِيَائِكُمْ مَعْرُوفًا كَانَ ذَلِكَ فِي الْكِتَابِ مَسْطُورًا (6)

ईमान वालों पर पैग़म्बर का अधिकार स्वयं उनके अपने प्राणों से अधिक है और उनकी पत्नियां ईमान वालों की माएँ हैं। और ईश्वर की किताब में ख़ूनी रिश्तेदार, मोमिनों और पलायनकर्ताओं की अपेक्षा (विरासत प्राप्त करने में) एक-दूसरे के अधिक हक़दार हैं सिवाय इसके कि तुम अपने दोस्तों के साथ भलाई करना चाहो। यह आदेश (ईश्वरीय) किताब में लिखा हुआ है। (33:6)

وَإِذْ أَخَذْنَا مِنَ النَّبِيِّينَ مِيثَاقَهُمْ وَمِنْكَ وَمِنْ نُوحٍ وَإِبْرَاهِيمَ وَمُوسَى وَعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ وَأَخَذْنَا مِنْهُمْ مِيثَاقًا غَلِيظًا (7) لِيَسْأَلَ الصَّادِقِينَ عَنْ صِدْقِهِمْ وَأَعَدَّ لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا أَلِيمًا (8)

और (याद कीजिए उस समय को) जब हमने पैग़म्बरों से वचन लिया और आपसे (भी) और नूह, इब्राहीम, मूसा और मरयम के बेटे ईसा से भी। हमने इन सबसे दृढ़ वचन लिया (33:7) ताकि (ईश्वर प्रलय में) सच्चों से उनकी सच्चाई के बारे में पूछे। और काफ़िरों के लिए तो उसने अत्यंत पीड़ादायक दंड तैयार कर रखा है। (33:8)

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا اذْكُرُوا نِعْمَةَ اللَّهِ عَلَيْكُمْ إِذْ جَاءَتْكُمْ جُنُودٌ فَأَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ رِيحًا وَجُنُودًا لَمْ تَرَوْهَا وَكَانَ اللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرًا (9)

हे ईमान वालो! स्वयं पर ईश्वर की उस अनुकंपा को याद करो जब सेनाएँ तुम पर चढ़ आईं तो हमने उन पर एक (कड़ी) हवा और ऐसी सेनाएँ भेज दीं जिन्हें तुमने देखा नहीं। और ईश्वर वह सब कुछ देखने वाला है जो तुम करते (रहते) हो। (33:9)

إِذْ جَاءُوكُمْ مِنْ فَوْقِكُمْ وَمِنْ أَسْفَلَ مِنْكُمْ وَإِذْ زَاغَتِ الْأَبْصَارُ وَبَلَغَتِ الْقُلُوبُ الْحَنَاجِرَ وَتَظُنُّونَ بِاللَّهِ الظُّنُونَا (10) هُنَالِكَ ابْتُلِيَ الْمُؤْمِنُونَ وَزُلْزِلُوا زِلْزَالًا شَدِيدًا (11)

(और याद करो उस समय को) जब शत्रु तुम्हारे (नगर की) ऊपर की ओर से और नीचे की ओर से भी तुम पर चढ़ आए, और जब (भय के चलते तुम्हारी) आंखें पथरा गईं और कलेजे मुंह को आ गए। और तुम ईश्वर के बारे में (बुरी-बुरी) सोचों में ग्रस्त हो गए थे। (33:10) उसी समय ईमान वालों की परीक्षा ली गई और वे बुरी तरह हिला कर रख दिए गए। (33:11)

وَإِذْ يَقُولُ الْمُنَافِقُونَ وَالَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمْ مَرَضٌ مَا وَعَدَنَا اللَّهُ وَرَسُولُهُ إِلَّا غُرُورًا (12)

और जब मिथ्याचारियों और उन लोगों ने, जिनके दिलों में रोग है, कहा कि ईश्वर और उसके पैग़म्बर ने हमसे जो वादा किया था, वह तो केवल धोखा था। (33:12)

وَإِذْ قَالَتْ طَائِفَةٌ مِنْهُمْ يَا أَهْلَ يَثْرِبَ لَا مُقَامَ لَكُمْ فَارْجِعُوا وَيَسْتَأْذِنُ فَرِيقٌ مِنْهُمُ النَّبِيَّ يَقُولُونَ إِنَّ بُيُوتَنَا عَوْرَةٌ وَمَا هِيَ بِعَوْرَةٍ إِنْ يُرِيدُونَ إِلَّا فِرَارًا (13)

और जब उनमें से (मिथ्याचारियों के) एक गुट ने कहा, हे मदीने के लोगों, तुम्हारे लिए ठहरने का कोई (सुरक्षित) स्थान नहीं (रहा) अतः लौट चलो। और उनमें से एक गुट पैग़म्बर से यह कह कर (वापस जाने की) अनुमति मांग रहा था कि हमारे घर खुले हुए (और असुरक्षित) हैं जबकि वे खुले हुए (और असुरक्षित) न थे। वास्तव में वे तो बस (रणक्षेत्र से) भागना चाहते थे। (33:13)

وَلَوْ دُخِلَتْ عَلَيْهِمْ مِنْ أَقْطَارِهَا ثُمَّ سُئِلُوا الْفِتْنَةَ لَآَتَوْهَا وَمَا تَلَبَّثُوا بِهَا إِلَّا يَسِيرًا (14) وَلَقَدْ كَانُوا عَاهَدُوا اللَّهَ مِنْ قَبْلُ لَا يُوَلُّونَ الْأَدْبَارَ وَكَانَ عَهْدُ اللَّهِ مَسْئُولًا (15)

और यदि शत्रु मदीने के आस-पास से घुस आते और इनसे फ़ित्ना फैलाने (और अनेकेश्वरवाद की ओर लौट जाने) के लिए कहा जाता तो वे थोड़े से विलम्ब के बाद ऐसा कर डालते। (33:14) जबकि वे इससे पहले ईश्वर को वचन दे चुके थे कि वे पीठ न दिखाएंगे और ईश्वर से की गई प्रतिज्ञा के विषय में तो अवश्य ही पूछा जाना है। (33:15)

قُلْ لَنْ يَنْفَعَكُمُ الْفِرَارُ إِنْ فَرَرْتُمْ مِنَ الْمَوْتِ أَوِ الْقَتْلِ وَإِذًا لَا تُمَتَّعُونَ إِلَّا قَلِيلًا (16) قُلْ مَنْ ذَا الَّذِي يَعْصِمُكُمْ مِنَ اللَّهِ إِنْ أَرَادَ بِكُمْ سُوءًا أَوْ أَرَادَ بِكُمْ رَحْمَةً وَلَا يَجِدُونَ لَهُمْ مِنْ دُونِ اللَّهِ وَلِيًّا وَلَا نَصِيرًا (17)

(हे पैग़म्बर!) कह दीजिए कि यदि तुम मृत्यु और मारे जाने से भागो भी तो यह भागना तुम्हारे लिए कभी भी लाभदायक न होगा। और (अगर लाभदायक हुआ तो) उस हालत में भी तुम कम ही सुख प्राप्त कर पाओगे। (33:16) कह दीजिए कि यदि ईश्वर तुम्हारी कोई बुराई चाहे या वह तुम्हारे प्रति दया का इरादा करे तो कौन है जो तुम्हें ईश्वर से बचा सकता है (या जो उसकी दया को रोक सकता है)? तथ्य यह है कि वे ईश्वर के अतिरिक्त किसी को न अपना समर्थक पाएँगे और न सहायक। (33:17)

قَدْ يَعْلَمُ اللَّهُ الْمُعَوِّقِينَ مِنْكُمْ وَالْقَائِلِينَ لِإِخْوَانِهِمْ هَلُمَّ إِلَيْنَا وَلَا يَأْتُونَ الْبَأْسَ إِلَّا قَلِيلًا (18) أَشِحَّةً عَلَيْكُمْ فَإِذَا جَاءَ الْخَوْفُ رَأَيْتَهُمْ يَنْظُرُونَ إِلَيْكَ تَدُورُ أَعْيُنُهُمْ كَالَّذِي يُغْشَى عَلَيْهِ مِنَ الْمَوْتِ فَإِذَا ذَهَبَ الْخَوْفُ سَلَقُوكُمْ بِأَلْسِنَةٍ حِدَادٍ أَشِحَّةً عَلَى الْخَيْرِ أُولَئِكَ لَمْ يُؤْمِنُوا فَأَحْبَطَ اللَّهُ أَعْمَالَهُمْ وَكَانَ ذَلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرًا (19)

ईश्वर तुममें से उन लोगों को भली भाँति जानता है जो दूसरों को (जेहाद से) रोकते हैं और अपने भाइयों से कहते हैं कि हमारे पास आ जाओ (और युद्ध के लिए न जाओ)। और वे युद्ध में भाग लेते भी हैं तो केवल नाम भर। (33:18) जो तुम्हारा साथ देने में बहुत कंजूस हैं। तो जब ख़तरे का समय आ जाए तो आप उन्हें देखते हैं कि वे इस प्रकार आंखें घुमा घुमा कर आपकी ओर देखते हैं जैसे किसी मरने वाले व्यक्ति पर बेहोशी छा रही हो, फिर जब ख़तरा समाप्त हो जाता है तो यही लोग लाभों के लोभी बन कर क़ैंची की तरह चलती हुए ज़बानें लेकर तुम्हारे स्वागत को आ जाते हैं। ऐसे लोग ईमान लाए ही नहीं हैं। इसी लिए ईश्वर ने उनके कर्म तबाह करके मिटा दिए हैं। और ऐसा करना ईश्वर के लिए बहुत सरल है। (33:19)

يَحْسَبُونَ الْأَحْزَابَ لَمْ يَذْهَبُوا وَإِنْ يَأْتِ الْأَحْزَابُ يَوَدُّوا لَوْ أَنَّهُمْ بَادُونَ فِي الْأَعْرَابِ يَسْأَلُونَ عَنْ أَنْبَائِكُمْ وَلَوْ كَانُوا فِيكُمْ مَا قَاتَلُوا إِلَّا قَلِيلًا (20)

ये समझ रहे हैं कि (शत्रु के गुट व सैन्य) दल अभी (मदीने के आस-पास से) गए नहीं हैं और यदि वे दल फिर (हमला करने) आ जाएँ तो ये चाहेंगे कि काश किसी प्रकार बाहर (मरुस्थल में) बद्दुओं के बीच जा बैठें और वहीं से तुम्हारी परिस्थितियों के समाचार पूछते रहें। और यदि ये तुम्हारे बीच रहे भी तो लड़ाई में कम ही भाग लेंगे। (33:20)

لَقَدْ كَانَ لَكُمْ فِي رَسُولِ اللَّهِ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ لِمَنْ كَانَ يَرْجُو اللَّهَ وَالْيَوْمَ الْآَخِرَ وَذَكَرَ اللَّهَ كَثِيرًا (21)

निश्चित रूप से तुम्हारे लिए ईश्वर के पैग़म्बरे (के चरित्र) में एक उत्तम आदर्श है उस व्यक्ति के लिए जो ईश्वर और (प्रलय के) अंतिम दिन की आशा रखता हो और ईश्वर को बहुत अधिक याद करता हो। (33:21)

وَلَمَّا رَأَى الْمُؤْمِنُونَ الْأَحْزَابَ قَالُوا هَذَا مَا وَعَدَنَا اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَصَدَقَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَمَا زَادَهُمْ إِلَّا إِيمَانًا وَتَسْلِيمًا (22)

और जब ईमान वालों ने (शत्रु के सैन्य) दलों को देखा तो कहाः यह तो वही चीज़ है, जिसका ईश्वर और उसके पैग़म्बर ने हमसे वादा किया था। और ईश्वर और उसके पैग़म्बर ने सच कहा था। और इस चीज़ ने उनके ईमान और आज्ञापालन ही को बढ़ाया। (33:22)

مِنَ الْمُؤْمِنِينَ رِجَالٌ صَدَقُوا مَا عَاهَدُوا اللَّهَ عَلَيْهِ فَمِنْهُمْ مَنْ قَضَى نَحْبَهُ وَمِنْهُمْ مَنْ يَنْتَظِرُ وَمَا بَدَّلُوا تَبْدِيلًا (23)

ईमान वालों में ऐसे (बहुत से) पुरुष मौजूद हैं जिन्होंने वह बात सच कर दिखाई जिसका उन्होंने ईश्वर से प्रण किया था तो उनमें से कुछ तो (शहीद हो कर) अपना प्रण पूरा कर चुके और उनमें से कुछ (अपनी बारी की) प्रतीक्षा में हैं और उन्होंने अपने प्रण में तनिक भी परिवर्तन नहीं किया है। (33:23)

لِيَجْزِيَ اللَّهُ الصَّادِقِينَ بِصِدْقِهِمْ وَيُعَذِّبَ الْمُنَافِقِينَ إِنْ شَاءَ أَوْ يَتُوبَ عَلَيْهِمْ إِنَّ اللَّهَ كَانَ غَفُورًا رَحِيمًا (24) وَرَدَّ اللَّهُ الَّذِينَ كَفَرُوا بِغَيْظِهِمْ لَمْ يَنَالُوا خَيْرًا وَكَفَى اللَّهُ الْمُؤْمِنِينَ الْقِتَالَ وَكَانَ اللَّهُ قَوِيًّا عَزِيزًا (25)

(यह सब इस लिए हुआ) ताकि ईश्वर सच्चों को उनकी सच्चाई का प्रतिफल दे और मिथ्याचारियों को चाहे तो दंड दे या चाहे तो उनकी तौबा स्वीकार कर ले। निश्चय ही ईश्वर अत्यंत क्षमाशील (व) दयावान है। (33:24) और ईश्वर ने काफ़िरों को कोई लाभ हासिल किए बिना उनके क्रोध के साथ यूंही लौटा दिया। और ईश्वर (अहज़ाब के) युद्ध में ईमान वालों के लिए काफ़ी हो गया (और उसने उन्हें लड़ाई से आवश्यकतामुक्त करके विजयी बना दिया)। और ईश्वर अत्यंत शक्तिवान व अजेय है। (33:25)

وَأَنْزَلَ الَّذِينَ ظَاهَرُوهُمْ مِنْ أَهْلِ الْكِتَابِ مِنْ صَيَاصِيهِمْ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ الرُّعْبَ فَرِيقًا تَقْتُلُونَ وَتَأْسِرُونَ فَرِيقًا (26) وَأَوْرَثَكُمْ أَرْضَهُمْ وَدِيَارَهُمْ وَأَمْوَالَهُمْ وَأَرْضًا لَمْ تَطَئُوهَا وَكَانَ اللَّهُ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرًا (27)

और ईश्वर, किताब वालों (अर्थात यहूदियों) में से जिन लोगों ने उन (अनेकेश्वरवादियों) की सहायता की थी, उन्हें उनके मज़बूत दुर्गों से उतार लाया और उनके दिलों में भय व आतंक बिठा दिया कि तुम (उनमें से) एक गुट की हत्या करते और एक गुट को बन्दी बनाते थे। (33:26) और उसने तुम्हें उनकी ज़मीन, उनके घरों और उनके मालों का वारिस बना दिया और उस ज़मीन का भी जिस पर तुमने क़दम भी नहीं रखा था। और ईश्वर हर चीज़ में सक्षम है। (33:27)

يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ قُلْ لِأَزْوَاجِكَ إِنْ كُنْتُنَّ تُرِدْنَ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا وَزِينَتَهَا فَتَعَالَيْنَ أُمَتِّعْكُنَّ وَأُسَرِّحْكُنَّ سَرَاحًا جَمِيلًا (28) وَإِنْ كُنْتُنَّ تُرِدْنَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَالدَّارَ الْآَخِرَةَ فَإِنَّ اللَّهَ أَعَدَّ لِلْمُحْسِنَاتِ مِنْكُنَّ أَجْرًا عَظِيمًا

(29)

हे पैग़म्बर! अपनी पत्नियों से कह दीजिए कि यदि तुम सांसारिक जीवन और उसकी शोभा चाहती हो तो आओ, मैं तुम्हें (मेहर देकर) लाभान्वित करूं और (भली व) सुंदर रीति से विदा कर दूँ। (33:28) और यदि तुम ईश्वर, उसके पैग़म्बर और प्रलय के घर को चाहती हो तो निश्चय ही ईश्वर ने तुममें से सद्कर्मियों के लिए महान प्रतिफल तैयार कर रखा है। (33:29)

يَا نِسَاءَ النَّبِيِّ مَنْ يَأْتِ مِنْكُنَّ بِفَاحِشَةٍ مُبَيِّنَةٍ يُضَاعَفْ لَهَا الْعَذَابُ ضِعْفَيْنِ وَكَانَ ذَلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرًا (30) وَمَنْ يَقْنُتْ مِنْكُنَّ لِلَّهِ وَرَسُولِهِ وَتَعْمَلْ صَالِحًا نُؤْتِهَا أَجْرَهَا مَرَّتَيْنِ وَأَعْتَدْنَا لَهَا رِزْقًا كَرِيمًا (31)

हे नबी की पत्नियो! तुममें से जो भी खुला अनुचित कर्म करे तो उसके लिए दंड दोहरा होगा और यह ईश्वर के लिए बहुत सरल है। (33:30) और तुममें से जो कोई ईश्वर और उसके पैग़म्बर के समक्ष विनम्र रहे और सद्कर्म करे, तो उसे हम दोहरा प्रतिफल प्रदान करेंगे और उसके लिए हमने (स्वर्ग में) सम्मानित आजीविका तैयार कर रखी है। (33:31)

يَا نِسَاءَ النَّبِيِّ لَسْتُنَّ كَأَحَدٍ مِنَ النِّسَاءِ إِنِ اتَّقَيْتُنَّ فَلَا تَخْضَعْنَ بِالْقَوْلِ فَيَطْمَعَ الَّذِي فِي قَلْبِهِ مَرَضٌ وَقُلْنَ قَوْلًا مَعْرُوفًا (32)

हे पैग़म्बर की पत्नियो! अगर तुम ईश्वर से डरो तो तुम सामान्य महिलाओं में से किसी की तरह नहीं हो। तो इठला कर बात न करो कि कहीं वह व्यक्ति जिसके दिल में रोग है, लालच में पड़ जाए और तुम ठोस ढंग से बात किया करो। (33:32)

وَقَرْنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجْنَ تَبَرُّجَ الْجَاهِلِيَّةِ الْأُولَى وَأَقِمْنَ الصَّلَاةَ وَآَتِينَ الزَّكَاةَ وَأَطِعْنَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ لِيُذْهِبَ عَنْكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا (33) وَاذْكُرْنَ مَا يُتْلَى فِي بُيُوتِكُنَّ مِنْ آَيَاتِ اللَّهِ وَالْحِكْمَةِ إِنَّ اللَّهَ كَانَ لَطِيفًا خَبِيرًا (34)

(हे पैग़म्बर की पत्नियो!) अपने घरों में टिक कर रहो और अज्ञानता के आरंभिक काल जैसी सज-धज न दिखाओ। नमाज़ स्थापित करो, ज़कात दो और ईश्वर व उसके उसके पैग़म्बर का आज्ञापालन करो। है पैग़म्बर के परिजनो! ईश्वर तो बस यही चाहता है कि तुमसे हर अपवित्रता को दूर रखे और तुम्हें उस तरह पवित्र रखे जैसा पवित्र रखने का हक़ है। (33:33) (हे पैग़म्बर की पत्नियो!) तुम्हारे घरों में ईश्वर की जो आयतें और तत्वदर्शिता की बातें सुनाई जाती हैं उनकी चर्चा करती रहो। निश्चय ही ईश्वर अत्यन्त सूक्ष्मदर्शी (व) जानकार है। (33:34)