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IPC, CRPC, EVIDANCE act में क्या बदलाव हुए हैं, हिट एंड रन पर नए क़ानून से ड्राइवरों में क्यों है घबराहट, भारतीय न्याय संहिता बिल को समझें : रिपोर्ट

 

 

भारतीय न्याय (द्वितीय) संहिता 2023 : दिशानिर्देश और प्रावधान

संसद ने 2023 में भारतीय दण्ड संहिता की संशोधन बिल को मंजूरी दी है, जिससे यह 1860 की जगह लेगा। इस कानून में 21 नए अपराधों को शामिल किया गया और 41 अपराधों के लिए सजा की अवधि को बढ़ा दिया हैं। बता दें कि यह देश में फौजदारी अपराधों के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कानून है।

 

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि केंद्र सरकार ने, न केवल इन पुरानों कानूनों का नाम बदला है बल्कि यह नये विधेयक सजा देने के बजाय न्याय दिलाने के उद्देश्‍य से लाये गये हैं। गृहमंत्री ने कहा कि पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पहली बार ये नये कानून भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप बनाये जा रहे हैं। उन्‍होंने कहा कि इन नए कानूनों की आत्मा भारतीय है और पहली बार भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली भारत द्वारा, भारत के लिए और भारतीय संविधान में बनाए गए कानूनों से संचालित होगी।

आइये जानते हैं क्या है भारतीय न्याय द्वितीय संहिता 2023

आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रौद्योगिकी का प्रयोग

देश में पहली बार आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जा रहा है। इस पहल से आम आदमी को कोर्ट के चक्कर काटने से मुक्ति मिलेगी और FIR से लेकर फैसले तक की सभी प्रक्रिया ऑनलाइन होगी। इसके अलावा तारीख पर तारीख देने की बजाय तीन वर्ष के अन्‍दर त्वरित न्‍याय देना सुनिश्चित होगा।

राजद्रोह कानून निरस्त

भारतीय न्याय संहिता में राजद्रोह की धारा को पूरी तरह से हटा दिया गया है और इसकी जगह देशद्रोह को रखा है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा इस देश के खिलाफ कोई नहीं बोल सकता और इसके हितों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता। श्री शाह ने कहा कि भारत के ध्वज, सीमाओं औऱ संसाधनों के साथ अगर कोई खिलवाड़ करेगा तो उसे निश्चित रूप से जेल जाना होगा क्योंकि देश की सुरक्षा सबसे ऊपर है। उन्होंने कहा कि हमने देशद्रोह की परिभाषा में उद्देश्य और आशय की बात की है और अगर उद्देश्य देशद्रोह का है, तो आरोपी को कठोर से कठोर दंड मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि हज़ारों स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ों को देश से निकालने के लिए राजद्रोह के आरोप में अपने जीवन का स्वर्णकाल जेल में काटा, आज इस पहल से उनकी आत्मा को ज़रूर संतुष्टि मिलेगी कि आज़ाद भारत में आज इस अन्यायिक प्रोविज़न को समाप्त कर दिया गया है।

महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान

भारतीय न्याय संहिता में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर विशेष प्रावधान किया गया है। बता दें कि भारतीय न्याय संहिता में 18 वर्ष से कम उम्र की महिला के बलात्कार के अपराध में आजीवन कारावास औऱ मृत्यु दंड का प्रावधान किया गया है वहीँ गैंगरेप के मामलों में 20 साल या ज़िंदा रहने तक की सज़ा का प्रावधान है। भारतीय न्याय संहिता में मानव और शरीर संबंधित अपराधों जैसे, बलात्कार, गैंगरेप, बच्चों के खिलाफ अपराध, हत्या, अपहरण और ट्रैफिकिंग आदि को प्राथमिकता दी गई है।

3 दिन के भीतर FIR दर्ज करना अनिवार्य

पुलिस को शिकायत के 3 दिनों में ही FIR दर्ज करना और बिना देरी किए बलात्कार पीड़िता की मेडिकल जांच रिपोर्ट 7 दिनों के अंदर पुलिस थाने और न्यायालय में सीधे भेजना अनिवार्य होगा। बता दें कि भारतीय न्याय संहिता में 90 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करने की समयसीमा तय गई है। इसके साथ ही मजिस्ट्रेट को 14 दिनों में मामले का संज्ञान लेना होगा।

किसी भी पुलिस स्टेशन में ज़ीरो FIR संभव

 

अब पीड़ित किसी भी पुलिस स्टेशन में जाकर ज़ीरो FIR करा सकता है और FIR को 24 घंटे में संबंधित पुलिस स्टेशन को ट्रांसफर कराना होगा। इसके साथ ही हर जिले और थाने में पुलिस अधिकारी को पदनामित किया है जो गिरफ्तार लोगों की सूची बनाकर उनके संबंधियों को इन्फॉर्म करेगा।

ट्रायल इन एब्सेंशिया के तहत अपराधियों को सज़ा मुमकिन

 

ट्रायल इन एब्सेंशिया के तहत अब अपराधियों को सज़ा भी होगी और उनकी संपत्ति भी कुर्क होगी। एक तिहाई कारावास काट चुके अंडर ट्रायल कैदी के लिए जमानत का प्रावधान किया गया है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा कि सजा माफी को भी तर्कसंगत बनाने पर काम किया गया है। अगर मृत्यु की सजा है तो ज्यादा से ज्यादा आजीवन कारावास हो सकता है, इससे कम नहीं हो सकेगी। आजीवन कारावास है तो 7 साल की अवधि सज़ा भोगनी ही पड़ेगी और 7 वर्ष या उससे अधिक सजा है तो कम से कम 3 साल जेल में रहना पड़ेगा।

BNS 2023: इंडियन पीनल कोड (IPC) भारत में किसी भी प्रकार के अपराध के लिए इसी आईपीसी का इस्तेमाल होता है. जम्मू कश्मीर में पहले भारतीय दंड संहिता लागू नहीं थी लेकिन जब धारा 370 हटाई गई तब से वहां भी भारतीय दंड संहिता लागू होती है. हाल ही में भारत में एक नया सिस्टम लागू किया गया है जिसे भारतीय न्याय संहिता 2023 का नाम दिया गया है. यह नई भारतीय न्याय संहिता 2023 आईपीसी और सीआरपी से किस तरह अलग है आईए जानते हैं.

क्या है भारतीय न्याय संहिता 2023?

11 अगस्त 2023 को भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में भारतीय न्याय सभ्यता विधायक 2023 पेश किया था. इसके बाद संसदीय समिति ने इसकी समीक्षा की आपको बता दें भारतीय न्याय संहिता 2023 इस समय चर्चा का विषय बनी हुई है. भारतीय न्याय संहिता 2023 पहले से चली आ रही भारतीय दंड संहिता में बदलाव लाती है.

भारतीय न्याय संहिता 2023 में पुरुष और महिलाओं या ट्रांसपर्सन के बीच जबरदस्ती बनाए गए यौन संबंधों के अपराधों के लिए अलग से कानून बनाने के लिए हैं. जिसे पीड़ितों को जल्द न्याय मिल सके. भारतीय न्याय संहिता 2023 में धारा 124A जो देशद्रोह के लिए थी उसे हटाने की बात कही गई है. रेप के मामलों में इस संहिता के तहत कोर्ट तक ऐसे केस कम पहुंचेंगे पहलए ही उनका निवारण किया जा सकता है.

IPC और CRPC से कैसे है अलग?

IPC यानी इंडियन पीनल कोड काफी पुराना सिस्टम है. जिसके तहत अपराधी उसी पुरानी प्रक्रिया के तहत कोर्ट तक ले जाया जाता है. जो कि काफी सालों से चली आ रही है लेकिन भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS 2023) अपराध खासतौर पर व्यभिचार (रेप) और शारीरिक शोषण जैसे अपराधों के लिए अलग से कानून निर्धारित करेगी. वहीं CRPC की बात करें तो आपराधिक मामले पहले IPC के तहत दायर होते हैं जब वो कोर्ट में पहुँचते हैं तब वो CRPC (Code of Criminal Procedure) के तहत आगे बढ़ाए जाते हैं। बता दें साल 1973 में ये विधेयक पारित हुआ था वहीं 1974 में इसे लागू किया गया था.

भारतीय न्याय संहिता, 2023

मंत्रालय : गृह मामले

बिल की मुख्‍य विशेषताएं

भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) आईपीसी के अधिकांश अपराधों को बरकरार रखती है। इसमें सामुदायिक सेवा को सज़ा के रूप में जोड़ा गया है।

राजद्रोह अब अपराध नहीं है। इसके बजाय भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों को नया अपराध बताया गया है।

बीएनएस आतंकवाद को एक अपराध के रूप में जोड़ता है। इसे एक ऐसे कृत्य के रूप में परिभाषित किया गया है जिसका उद्देश्य देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा को खतरे में डालना, आम जनता को डराना या सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ना है।

संगठित अपराध को अपराध के रूप में जोड़ा गया है। इसमें अपराध सिंडिकेट की ओर से किए गए अपहरण, जबरन वसूली और साइबर अपराध जैसे अपराध शामिल हैं। छोटे-मोटे संगठित अपराध भी अब अपराध हैं।

जाति, भाषा या व्यक्तिगत विश्वास जैसे कुछ पहचान चिह्नों के आधार पर पांच या अधिक व्यक्तियों के समूह द्वारा हत्या सात साल से लेकर आजीवन कारावास या मौत तक की सज़ा के साथ एक अपराध होगा।

प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

 

आईपीसी अनसाउंड माइंड (विकृत मस्तिष्क) वाले व्यक्ति को प्रॉसीक्यूशन से सुरक्षा देता है। बीएनएस इसे मेंटल इलनेस (मानसिक बीमारी) वाले व्यक्ति में बदलता है। मेंटल इलनेस की परिभाषा में मानसिक मंदता शामिल नहीं है और इसमें शराब और नशीली दवाओं की लत शामिल है। जबकि मानसिक मंदता से पीड़ित व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है, जो लोग स्वेच्छा से नशे में हैं, उन्हें दोषमुक्त किया जा सकता है।

आतंकवाद की परिभाषा में ऐसा कार्य शामिल है जिसका उद्देश्य सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करना है। इससे स्थानीय स्तर पर शांति भंग करने को भी आतंकवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है।

आपराधिक जिम्मेदारी की आयु सात वर्ष बरकरार रखी गई है। आरोपी की परिपक्वता के आधार पर इसे 12 साल तक बढ़ाया जा सकता है। इससे अंतरराष्ट्रीय समझौतों की सिफ़ारिशों का उल्लंघन हो सकता है।

कई अपराध विशेष कानूनों के साथ ओवरलैप होते हैं। कई मामलों में अलग-अलग दंड का प्रावधान है या वे अलग-अलग प्रक्रियाएं पेश करते हैं। इससे रेगुलेशन की कई व्यवस्थाएं, अनुपालन की अतिरिक्त लागत और कई आरोप लगाए जाने की आशंका हो सकती है।

पहचान के कुछ आधारों पर पांच या अधिक लोगों के समूह द्वारा हत्या करने पर हत्या की तुलना में कम सज़ा का प्रावधान है।

बीएनएस में आईपीसी का सेक्शन 377 मौजूद नहीं, जिसके कुछ हिस्सों को सर्वोच्च न्यायालय ने हटा दिया था। बीएनएस से इस सेक्शन को हटाने से पुरुषों के साथ बलात्कार और पशुओं के साथ यौन संबंध अपराध की श्रेणी से हट जाएंगे।

भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 भारत में फौजदारी अपराधों पर प्रमुख कानून है। इसके तहत आने वाले अपराधों में निम्नलिखित को प्रभावित करने वाले अपराध शामिल हैं: (i) मानव शरीर जैसे हमला और हत्या, (ii) संपत्ति जैसे जबरन वसूली और चोरी, (iii) सार्वजनिक व्यवस्था जैसे गैरकानूनी सभा और दंगा, (iv) सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, शालीनता, नैतिकता और धर्म, (iv) मानहानि, और (v) राज्य के विरुद्ध अपराध। पिछले कुछ वर्षों में नए अपराधों को जोड़ने, मौजूदा अपराधों में संशोधन करने और सज़ा की मात्रा में बदलाव करने के लिए आईपीसी में संशोधन किए गए हैं।[1] न्यायालयों ने कुछ अपराधों जैसे समलैंगिक वयस्कों के बीच सहमति से इंटरकोर्स, व्यभिचार और आत्महत्या के प्रयास को भी अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है।[2],[3],[4] कई राज्यों ने भी यौन अपराधों, वेश्यावृत्ति के लिए नाबालिगों को बेचने, भोजन और दवाओं में मिलावट और धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी के लिए अलग-अलग दंड देने हेतु आईपीसी में संशोधन किया है।[5],[6],[7],[8] कई विधि आयोगों की रिपोर्ट्स में महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों, खाद्य पदार्थों में मिलावट, मृत्युदंड सहित विषयों पर आईपीसी में संशोधन का सुझाव दिया है।[9], [10]

भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) आईपीसी का स्थान लेती है। यह बड़े पैमाने पर आईपीसी के प्रावधानों को बरकरार रखती है, कुछ नए अपराध जोड़ती है, अदालतों द्वारा रद्द किए गए अपराधों को हटाती है, और कई अपराधों के लिए दंड बढ़ाती है। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी ने इस बिल की समीक्षा की थी।[11]

मुख्य विशेषताएं

बीएनएस के मुख्य बदलावों में निम्नलिखित शामिल हैं:

शरीर के खिलाफ अपराध: आईपीसी हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाना, हमला करना और गंभीर चोट पहुंचाना जैसे कृत्यों को अपराध मानता है। बीएनएस ने इन प्रावधानों को बरकरार रखा है। इसमें संगठित अपराध, आतंकवाद और कुछ आधारों पर किसी समूह द्वारा हत्या या गंभीर चोट जैसे नए अपराध जोड़े गए हैं।

महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध: आईपीसी बलात्कार, ताक-झांक, पीछा करना और किसी महिला के शील को भंग करने जैसे कृत्यों को अपराध मानता है। बीएनएस ने इन प्रावधानों को बरकरार रखा है। यह सामूहिक बलात्कार के मामले में पीड़िता को वयस्क के रूप में वर्गीकृत करने की सीमा को 16 से बढ़ाकर 18 वर्ष करता है। यह किसी महिला के साथ धोखे से या झूठे वादे करके यौन संबंध बनाने को भी अपराध मानता है।

राजद्रोह: बीएनएस राजद्रोह के अपराध को हटाता है। इसके बजाय यह निम्न को दंडित करता है: (i) फूट, सशस्त्र विद्रोह, या विध्वंसक गतिविधियों को उत्तेजित करना या उत्तेजित करने का प्रयास करना, (ii) अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करना या (iii) भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालना। इन अपराधों में शब्दों या संकेतों का आदान-प्रदान, इलेक्ट्रॉनिक संचार या वित्तीय साधनों का उपयोग शामिल हो सकता है।

आतंकवाद: बीएनएस आतंकवाद को एक ऐसे कृत्य के रूप में परिभाषित करता है जिसका निम्नलिखित इरादा है: (i) देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा को खतरे में डालना, (ii) आम जनता को डराना या (iii) सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ना। आतंकवाद करने या आतंकवाद का प्रयास करने की सज़ा में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) मौत या आजीवन कारावास और 10 लाख रुपए का जुर्माना, अगर इसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, या (ii) पांच साल से लेकर आजीवन कारावास और कम से कम पांच लाख रुपए का जुर्माना।

संगठित अपराध: संगठित अपराध में अपहरण, जबरन वसूली, कॉन्ट्रैक्ट पर हत्या, जमीन पर कब्जा, वित्तीय घोटाले और अपराध सिंडिकेट की ओर से किए गए साइबर अपराध जैसे अपराध शामिल हैं। संगठित अपराध करने या उसका प्रयास करने पर निम्नलिखित दंड दिया जाएगा: (i) अगर इसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो मौत या आजीवन कारावास और 10 लाख रुपए का जुर्माना या (ii) पांच साल से लेकर आजीवन कारावास और कम से कम पांच लाख रुपए का जुर्माना।

मॉब लिंचिंग: बीएनएस निर्दिष्ट आधारों पर पांच या अधिक लोगों द्वारा की गई हत्या या गंभीर चोट को अपराध के रूप में जोड़ता है। इन आधारों में नस्ल, जाति, लिंग, भाषा या व्यक्तिगत विश्वास शामिल हैं। ऐसी हत्या के लिए सज़ा कम से कम सात साल की कैद से लेकर आजीवन कारावास या मौत तक है।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला: बीएनएस सर्वोच्च न्यायालय के कुछ फैसलों के अनुरूप है। इनमें व्यभिचार को अपराध के तौर नहीं शामिल किया गया है और आजीवन कारावास की सज़ा पाए व्यक्ति द्वारा हत्या या हत्या के प्रयास के लिए दंड के रूप में आजीवन कारावास (मृत्युदंड के अतिरिक्त) को शामिल किया गया है।

भाग ख : मुख्य मुद्दे और विश्लेषण

कुछ परिभाषाएं एप्लिकेबिलिटी से संबंधित चिंताएं पैदा कर सकती हैं

मानसिक बीमारी का आधार आपराधिक जिम्मेदारी के सामान्य अपवादों को मान्यता नहीं देता है

आईपीसी में कहा गया है कि विकृत दिमाग वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कोई भी कार्य अपराध नहीं है। बीएनएस ने इस प्रावधान को बरकरार रखा है, सिवाय इसके कि यह ‘विकृत मस्तिष्क’ शब्द को ‘मानसिक बीमारी’ से बदलता है। इसमें कहा गया है कि मानसिक बीमारी मानसिक स्वास्थ्य सेवा एक्ट, 2017 (एमएचए, 2017) में परिभाषित है। एमएचए, 2017 में मानसिक बीमारी को इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि यह सोच, ओरिएंटेशन या याददाश्त का एक विकार है जोकि वास्तविकता को पहचानने की क्षमता को गंभीर रूप से कमजोर कर देता है। परिभाषा स्पष्ट रूप से मानसिक बीमारी से मानसिक मंदता या दिमाग के अपूर्ण विकास को बाहर करती है। किसी को आपराधिक जिम्मेदारी से छूट देने के लिए मानसिक बीमारी की इस परिभाषा का उपयोग करने से मानसिक मंदता से पीड़ित व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1972 में 2008 में संशोधन किया गया था ताकि यह पता लगाया जा सके कि व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है या मानसिक मंदता से पीड़ित है (दोनों को व्यक्ति को बरी करने के कारणों के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है)।[12]

एमएचए, 2017 के तहत मानसिक बीमारी की परिभाषा में मानसिक बीमारी के रूप में शराब और नशीली दवाओं की लत भी शामिल हैं। इसलिए अगर कोई शराबी नशे की हालत में कोई अपराध करता है, तो वह मानसिक बीमारी से बचाव का दावा करने में सक्षम हो सकता है। यह बचाव तब भी लागू हो सकता है जब उसने स्वेच्छा से शराब या नशीली दवाओं का सेवन किया हो। यह आईपीसी के तहत नशा करने पर सामान्य बचाव का खंडन करता है, जो केवल अनैच्छिक नशे के तहत किए गए कृत्यों को आपराधिक जिम्मेदारी से छूट देता है।[13] गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने अनसाउंड माइंड़ शब्द को वापस लाने का सुझाव दिया था।11

आतंकवाद को बहुत व्यापक रूप से परिभाषित किया जा सकता है

बीएनएस आतंकवाद को अपराध के रूप में जोड़ता है। यह आतंकवाद को एक ऐसे कृत्य के रूप में परिभाषित करता है जिसका निम्न इरादा है: (i) देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा को खतरे में डालना, (ii) आम जनता को डराना, या (iii) सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ना। आतंकवादी कृत्यों में निम्न शामिल हैं: (i) मौत, जीवन को ख़तरा या भय फैलाने के लिए हथियारों, बमों या खतरनाक पदार्थों का उपयोग करना, या (ii) संपत्ति को नष्ट करना या आवश्यक सेवाओं को बाधित करना। सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने के इरादे को आतंकवादी कृत्य के रूप में शामिल करके, अपराधों की एक विस्तृत श्रृंखला को आतंकवादी कृत्यों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इनमें सशस्त्र विद्रोह और राज्य के विरुद्ध युद्ध से लेकर दंगे और भीड़-हिंसा तक शामिल हो सकते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय (1960) ने सार्वजनिक व्यवस्था को स्थानीय स्तर पर शांति भंग होने के कारण होने वाली अव्यवस्था की गैरमौजूदगी माना था।[14] उसने ऐसी अव्यवस्था को क्रांति, संघर्ष और युद्ध जैसी राष्ट्रीय उथल-पुथल से अलग माना था, जिससे राज्य की सुरक्षा प्रभावित होने का खतरा होता है। बीएनएस में आतंकवादी कृत्यों में आम जनता को डराना भी शामिल है। गृह मामलों से संबंधित कमिटी (2023) ने आतंकवादी कृत्यों को वर्गीकृत करने में अस्पष्टताओं को दूर करने के लिए ‘डराने’ को परिभाषित करने का सुझाव दिया है।11

छोटे संगठित अपराध की परिभाषा में स्पष्टता का अभाव

बीएनएस छोटे संगठित अपराध को अपराध के रूप में परिभाषित करता है। इसमें निम्न शामिल हैं: वाहन चोरी, जेबतराशी, सार्वजनिक परीक्षा प्रश्नपत्र बेचना, किसी गिरोह द्वारा किए गए किसी अन्य प्रकार के संगठित अपराध। इसके लिए इन्हें: (i) नागरिकों के बीच असुरक्षा की सामान्य भावना पैदा करनी चाहिए, और (ii) संगठित आपराधिक समूहों या गिरोहों (मोबाइल संगठित अपराध समूहों सहित) द्वारा किया जाना चाहिए। ऐसे अपराधों के लिए एक से सात साल तक की कैद और जुर्माने का प्रावधान है। यह स्पष्ट नहीं है कि असुरक्षा की सामान्य भावनाओं का क्या मतलब है। इसके अलावा बीएनएस ‘गिरोह’, ‘एंकर पॉइंट’ और ‘मोबाइल संगठित अपराध समूह’ जैसे शब्दों को परिभाषित नहीं करता है। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने प्रावधान को फिर से तैयार करने का सुझाव दिया है।11

अपराधों के लिए आयु संबंधी निर्देश

आपराधिक उत्तरदायित्व की न्यूनतम आयु कई अन्य न्यायक्षेत्रों की तुलना में अधिक है

आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र उस न्यूनतम उम्र को कहा जाता है, जब से किसी बच्चे पर मुकदमा चलाया जा सकता है और किसी अपराध के लिए दंडित किया जा सकता है। किशोरों के व्यवहार को प्रभावित करने वाली न्यूरोबायोलॉजिकल प्रक्रियाओं की समझ जब विकसित हुई तब यह सवाल खड़े हुए कि बच्चों को उनके कार्यों के लिए किस हद तक जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।[15] आईपीसी के तहत सात साल से कम उम्र के बच्चे द्वारा किया गया कोई भी काम अपराध नहीं माना जाता है। अगर यह पाया जाता है कि बच्चे ने अपने आचरण की प्रकृति और परिणामों को समझने की क्षमता हासिल नहीं की है, तो आपराधिक जिम्मेदारी की आयु बढ़कर 12 वर्ष हो जाती है। बीएनएस ने इन प्रावधानों को बरकरार रखा है। 2007 में संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समिति ने विभिन्न देशों से कहा था कि वे आपराधिक जिम्मेदारी की आयु 12 वर्ष से अधिक करें।[16]

आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र अलग-अलग देशों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, जर्मनी में आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र 14 वर्ष है, जबकि इंग्लैंड और वेल्स में यह 10 वर्ष है।[17],[18] स्कॉटलैंड में आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र 12 वर्ष है।[19]

बच्चों के विरुद्ध समान अपराधों के लिए पीड़ित की आयु सीमा भिन्न-भिन्न है

बीएनएस बच्चों के खिलाफ अपराध के मामले में उच्च दंड का प्रावधान करता है। ज्यादातर मामलों में, इसमें प्रावधान है कि 18 वर्ष से कम उम्र के पीड़ित के साथ बच्चे जैसा व्यवहार किया जाएगा। महिलाओं और बच्चों से बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के लिए सज़ा अलग-अलग है। हालांकि बलात्कार के विभिन्न अपराधों के लिए पीड़िता के नाबालिग होने की सीमा और परिणामस्वरूप दंड अलग-अलग होता है। सामूहिक बलात्कार के लिए, दंड इस आधार पर भिन्न होता है कि पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से अधिक है या कम। हालांकि बलात्कार के लिए सज़ा इस आधार पर अलग-अलग होती है कि पीड़िता की उम्र 12 साल से कम है, 12 से 16 साल के बीच है या उससे अधिक है। यह यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण एक्ट, 2012 के साथ असंगत है, जो 18 वर्ष से कम उम्र के सभी व्यक्तियों को नाबालिगों के रूप में वर्गीकृत करता है।

इसके अतिरिक्त बीएनएस के तहत, बच्चों के खिलाफ कुछ अपराधों के लिए पीड़ित की आयु सीमा 18 वर्ष नहीं है। जैसे माता-पिता से चोरी करने के इरादे से बच्चे का अपहरण केवल 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चे पर लागू होता है। यानी 11 साल के बच्चे के अपहरण की सज़ा एक वयस्क के अपहरण के समान ही है। इसके अलावा, बीएनएस ने किसी विदेशी महिला को दूसरे देश से आयात करने के अपराध के लिए आईपीसी से 21 वर्ष की आयु बरकरार रखी है। हालांकि लड़कों के लिए, इसमें 18 वर्ष की आयु सीमा जोड़ी गई है। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने बच्चे को 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति के रूप में परिभाषित करने का सुझाव दिया है।11

बीएनएस और विशेष कानूनों के बीच ओवरलैप

अन्य विशेष कानूनों के साथ अपराधों का दोहराव

जब आईपीसी लागू किया गया था, तो इसमें सभी फौजदारी अपराधों को शामिल किया गया था। समय के साथ, विशिष्ट विषयों और संबंधित अपराधों के समाधान के लिए विशेष कानून बनाए गए हैं। इनमें से कुछ अपराधों को बीएनएस से हटा दिया गया है। जैसे वज़न और माप से संबंधित अपराधों को लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट, 2009 में शामिल किया गया था और बीएनएस से हटा दिया गया है। हालांकि कई अपराध बरकरार रखे गए हैं (कुछ उदाहरणों के लिए नीचे तालिका 1 देखें)। बीएनएस संगठित अपराध और आतंकवाद जैसे कुछ नए अपराध भी जोड़ता है जो पहले से ही विशेष कानूनों के अंतर्गत आते हैं। कानूनों में इस तरह के ओवरलैप के कारण अतिरिक्त अनुपालन का बोझ और लागत हो सकती है। इससे एक ही अपराध के लिए अलग-अलग दंड प्रदान करने वाले कई कानून भी बन सकते हैं। ऐसे अपराधों को हटाने से दोहराव, संभावित विसंगतियां और कई रेगुलेटरी व्यवस्थाएं दूर हो सकती हैं।

तालिका 1: आईपीसी, बीएनएस और विशेष कानूनों के बीच ओवरलैप के उदाहरण

बीएनएस/बीएनएसएस

विशेष कानून

बिक्री के लिए खाद्य या पेय पदार्थ में मिलावट

6 महीने तक की कैद, 5,000 रुपए तक का जुर्माना या दोनों।

असंज्ञेय, जमानत योग्य। (आईपीसी सेक्शन 272, 273; बीएनएस क्लॉज 272, 273)

खाद्य सुरक्षा और सुरक्षा एक्ट, 2006: असुरक्षित भोजन के निर्माण, भंडारण, बिक्री के लिए आजीवन कारावास और 10 लाख रुपए तक का जुर्माना। क्षति के अनुपात में सज़ा (सेक्शन 59)

दवाओं में मिलावट और मिलावटी दवाओं की बिक्री

मिलावट करने पर एक साल तक की कैद, 5,000 रुपए तक का जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

मिलावटी दवाओं की बिक्री पर 6 महीने तक की कैद, 5,000 रुपए तक का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।

असंज्ञेय, जमानत योग्य। (आईपीसी सेक्शन 274, 275; बीएनएस क्लॉज 274, 275)

ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940: मिलावटी दवाओं के सेवन से मौत या गंभीर चोट लगने पर 10 साल से लेकर आजीवन कारावास और कम से कम 10 लाख रुपए या जब्त की गई दवाओं के मूल्य का तीन गुना, जो भी अधिक हो, का जुर्माना हो सकता है। अन्य मामलों में, जुर्माना 3-5 साल की कैद और कम से कम 1 लाख रुपए या जब्त की गई दवाओं के मूल्य का तीन गुना, जो भी अधिक हो, जुर्माना है। (सेक्शन 27)

गैरकानूनी अनिवार्य श्रम

एक साल तक की कैद, जुर्माना या दोनों। संज्ञेय, जमानत योग्य। (आईपीसी सेक्शन 374; बीएनएस क्लॉज 144)

बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) एक्ट, 1976: 3 वर्ष तक कारावास और 2,000 रुपए तक जुर्माना। (सेक्शन 16, 17, 18)

बच्चे को छोड़ना

 

12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे को छोड़ने वाले माता-पिता या अभिभावक को 7 साल तक की कैद, जुर्माना या दोनों की सज़ा हो सकती है। संज्ञेय, जमानत योग्य। (आईपीसी सेक्शन 317; बीएनएस क्लॉज 91)

किशोर न्याय एक्ट, 2015: किसी बच्चे को परित्याग करने या परित्याग के लिए खरीदने पर 3 साल तक की कैद, 1 लाख रुपए तक का जुर्माना या दोनों की सज़ा हो सकती है। अपने नियंत्रण से परे परिस्थितियों के कारण बच्चे को छोड़ने वाले जैविक माता-पिता को छूट है। (सेक्शन 75)

लापरवाही से गाड़ी चलाना

 

6 महीने तक की कैद, 1,000 रुपए तक का जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

संज्ञेय, जमानत योग्य, कंपाउंडेबल। (आईपीसी सेक्शन 279; बीएनएस क्लॉज 279)

मोटर वाहन एक्ट, 1988: पहले अपराध के लिए सज़ा: 6 महीने तक कारावास और/या 5,000 रुपए तक जुर्माना। तीन साल के भीतर अगला अपराध: 2 साल तक की कैद और/या 10,000 रुपए तक का जुर्माना। संज्ञेय, जमानत योग्य, कंपाउंडेबल। (सेक्शन 184)

स्रोत: आईपीसी, बीएनएस, विभिन्न विशेष कानून; पीआरएस।

संगठित अपराध और आतंकवाद से संबंधित अपराधों को जोड़ना

वर्तमान में संगठित अपराध और आतंकवादी कृत्य आईपीसी के अंतर्गत शामिल नहीं हैं। आतंकवादी कृत्य गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) एक्ट, 1967 (यूएपीए) के अंतर्गत आते हैं। संगठित अपराध राज्य कानूनों जैसे महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण एक्ट, 1999 (मकोका) और कर्नाटक, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान द्वारा लागू समान कानूनों के अंतर्गत आता है।[20] बीएनएस में संगठित अपराध और आतंकवाद दोनों से संबंधित अपराध जोड़े गए हैं। संगठित अपराध को बीएनएस में एक अपराध के रूप में जोड़ने से वह अंतर दूर हो जाता है क्योंकि ये अपराध सभी राज्यों में हो सकते हैं, जिनमें वे राज्य भी शामिल हैं जिन्होंने कोई विशेष कानून नहीं बनाया है। हालांकि इससे उन राज्यों में कानूनों का दोहराव भी पैदा होता है जहां पहले से ही ऐसे विशेष कानून हैं। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) और भारतीय साक्ष्य बिल, 2023 (बीएसबी) जो क्रमशः आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय साक्ष्य एक्ट, 1872 की जगह लेते हैं, इन अपराधों के लिए एक अलग आपराधिक प्रक्रिया प्रदान नहीं करते हैं। संगठित अपराध और आतंकवाद पर विशेष कानूनों में सामान्य आपराधिक प्रक्रिया से कई भिन्नताएं हैं। वे अभियुक्तों के लिए कुछ सुरक्षा उपाय हटाते हैं, जैसे जमानत की शर्तें और पुलिस में कबूलनामे की स्वीकार्यता। यूएपीए के तहत मामलों की सुनवाई राष्ट्रीय जांच एजेंसी एक्ट, 2008 के तहत की जाती है, जो ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें स्थापित करती है।[21] बीएनएसएस के तहत, आतंकवाद के मामलों की सुनवाई सत्र न्यायालयों में की जाएगी। इसके परिणामस्वरूप समान अपराधों के लिए अलग-अलग जांच और ट्रायल प्रक्रियाएं होंगी। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने बीएनएसएस में संगठित अपराध के लिए विशेष आपराधिक प्रक्रियाएं प्रदान करने का सुझाव दिया है।11

पहचान के कुछ आधारों पर एक समूह द्वारा हत्या

 

बिल कुछ आधारों पर पांच या अधिक व्यक्तियों द्वारा की गई हत्या के लिए अलग दंड निर्दिष्ट करता है। इस अपराध के लिए कम से कम सात साल की कैद से लेकर आजीवन कारावास या मौत तक की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है। आधार नस्ल, जाति या समुदाय, लिंग, जन्म स्थान, भाषा, व्यक्तिगत विश्वास या कोई अन्य आधार हैं।

इस अपराध में हत्या के समान इरादे और परिणाम शामिल हैं, जिसका आईपीसी में पहले से ही प्रावधान है। इन निर्दिष्ट आधारों पर किसी समूह द्वारा हत्या के लिए न्यूनतम दंड हत्या के लिए दंड, जो कि मौत या आजीवन कारावास है, से कम है। जुर्माने में अंतर का औचित्य स्पष्ट नहीं है। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने क्लॉज से सात साल की कैद को हटाने का सुझाव दिया।11 बिल जाति और भाषा जैसे पहचान चिह्नों को निर्दिष्ट करता है, लेकिन धर्म को निर्दिष्ट नहीं करता है।

महिलाओं के साथ अपराध

बीएनएस ने बलात्कार से संबंधित आईपीसी के प्रावधानों को बरकरार रखा है। इसमें महिलाओं के साथ अपराधों में सुधार पर न्यायमूर्ति वर्मा समिति (2013) और सर्वोच्च न्यायालय के कई सुझावों को शामिल नहीं किया गया है। इनमें से कुछ का उल्लेख हम नीचे कर रहे हैं।

तालिका 2: महिलाओं से होने वाले अपराधों के संबंध में सुझाव

सुझाव

बीएनएस में शामिल है अथवा नहीं

बलात्कार (आईपीसी सेक्शन 375)- बलात्कार केवल योनि, मुंह या गुदा में प्रवेश तक सीमित नहीं होना चाहिए। यौन प्रकृति के किसी भी गैर-सहमति प्रवेश को बलात्कार की परिभाषा में शामिल किया जाना चाहिए। वैवाहिक बलात्कार का अपवाद हटाया जाना चाहिए।9

नहीं। मूल प्रावधान क्लॉज 63 में बरकरार रखा गया है।

महिला के शील को भंग करने के लिए शब्द, इशारा या कार्य (आईपीसी सेक्शन 509)- सेक्शन को निरस्त किया जाना चाहिए। ‘छेड़छाड़’ का अपराध आईपीसी के सेक्शन 354 (सेक्शन 73) के तहत आरोपित किया जा सकता है। आईपीसी से ‘महिलाओं के शील’ शब्द हटाएं।9

नहीं, मूल प्रावधान क्लॉज 78 में बरकरार रखा गया है।

महिला को निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग (आईपीसी सेक्शन 354बी)- जुर्माने को कम से कम पांच साल से लेकर 10 साल तक की कैद तक बढ़ाया जाना चाहिए।[22]

नहीं, जुर्माना कम से कम तीन साल से लेकर सात साल तक की कैद है (क्लॉज 75)।

व्यभिचार (आईपीसी सेक्शन 497)- यह सेक्शन अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करता है। यह लैंगिक रूढ़िवादिता के आधार पर पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर पैदा करता है, और मनमाना है। व्यभिचार को अपराध नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि यह निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है।3

हां। व्यभिचार को छोड़ दिया गया है। हालांकि बीएनएस ने आईपीसी के सेक्शन 498 (क्लॉज 83) को बरकरार रखा है जो एक पुरुष को दूसरे पुरुष की पत्नी को लुभाने के लिए दंडित करता है ताकि वह किसी भी व्यक्ति के साथ संभोग कर सके।

स्रोत: एंडनोट्स देखें; पीआरएस

राजद्रोह के पहलुओं को बरकरार रखा गया है

आईपीसी राजद्रोह को सरकार के प्रति घृणा, अवमानना, या उत्तेजक असंतोष लाने या लाने का प्रयास करने के रूप में परिभाषित करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान पीठ द्वारा समीक्षा किए जाने तक राजद्रोह के अपराध पर रोक लगा दी है।[23] बीएनएस इस अपराध को हटाता है। इसके बजाय, यह एक प्रावधान जोड़ता है जो निम्नलिखित को दंडित करता है: (i) अलगाव, सशस्त्र विद्रोह, या विध्वंसक गतिविधियों के लिए उकसाना या उकसाने का प्रयास करना, (ii) अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को बढ़ावा देना, या (iii) भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालना। इन अपराधों में शब्दों या संकेतों का आदान-प्रदान, इलेक्ट्रॉनिक संचार या वित्तीय साधनों का उपयोग शामिल हो सकता है। यह तर्क दिया जा सकता है कि नया प्रावधान राजद्रोह के अपराध के कुछ पहलुओं को बरकरार रखता है और उन कृत्यों की सीमा को विस्तृत करता है जिन्हें भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरे के रूप में देखा जा सकता है। ‘विध्वंसक गतिविधियां’ जैसे शब्द भी परिभाषित नहीं हैं, और यह स्पष्ट नहीं है कि कौन सी गतिविधियां इस मानदंड को पूरा करेंगी।

1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह को उन कृत्यों तक सीमित कर दिया था जो सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने या हिंसा भड़काने का इरादा या प्रवृत्ति रखते हैं।[24] उल्लेखनीय है कि बीएनएस में राजद्रोह शब्द का उल्लेख नहीं है लेकिन इसके बावजूद बीएनएसएस में बीएनएस (सेक्शन 150, 195, 297) में ‘राजद्रोह के मामलों’ का संदर्भ मौजूद है।

एकांत कारावास मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है

आईपीसी उन अपराधों के लिए एकांत कारावास की अनुमति देता है जिनमें कठोर कारावास की सज़ा होती है। ऐसे अपराधों में आपराधिक साजिश, यौन उत्पीड़न, अपहरण या हत्या के लिए अपहरण शामिल हैं। बीएनएस ने इन प्रावधानों को बरकरार रखा है। जेल एक्ट, 1894, जो एकांत कारावास की भी अनुमति देता है, कई राज्य कानूनों द्वारा अपनाया गया है।[25] एकांत कारावास पर प्रावधान न्यायालय के फैसलों और विशेषज्ञों के सुझावों के के अनुरूप नहीं हैं।

सर्वोच्च न्यायालय (1979) ने कहा है कि कैदियों को एकांत कक्षों में धकेलने जैसे उपाय उन्हें अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित करते हैं।[26] 1971 में विधि आयोग ने आईपीसी से एकांत कारावास को हटाने का कहा था। यह कहा गया कि ऐसी कैद आधुनिक सोच के अनुरूप नहीं और इसे किसी भी आपराधिक अदालत द्वारा सज़ा के तौर पर नहीं दिया जाना चाहिए।[27] 1978 में सर्वोच्च न्यायालय ने विधि आयोग के सुझाव को मानते हुए कहा था कि एकांत कारावास सिर्फ असाधारण मामलों में दी जानी चाहिए।[28]

सामुदायिक सेवा का दायरा अस्पष्ट है

बीएनएस दंड के रूप में सामुदायिक सेवा को शामिल करता है। यह इस सज़ा को निम्न अपराधों तक बढ़ाता है: (i) 5,000 रुपए से कम मूल्य की संपत्ति की चोरी, (ii) एक लोक सेवक को रोकने के इरादे से आत्महत्या का प्रयास, और (iii) सार्वजनिक स्थल पर नशे में दिखना और परेशानी का कारण बनना। बीएनएस यह परिभाषित नहीं करता है कि सामुदायिक सेवा में क्या शामिल होगा और इसे कैसे लागू किया जाएगा। गृह मामलों से संबंधित कमिटी (2023) ने ‘सामुदायिक सेवा’ की अवधि और प्रकृति की परिभाषा देने का सुझाव दिया था।11

ड्राफ्टिंग से संबंधित मुद्दे

बीएनएस में ड्राफ्टिंग से संबंधित कई मुद्दे हैं। हम यहां उनका उल्लेख कर रहे हैं:

तालिका 3: छूटने वाले अपराध, ड्राफ्टिंग से संबंधित मुद्दे और पुराने ढंग के उदाहरण

छूटने वाले अपराध

आईपीसी सेक्शन 375 और 377

सेक्शन 375 किसी महिला के साथ बलात्कार को अपराध के रूप में निर्दिष्ट करता है। सेक्शन 377 “किसी भी पुरुष, महिला या जानवर के खिलाफ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संभोग” को अपराध निर्दिष्ट करता है; सर्वोच्च न्यायालय ने वयस्कों के बीच सहमति से यौन संबंध को बाहर करने के लिए इसके कुछ हिस्सों को रद्द कर दिया था। इसका मतलब यह था कि किसी वयस्क पुरुष के साथ जबरन संबंध बनाना अपराध है, वैसे ही किसी जानवर के साथ संबंध बनाना भी अपराध है। बच्चों से बलात्कार चाहे उनका जेंडर कोई भी हो, पॉक्सो एक्ट, 2012 के तहत अपराध है।

बीएनएस में सेक्शन 377 नहीं है। यानी किसी वयस्क पुरुष का बलात्कार किसी भी कानून में अपराध नहीं होगा, न ही किसी पशु के साथ संभोग अपराध होगा। गृह मामलों से संबंधित कमिटी (2022) ने इस प्रावधान को फिर से लागू करने का सुझाव दिया है।

ड्राफ्टिंग से संबंधित मुद्दे

क्लॉज

मुद्दे

23

नशे में कोई कृत्य करना। आईपीसी (सेक्शन 85) ने किसी व्यक्ति के लिए एक सामान्य अपवाद दिया है, अगर वह नशे में है और सही और गलत के बीच अंतर करने में असमर्थ है, बशर्ते कि वह व्यक्ति अनजाने में या जबरन नशे में था।

बीएनएस “बशर्ते कि” को “जब तक” से बदलता है; इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति स्वेच्छा से नशा करता है, उसे दोषमुक्त कर दिया जाएगा।

150

आईपीसी के सेक्शन 124ए को प्रतिस्थापित करता है, और “राजद्रोह” शब्द को हटा देता है। स्पष्टीकरण (संभवतः यह कहना कि क्या अपराध नहीं होगा) एक अधूरा वाक्य है।

पुराने ढंग के संदर्भ (जिन्हें आधुनिक जीवन के उदाहरणों से बदलने की जरूरत हो सकती है)

127

उदाहरण: (बी) जेड एक रथ पर सवार है। ए, जेड के घोड़ों को मारता है, और इस प्रकार उनकी गति तेज़ कर देता है। यहां ए ने जानवरों को अपनी गति बदलने के लिए प्रेरित करके जेड की गति में परिवर्तन किया है। इसलिए ए ने जेड पर बल प्रयोग किया है; और अगर ए ने जेड की सहमति के बिना यह इरादा रखते हुए या यह जानते हुए किया है कि वह जेड को घायल कर सकता है, डरा सकता है या परेशान कर सकता है, तो ए ने जेड पर आपराधिक बल का प्रयोग किया है।

अन्य उदाहरण पालकी (क्लॉज 127 में उदाहरण सी) और तोपों (क्लॉज 100 में उदाहरण डी) से संबंधित हैं।

स्रोत: बीएनएस, आईपीसी; पीआरएस।

[1]. The Criminal Law (Amendment) Act, 2018, The Criminal Law (Amendment) Act, 1983, The Criminal Law (Amendment) Act, 2013.

[2]. WP (Criminal) No. 76 of 2016, Navtej Singh Johar & Ors vs. Union of India, Supreme Court, September 6, 2018.

[3]. WP (Criminal) No. 194 of 2017, Joseph Shine vs. Union of India, Supreme Court, September 27, 2018.

[4]. 1994 AIR 1844, R. Pathinam vs. Union of India, Supreme Court, April 26 1994.

[5]. The Indian Penal Code (Tamil Nadu Amendment) Act, 2021.

[6]. The Indian Penal Code (Andhra Pradesh Amendment) Act, 1991.

[7]. Criminal Laws (Rajasthan Amendment) Bill, 2018

[8]. Indian Penal Code (Punjab Amendment) Bill, 2018.

[9]. Report of the Committee on Amendments to Criminal Law, 2013 (Verma Committee).

[10]. Report 264, Law Commission of India, 2017; Report 262, Law Commission of India, 2015.

[11]. Report No. 246, The Bharatiya Nyaya Sanhita, Standing Committee on Home Affairs, Rajya Sabha, November 10, 2023

[12]. Section 330, The Code of Criminal Procedure, 1973.

[13]. Section 85, Indian Penal Code, 1860.

[14]. 1960 AIR 633, The Superintendent Central Jail, Fatehgarh vs. Ram Manohar Lohia, Supreme Court, January 21, 1960.

[15]. PostNote 588, Age of Criminal Responsibility, Parliamentary Office of Science and Technology, The United Kingdom, June 2018.

[16]. Report of the Committee on Rights of the Child, United Nations.

[17]. Section 19, The German Criminal Code, 1998.

[18]. “Age of criminal responsibility”, The Government of the United Kingdom.

[19]. “If a young person gets in trouble with the police”, The Government of Scotland.

[20]. Maharashtra Control of Organized Crime Act, 1999, Gujarat Control of Terrorism and Organised Crime Act, 2015.

[21]. National Investigation Agency Act, 2008.

[22]. Report No. 167, The Criminal Law (Amendment) Bill, 2012, Standing Committee on Home Affairs, Rajya Sabha, March 4, 2013.

[23]. Writ Petition (Civil) No. 682/2021, SG Vombatkere vs. Union of India, Supreme Court, September 12, 2021.

[24]. 1962 AIR, Kedar Nath Singh vs. State of Bihar, Supreme Court, January 20, 1962.

[25]. Section 29, Prisons Act, 1894.

[26]. 1980 AIR 1579, Sunil Batra(II) vs. Delhi Administration, Supreme Court, December 20, 1979.

[27]. Report No. 42, Law Commission of India, 1971.

[28]. 1978 AIR 1675, Sunil Batra vs. Delhi Administration and Ors, Supreme Court, August 30, 1978.

अस्वीकरणः प्रस्तुत रिपोर्ट आपके समक्ष सूचना प्रदान करने के लिए प्रस्तुत की गई है। पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च (पीआरएस) के नाम उल्लेख के साथ इस रिपोर्ट का पूर्ण रूपेण या आंशिक रूप से गैर व्यावसायिक उद्देश्य के लिए पुनःप्रयोग या पुनर्वितरण किया जा सकता है। रिपोर्ट में प्रस्तुत विचार के लिए अंततः लेखक या लेखिका उत्तरदायी हैं। यद्यपि पीआरएस विश्वसनीय और व्यापक सूचना का प्रयोग करने का हर संभव प्रयास करता है किंतु पीआरएस दावा नहीं करता कि प्रस्तुत रिपोर्ट की सामग्री सही या पूर्ण है। पीआरएस एक स्वतंत्र, अलाभकारी समूह है। रिपोर्ट को इसे प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के उद्देश्यों अथवा विचारों से निरपेक्ष होकर तैयार किया गया है। यह सारांश मूल रूप से अंग्रेजी में तैयार किया गया था। हिंदी रूपांतरण में किसी भी प्रकार की अस्पष्टता की स्थिति में अंग्रेजी के मूल सारांश से इसकी पुष्टि की जा सकती है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023

मंत्रालय : गृह मामले

बिल की मुख्‍य विशेषताएं

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) का स्थान लेने का प्रयास करती है। सीआरपीसी गिरफ्तारी, अभियोजन (प्रॉसीक्यूशन) और जमानत की प्रक्रिया प्रदान करती है।

बीएनएसएस सात साल या उससे अधिक की सजा वाले अपराधों के लिए फोरेंसिक जांच को अनिवार्य करता है। फोरेंसिक विशेषज्ञ फोरेंसिक सबूत इकट्ठा करने और प्रक्रिया को रिकॉर्ड करने के लिए अपराध स्थलों का दौरा करेंगे।

सभी ट्रायल, पूछताछ और कार्यवाही इलेक्ट्रॉनिक मोड में संचालित की जा सकती है। इलेक्ट्रॉनिक संचार उपकरणों, जिनमें डिजिटल सबूत की संभावना है, को जांच, पूछताछ या ट्रायल के दौरान प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाएगी।

अगर कोई घोषित अपराधी मुकदमे से बचने के लिए भाग गया है और उसकी गिरफ्तारी की तत्काल कोई संभावना नहीं है, तो उसकी अनुपस्थिति में मुकदमा चलाया जा सकता है और फैसला सुनाया जा सकता है।

जांच या कार्यवाही के लिए नमूना हस्ताक्षर या लिखावट के साथ-साथ उंगलियों के निशान और आवाज के नमूने भी एकत्र किए जा सकते हैं। ऐसे व्यक्ति से भी नमूने इकट्ठे किए सकते हैं जिसे गिरफ्तार नहीं किया गया है।

प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

बीएनएसएस 15 दिनों तक की पुलिस हिरासत की अनुमति देता है, जिसे न्यायिक हिरासत की 60- या 90- दिनों की अवधि के शुरुआती 40 या 60 दिनों के दौरान भागों में रखा जा सकता है। अगर पुलिस ने 15 दिन की हिरासत अवधि समाप्त नहीं की है तो इस प्रावधान से पूरी अवधि के लिए जमानत से इनकार किया जा सकता है।

अपराध की आय से अर्जित संपत्ति को कुर्क करने की शक्तियों में वैसे सुरक्षा उपाय नहीं हैं, जैसे मनी लॉन्ड्रिंग निवारण कानून में दिए गए हैं।

अगर कोई आरोपी किसी अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम कारावास की अवधि हिरासत में काट चुका हो तो सीआरपीसी उसके लिए जमानत का प्रावधान करती है। बीएनएसएस कई आरोपों का सामना करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए इस सुविधा से इनकार करता है। चूंकि कई मामलों में कई सेक्शंस के तहत आरोप लगाए जाते हैं, इसलिए इस प्रावधान से जमानत की गुंजाइश कम हो सकती है।

आर्थिक अपराधों सहित कई मामलों में हथकड़ी के उपयोग की अनुमति है जोकि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध है।

बीएनएसएस में सेवानिवृत्त या स्थानांतरित जांच अधिकारियों द्वारा एकत्र सबूतों को उनके परवर्ती (सक्सेसर) अधिकारी द्वारा प्रस्तुत करने की अनुमति है। यह साक्ष्य के सामान्य नियमों का उल्लंघन करता है, जिसमें दस्तावेज़ के लेखक से जिरह की जा सकती है।

सीआरपीसी में बदलावों पर उच्च स्तरीय समितियों की सिफारिशें जैसे सजा संबंधी दिशानिर्देशों में सुधार और अभियुक्तों के अधिकारों को संहिताबद्ध करना बीएनएसएस में शामिल नहीं किया गया है।

भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) को लागू करने के लिए स्थापित प्रक्रियात्मक कानून है। यह अपराधों की जांच, गिरफ्तारी, अभियोजन और जमानत की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। भारत में कानूनी प्रणालियों की बहुलता की समस्या के समाधान के लिए सीआरपीसी पहली बार 1861 में पारित किया गया।[1] तब से इसे कई मौकों पर संशोधित किया गया। 1973 में तत्कालीन कानून को रद्द किया गया और उसकी जगह मौजूदा सीआरपीसी लाई गई, जिसमें अग्रिम जमानत जैसे बदलाव किए गए।[2] प्ली बार्गेनिंग के प्रावधानों और गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकारों जैसे बदलावों को जोड़ने के लिए इसे 2005 में संशोधित किया गया था।[3]

पिछले कई वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की विभिन्न तरीकों से व्याख्या की है और इसके कार्यान्वयन में संशोधन किया है। इनमें निम्न शामिल हैं: (i) अगर शिकायत संज्ञेय अपराध से संबंधित है तो एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है, (ii) सात साल से कम कारावास की सजा होने पर गिरफ्तारी को अपवाद बनाना, (iii) जमानती अपराध के लिए जमानत सुनिश्चित करना पूर्ण और अपरिहार्य अधिकार है और ऐसे मामलों में किसी स्वविवेक का प्रयोग नहीं किया जाए।4 न्यायालय ने हिरासत में पूछताछ के लिए दिशानिर्देश स्थापित करने और त्वरित सुनवाई के महत्व पर जोर देने जैसे प्रक्रियात्मक पहलुओं पर भी फैसला सुनाया है।[4] हालांकि आपराधिक न्याय प्रणाली को लंबित मामलों, मुकदमे में देरी और वंचित समूहों के साथ व्यवहार जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है।[5] सीआरपीसी का स्थान लेने वाली भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) को 11 अगस्त, 2023 को पेश किया गया था। यह जमानत के प्रावधानों में संशोधन करता है, संपत्ति की कुर्की का दायरा बढ़ाता है और पुलिस और मजिस्ट्रेट की शक्तियों में बदलाव करता है। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी ने इस बिल की समीक्षा की थी।

मुख्य विशेषताएं
सीआरपीसी भारत में आपराधिक न्याय के प्रक्रियात्मक पहलुओं को प्रशासित करती है। एक्ट की प्रमुख विशेषताओं में निम्न शामिल हैं:

अपराधों को अलग-अलग करना: सीआरपीसी अपराधों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत करती है: संज्ञेय और गैर-संज्ञेय। संज्ञेय अपराध वे होते हैं जिनमें पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है और जांच शुरू कर सकती है। गैर-संज्ञेय अपराधों के लिए वारंट की आवश्यकता होती है, और कुछ मामलों में पीड़ित या तीसरे पक्ष की शिकायत की आवश्यकता होती है।

अपराध की प्रकृति: सीआरपीसी यातायात उल्लंघन से लेकर हत्या तक विभिन्न प्रकार के फौजदारी अपराधों से निपटती है। यह जमानती और गैर-जमानती अपराधों के बीच अंतर करती है, उन अपराधों को निर्दिष्ट करती है जिनके लिए आरोपी को पुलिस हिरासत में जमानत लेने का अधिकार है।

बीएनएसएस सीआरपीसी के अधिकांश प्रावधानों को बरकरार रखता है। प्रस्तावित प्रमुख परिवर्तनों में शामिल हैं:

विचाराधीन कैदियों की हिरासत: सीआरपीसी के अनुसार, अगर किसी आरोपी ने कारावास की अधिकतम अवधि का आधा समय हिरासत में बिताया है, तो उसे व्यक्तिगत बांड पर रिहा किया जाना चाहिए। यह मृत्युदंड वाले अपराधों पर लागू नहीं होता है। बिल में कहा गया है कि यह प्रावधान इन पर भी लागू नहीं होगा: (i) आजीवन कारावास की सजा वाले अपराध, और (ii) ऐसे व्यक्ति जिनके खिलाफ एक से अधिक अपराधों में कार्यवाही लंबित है।

मेडिकल जांच: सीआरपीसी बलात्कार के मामलों सहित कुछ मामलों में आरोपी की मेडिकल जांच की अनुमति देती है। ऐसी जांच कम से कम एक उप-निरीक्षक स्तर के पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर एक पंजीकृत चिकित्सक द्वारा की जाती है। बिल में प्रावधान है कि कोई भी पुलिस अधिकारी ऐसी जांच का अनुरोध कर सकता है।

फॉरेंसिंक जांच: बिल न्यूनतम सात साल की कैद की सजा वाले अपराधों के लिए फोरेंसिक जांच को अनिवार्य बनाता है। ऐसे मामलों में फोरेंसिक विशेषज्ञ सबूत इकट्ठा करने के लिए अपराध स्थलों का दौरा करेंगे और प्रक्रिया को मोबाइल फोन या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण पर रिकॉर्ड करेंगे। अगर किसी राज्य में फोरेंसिक सुविधा नहीं है, तो वह दूसरे राज्य की सुविधा का उपयोग करेगा।

हस्ताक्षर और उंगलियों के निशान: सीआरपीसी एक मजिस्ट्रेट को किसी भी व्यक्ति को नमूना हस्ताक्षर या लिखावट प्रदान करने का आदेश देने का अधिकार देती है। बिल में इसका विस्तार करते हुए उंगलियों के निशान और आवाज के नमूनों को शामिल किया गया है। यह इन नमूनों को ऐसे व्यक्ति से एकत्र करने की अनुमति देता है जिसे गिरफ्तार नहीं किया गया है।

प्रक्रियाओं के लिए समय सीमा: बिल विभिन्न प्रक्रियाओं के लिए समय सीमा निर्धारित करता है। जैसे इसके तहत बलात्कार पीड़ितों की जांच करने वाले चिकित्सकों को सात दिनों के भीतर जांच अधिकारी को अपनी रिपोर्ट सौंपनी होगी। अन्य निर्दिष्ट समय सीमा में शामिल हैं: (i) बहस पूरी होने के 30 दिनों के भीतर फैसला देना (60 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है), (ii) पीड़ित को 90 दिनों के भीतर जांच की प्रगति के बारे में बताना, और (iii) सत्र अदालत द्वारा आरोपों की सुनवाई के 60 दिनों के भीतर आरोप तय करना।

अदालतों की हेरारकी: सीआरपीसी भारत में फौजदारी मामलों पर फैसले के लिए अदालतों की एक हेरारकी तय करती है। ये अदालतें इस प्रकार हैं: (i) मजिस्ट्रेट अदालतें: अधिकांश फौजदारी मामलों की सुनवाई के लिए जिम्मेदार अधीनस्थ अदालतें, (ii) सत्र अदालतें: सत्र न्यायाधीश की अध्यक्षता में, मजिस्ट्रेट अदालतों से अपील सुनती हैं, (iii) उच्च न्यायालयों: के पास फौजदारी मामलों और अपीलों को सुनने और निर्णय लेने का अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र है और (iv) सर्वोच्च न्यायालय: उच्च न्यायालयों से अपील सुनता और कुछ मामलों में अपने मूल क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है। सीआरपीसी राज्य सरकारों को 10 लाख से अधिक आबादी वाले किसी भी शहर या कस्बे को महानगरीय क्षेत्र के रूप में अधिसूचित करने का अधिकार देती है। ऐसे क्षेत्रों में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट होते हैं। बिल इस प्रावधान को हटाता है।

भाग ख: मुख्य मुद्दे और विश्लेषण

बिल पुलिस की शक्तियों को बढ़ा सकता है

सीआरपीसी सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करने, अपराधों को रोकने और आपराधिक जांच करने की पुलिस की शक्तियों को नियंत्रित करती है। इन शक्तियों में गिरफ्तारी, हिरासत, तलाशी, जब्ती और बल का उपयोग शामिल है। ये शक्तियां व्यक्तियों को पुलिस शक्तियों के दुरुपयोग से बचाने के लिए प्रतिबंधों के अधीन हैं, जिसके परिणामस्वरूप बल का अत्यधिक उपयोग, अवैध हिरासत, हिरासत में यातना और अधिकार का दुरुपयोग होता है।[6] सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस शक्तियों के ऐसे मनमाने प्रयोग को रोकने के लिए विभिन्न दिशानिर्देश भी जारी किए हैं।4,[7] बिल हिरासत, पुलिस कस्टडी और हथकड़ी के उपयोग से संबंधित प्रावधानों में संशोधन करता है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ मुद्दे उठते हैं।

पुलिस हिरासत की प्रक्रिया में बदलाव

संविधान और सीआरपीसी 24 घंटे से अधिक पुलिस हिरासत में रखने पर रोक लगाते हैं।[8] अगर जांच 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं हो पाती है तो मजिस्ट्रेट को इसे 15 दिन तक बढ़ाने का अधिकार है। अगर वह संतुष्ट है कि ऐसा करने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं, तो वह न्यायिक हिरासत को 15 दिनों से अधिक बढ़ा सकता है। हालांकि कुल हिरासत 60 या 90 दिनों (अपराध के आधार पर) से अधिक नहीं हो सकती। बीएनएसएस इस प्रक्रिया को संशोधित करता है। इसमें कहा गया है कि 15 दिनों की पुलिस हिरासत को 60 या 90 दिनों की अवधि में से शुरुआती 40 या 60 दिनों के दौरान किसी भी समय पूर्ण या आंशिक रूप से अधिकृत किया जा सकता है। इससे इस दौरान जमानत से इनकार किया जा सकता है, अगर पुलिस यह तर्क देती है कि उन्हें उस व्यक्ति को वापस पुलिस हिरासत में लेने की आवश्यकता है।

यह गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) एक्ट, 1976 जैसे कानूनों से अलग है, जहां पुलिस हिरासत पहले 30 दिनों तक सीमित है।[9] सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि सामान्य नियम के तौर पर रिमांड के पहले 15 दिनों में पुलिस हिरासत ली जानी चाहिए।[10] 40 या 60 दिनों के विस्तार को अपवाद के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए। बीएनएसएस में यह जरूरी नहीं किया गया है कि जांच अधिकारी न्यायिक हिरासत में किसी के लिए पुलिस हिरासत की मांग करते समय कारण बताए। स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने इस खंड की व्याख्या को स्पष्ट करने का सुझाव दिया है।[11]

हिरासत की शक्तियों में संशोधन

संविधान के अनुच्छेद 22 के तहत पुलिस हिरासत में रहने वाले किसी व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है।8 सीआरपीसी भी यह प्रावधान करती है। बीएनएसएस इस प्रावधान को बरकरार रखता है। इसमें कहा गया है कि पुलिस किसी भी ऐसे व्यक्ति को हिरासत में ले सकती है या हिरासत से हटा सकती है जो संज्ञेय अपराधों को रोकने के लिए किसी अधिकारी द्वारा दिए गए निर्देशों का विरोध करता है, इनकार करता है या उनकी अनदेखी करता है। हिरासत के बाद, हिरासत में लिए गए व्यक्ति को या तो: (i) मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जा सकता है, या (ii) छोटे-मोटे मामलों में, अवसर बीत जाने पर रिहा किया जा सकता है। वाक्यांश ‘अवसर बीत जाने’ परिभाषित नहीं है। स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने ऐसी परिस्थितियों में हिरासत के लिए एक स्पष्ट समय सीमा बताने का सुझाव दिया है।11

हथकड़ी का उपयोग करने की शक्ति अभियुक्त की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन कर सकती है

बीएनएसएस गिरफ्तारी के दौरान हथकड़ी के इस्तेमाल का प्रावधान करता है। हथकड़ी का उपयोग केवल निम्नलिखित को गिरफ्तार करने के लिए किया जा सकता है: (i) आदतन या बार-बार हिरासत से भागने वाला अपराधी, या (ii) बलात्कार, एसिड हमला, संगठित अपराध, आर्थिक अपराध, भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले अपराधों का आरोपी व्यक्ति। यह प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करता है।[12]

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि हथकड़ी का इस्तेमाल अमानवीय, अनुचित, मनमाना और अनुच्छेद 21 के प्रतिकूल है।[13] चरम मामलों में जब हथकड़ी का इस्तेमाल करना हो, तो एस्कॉर्टिंग अथॉरिटी को ऐसा करने के लिए कारण दर्ज करने होंगे।13 इसके अलावा उसने कहा कि न्यायिक सहमति प्राप्त किए बिना मुकदमे से गुजर रहे किसी भी कैदी को हथकड़ी नहीं लगाई जा सकती।[14] इसलिए न्यायालय ने हथकड़ी के उपयोग पर निर्णय लेने का विवेक ट्रायल कोर्ट पर छोड़ दिया है।12 स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने उन अपराधों से आर्थिक अपराधों को बाहर करने का सुझाव दिया है जहां हथकड़ी का उपयोग किया जा सकता है।11 कमिटी की रिपोर्ट में असहमति के एक नोट में कहा गया है कि हथकड़ी का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब हिंसा का खतरा हो या संदिग्ध के हिरासत से भागने की आशंका हो।11

आरोपियों के अधिकार

एक से ज्यादा आरोपों के मामले में अनिवार्य जमानत की सीमित गुंजाइश

सीआरपीसी के अनुसार, अगर किसी विचाराधीन कैदी ने किसी अपराध के लिए अधिकतम कारावास की आधी सजा काट ली है, तो उसे निजी मुचलके पर रिहा किया जाना चाहिए। यह प्रावधान मौत की सजा वाले अपराधों पर लागू नहीं होता है। बीएनएसएस ने इस प्रावधान को बरकरार रखा है और कहा है कि पहली बार के अपराधियों को अधिकतम सजा का एक तिहाई पूरा करने के बाद जमानत मिल जाती है। हालांकि इसमें कहा गया है कि यह प्रावधान इन पर लागू नहीं होगा: (i) आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध, और (ii) जहां अपराध से अधिक या कई मामलों में जांच, पूछताछ या मुकदमा लंबित है। चूंकि आरोप पत्रों में अक्सर कई अपराधों को सूचीबद्ध किया जाता है, तो इससे कई विचाराधीन कैदी अनिवार्य जमानत के लिए अयोग्य हो सकते हैं।

उदाहरण के लिए 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अवैध खनन खान और खनिज (विकास और रेगुलेशन) एक्ट, 1957 के तहत एक अपराध है, और आईपीसी के तहत चोरी माना जाता है।[15] इसी तरह, लापरवाही और खतरनाक तरीके से गाड़ी चलाना मोटर वाहन एक्ट, 1988 के साथ-साथ आईपीसी के तहत दंडनीय अपराध है।[16] ऐसे मामलों में आरोपी व्यक्ति अनिवार्य जमानत प्राप्त करने के पात्र नहीं होंगे।

जमानत मिलने से अभियुक्त मुकदमे की प्रतीक्षा के दौरान हिरासत से रिहा हो सकते हैं, बशर्ते वे कुछ शर्तों को पूरा करते हों।[17] दोषसिद्धि से पहले हिरासत में इसलिए लिया जाता है ताकि मुकदमे के लिए आरोपी की आसान उपलब्धता सुनिश्चित हो सके और सबूतों के साथ कोई छेड़छाड़ न हो। अगर ये सुनिश्चित हो जाएं तो हिरासत की जरूरत नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जमानत नियम है और कारावास अपवाद है।[18] इसके अलावा, उसने कहा है कि विचाराधीन कैदियों को जल्द से जल्द रिहा किया जाना चाहिए और जो लोग गरीबी के कारण जमानत नहीं दे सकते, वे सिर्फ इसी वजह से जेल में नहीं रखे जाने चाहिए।[19]

प्ली बार्गेनिंग की गुंजाइश सीमित हो सकती है

प्ली बार्गेनिंग बचाव और अभियोजन पक्ष के बीच एक समझौता होता है जहां अभियुक्त कम अपराध या कम सजा के लिए दोषी माने जाने का निवेदन करता है। इसे 2005 में सीआरपीसी में जोड़ा गया था।3 मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात साल से अधिक कारावास की सजा वाले कुछ अपराध प्ली बार्गेनिंग के अधीन नहीं हैं। सीआरपीसी किसी छोटे अपराध के लिए या अपराध को कम करने के लिए बार्गेनिंग यानी सौदेबाजी की अनुमति नहीं देती है- ऐसे में आरोपी द्वारा अपराध कबूल कर लिया माना जाएगा और उसे अपराध के लिए दोषी ठहराया जाएगा। बीएनएसएस इस प्रावधान को बरकरार रखता है। यह भारत में प्ली बार्गेनिंग को सेंटेंस बार्गेनिग तक सीमित करता है, यानी आरोपी की दोषी याचिका (गिल्टी प्ली) के बदले में हल्की सजा।

साथ ही, बीएनएसएस एक शर्त जोड़ता है कि आरोपी को आरोप तय होने की तारीख से 30 दिनों के भीतर प्ली बार्गेनिंग के लिए आवेदन दाखिल करना होगा। यह समय सीमा कम सजा की मांग के अवसर को सीमित करके प्ली बार्गेनिंग के प्रभाव को कम कर सकता है।

जेलों में भीड़

जमानत पर प्रतिबंध लगाने और प्ली बार्गेनिंग के दायरे को सीमित करने से जेलों में भीड़ कम करने में रुकावट आ सकती है। दिसंबर 2021 तक भारत की जेलों में 5.5 लाख से अधिक कैदी थे, जिनकी कुल ऑक्यूपेंसी दर 130% थी।20 2021 में विचाराधीन कैदी भारत में कुल कैदियों का 77% थे।[20] लगभग 30% विचाराधीन कैदी एक वर्ष या उससे अधिक समय से हिरासत में थे।20 लगभग 8% विचाराधीन कैदी तीन साल या उससे अधिक समय से हिरासत में थे। 20

स्थानांतरित या सेवानिवृत्त अधिकारियों के लिए गवाही देने वाले परवर्ती अधिकारी

बीएनएसएस का कहना है कि अगर कोई अधिकारी जिसने किसी जांच या मुकदमे के लिए दस्तावेज़ या रिपोर्ट तैयार की है, वह अनुपलब्ध है, तो न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि उनका परवर्ती अधिकारी अधिकारी दस्तावेज़ पर गवाही दे। इस प्रावधान के अंतर्गत आने वाले अधिकारियों में लोक सेवक, चिकित्सा अधिकारी और जांच अधिकारी (आईओ) शामिल हैं। अनुपलब्धता के कारणों में निम्न शामिल हैं: (i) मृत्यु, (ii) स्थानांतरण, (iii) सेवानिवृत्ति, और (iv) देरी की संभावना। हालांकि परवर्ती अधिकारियों को न्यायालय के समक्ष गवाही देने की अनुमति देने से मामलों में तेजी आने में मदद मिल सकती है, लेकिन यह साक्ष्य के सामान्य नियमों के विपरीत हो सकता है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि आईओ द्वारा दर्ज किए गए बयान उसी अधिकारी द्वारा प्रदान किए जाने चाहिए, क्योंकि परवर्ती अधिकारी आईओ की जांच को प्रमाणित करने में सक्षम नहीं हो सकता है। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने कहा है कि आईओ के पास जांच के तहत मामले की महत्वपूर्ण जानकारी होती है।11 उनकी जिरह काफी मूल्यवान है, खासकर जब उनके द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों को सबूत के रूप में उपयोग किया जाता है।11 कमिटी ने इस प्रावधान से आईओ को हटाने का सुझाव दिया है।11 एक असहमत सदस्य ने कहा कि केवल अधिकारी की मृत्यु के मामले को छोड़कर, सभी अधिकारियों को जिरह के लिए उपलब्ध होना चाहिए।11

संपत्ति की कुर्की पर सुरक्षा उपाय

वह संपत्ति जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आपराधिक गतिविधि के परिणामस्वरूप प्राप्त की जाती है, अपराध की आय कहलाती है। सीआरपीसी पुलिस को संपत्ति जब्त करने की शक्ति प्रदान करती है: (i) जिसके बारे में अभिकथन या संदेह है कि वह चुराई हुई है, या (ii) जिसे किसी अपराध के होने का संदेह पैदा करने वाली परिस्थितियों में पाया गया हो। यह केवल चल संपत्तियों पर लागू है।[21] बीएनएसएस इसे अचल संपत्तियों तक बढ़ाता है। बीएनएसएस में जब्त की गई संपत्ति के साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा, इससे संबंधित प्रावधान मनी लॉन्ड्रिंग निवारण कानून, 2002 (पीएमएलए) के प्रावधानों से भिन्न हैं। पीएमएलए निर्दिष्ट अपराधों के संबंध में मनी लॉन्ड्रिंग से प्राप्त संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान करता है।[22]

पीएमएलए के कुछ सुरक्षा उपाय बीएनएसएस के तहत उपलब्ध नहीं हैं। पीएमएलए के तहत, कुर्की की प्रकृति अस्थायी होती है, वह भी 180 दिनों तक के लिए।22 कुर्की का आदेश क्यों नहीं दिया जाना चाहिए, इसका कारण बताने के लिए कम से कम 30 दिनों की नोटिस अवधि दी जानी चाहिए।22 कुर्की के दौरान, अचल संपत्ति के इस्तेमाल से इनकार नहीं किया जा सकता।22 बीएनएसएस कोई समय सीमा प्रदान नहीं करता है कि कब तक संपत्ति कुर्क की जा सकती है। इसमें आरोपी को 14 दिन का कारण बताओ नोटिस देने का प्रावधान है।

मौजूदा कानूनों के साथ ओवरलैप

पिछले कई वर्षों में, आपराधिक प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं को रेगुलेट करने के लिए विशेष कानून बनाए गए हैं। हालांकि बीएनएसएस ने कुछ प्रक्रियाओं को बरकरार रखा है।

आपराधिक पहचान के लिए डेटा कलेक्शन

2005 में सीआरपीसी में संशोधन करके मजिस्ट्रेट को गिरफ्तार व्यक्तियों से लिखावट या हस्ताक्षर के नमूने प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।

[23] बिल मजिस्ट्रेट को उंगलियों के निशान और आवाज के नमूने एकत्र करने का अधिकार देकर इस प्रावधान का विस्तार करता है। बिल उन व्यक्तियों से भी इस डेटा को एकत्र करने की अनुमति देता है जिन्हें किसी भी जांच के तहत गिरफ्तार नहीं किया गया है। आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) एक्ट, 2022 उंगलियों के निशान, लिखावट और जैविक नमूनों सहित डेटा की एक विस्तृत श्रृंखला एकत्र करने की अनुमति देता है।[24] इस तरह का डेटा दोषियों, किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किए गए लोगों या गैर-आरोपी व्यक्तियों से भी एकत्र किया जा सकता है और 75 साल तक संग्रहीत किया जा सकता है। अपराधियों और अभियुक्तों के डेटा कलेक्शन की अनुमति देने के लिए हाल ही में एक व्यापक कानून पारित किया गया है। ऐसे में डेटा कलेक्शन के प्रावधानों को बहाल करने और उन्हें बीएनएसएस में शामिल करने की जरूरत स्पष्ट नहीं है। 2022 के कानून की संवैधानिक वैधता दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है।[25]

वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण

सीआरपीसी के तहत, एक मजिस्ट्रेट पर्याप्त आय वाले व्यक्ति को आदेश दे सकता है कि वह अपने पिता या माता (जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं) के भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ता प्रदान करे। अगर आदेश का पालन नहीं किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट देय राशि वसूलने के लिए वारंट जारी कर सकता है और व्यक्ति को एक महीने तक की कैद या भुगतान होने तक की सजा दे सकता है। बीएनएसएस ने इस प्रावधान को बरकरार रखा है जो माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण एक्ट, 2007 के प्रावधानों का दोहराव है। उस एक्ट के तहत राज्य सरकारें वरिष्ठ नागरिकों और माता-पिता को देय भरण-पोषण पर निर्णय लेने के लिए मेनटेनेंस ट्रिब्यूनल का गठन करती हैं।

[26] ट्रिब्यूनल देय राशि वसूलने के लिए वारंट जारी कर सकता है, और व्यक्ति को एक महीने तक की कैद या भुगतान होने तक की सजा दे सकता है। इस एक्ट के प्रावधान अन्य कानूनों के प्रावधानों के स्थान पर लागू होते हैं।

बीएनएसएस में सार्वजनिक व्यवस्था संबंधी कार्य बरकरार

सीआरपीसी अपराधों की जांच और मुकदमे की प्रक्रिया प्रदान करती है। इसमें शांति बरकरार रखने के लिए सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बहाल रखने के प्रावधान भी शामिल हैं। इसमें ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो जिला मजिस्ट्रेट को सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करने के लिए आवश्यक आदेश जारी करने की अनुमति देते हैं। बीएनएसएस ने इन प्रावधानों को (अलग-अलग अध्यायों में) बरकरार रखा है। चूंकि मुकदमेबाजी और सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करना अलग-अलग कार्य हैं, इसलिए सवाल यह है कि क्या उन्हें एक ही कानून में शामिल किया जाना चाहिए या क्या उनसे अलग से निपटा जाना चाहिए। संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार, सार्वजनिक व्यवस्था राज्य का विषय है।

[27] हालांकि सीआरपीसी के तहत मामले (संविधान के प्रारंभ से पहले) समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं। [28]

विभिन्न समितियों के सुझाव

तालिका 1 में आपराधिक सुधारों पर सरकार को सलाह देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित विभिन्न समितियों और विधि आयोग के प्रमुख सुझावों का उल्लेख है:

तालिका 1: सीआरपीसी पर विभिन्न समितियों और विधि आयोग के मुख्य सुझाव

सुझाव

बिल में शामिल हैं अथवा नहीं

आपराधिक न्याय प्रणाली में व्यापक सुधार

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सजा संबंधी दिशानिर्देश निर्धारित करने के लिए एक वैधानिक समिति का गठन करें।[29]

नहीं

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त अभियुक्तों के अधिकारों को सीआरपीसी में शामिल किया जाए।30

नहीं

प्रक्रिया, जब जांच 24 घंटे में पूरी नहीं हो सकती (सीआरपीसी सेक्शन 167) – सात साल से अधिक की सजा वाले अपराधों के संबंध में पुलिस हिरासत की अधिकतम अवधि 30 दिन होगी।29

नहीं। पुलिस हिरासत की अधिकतम अवधि 15 दिन है। इसे निम्न प्रकार बढ़ाया जा सकता है: (i) 60 दिन जहां अपराध के लिए कम से कम 10 साल की कैद की सजा हो, या (ii) किसी अन्य अपराध के लिए 40 दिन। (बीएनएसएस क्लॉज 187)।

गलत तरीके से आरोपित लोगों को मुआवजा दें।[30]

नहीं

गिरफ्तारी[31]

गिरफ्तार व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद एक चिकित्सा अधिकारी द्वारा जांच की जानी चाहिए (सीआरपीसी सेक्शन 54)। अधिकारी को व्यक्ति पर लगी किसी भी चोट और ऐसी चोटों के अनुमानित समय को रिकॉर्ड करना चाहिए। हिरासत के दौरान हर 48 घंटे में जांच दोहराई जानी चाहिए।

आशिक रूप से। हिरासत के हर 48 घंटे में मेडिकल जांच का प्रावधान नहीं है। (बीएनएसएस क्लॉज 53)।

पुलिस को बयान/कबूल करना

पुलिस को दिए गए बयान (सीआरपीसी सेक्शन 162) – बयानों को पढ़ा जाना चाहिए और बयान देने वाले द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिए और एक प्रति उसे दी जानी चाहिए। ऐसे बयानों का इस्तेमाल बयान देने वाले का खंडन करने और उसकी पुष्टि करने के लिए किया जा सकता है।30

नहीं, मूल प्रावधान बीएनएसएस क्लॉज 181 में बरकरार रखा गया है।

जमानत[32]

जमानत को किसी अपराध के संदिग्ध या आरोपी व्यक्ति की अस्थायी रिहाई के रूप में परिभाषित करें, इस गारंटी के साथ कि वे बाद की तारीख में अदालत में पेश होंगे।

बीएनएसएस का क्लॉज 479 जमानत के लिए एक अलग परिभाषा प्रदान करता है।

गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किया जाना (सीआरपीसी सेक्शन 50) – इसके तब तक कोई मायने नहीं, जब तक गिरफ्तार व्यक्ति को उस भाषा में लिखित रूप से सूचित नहीं किया जाता जिसे वह समझता है।

नहीं, मूल प्रावधान बीएनएसएस क्लॉज 47 में बरकरार रखा गया है।

मुकदमे के स्थगन पर, अदालत आरोपी को जमानत पर रिहा कर देगी या उसे आगे की हिरासत में भेज देगी और कारण दर्ज करेगी। (सीआरपीसी का सेक्शन 309 (2))

नहीं, मूल प्रावधान बीएनएसएस क्लॉज 346 में बरकरार रखा गया है।

जमानत से इनकार करने पर अदालत को इसका संक्षिप्त कारण बताना चाहिए।

नहीं

नोट: यह तालिका सीआरपीसी पर विभिन्न समितियों और विधि आयोग द्वारा दिए गए कुछ महत्वपूर्ण सुझावों पर प्रकाश डालती है। यह कोई विस्तृत सूची नहीं है।
स्रोत: एंडनोट्स देखें; पीआरएस।

ड्राफ्टिंग के मुद्दे

तालिका 2 में बिल के ड्राफ्टिंग संबंधी मुद्दों का उदाहरण पेश किया गया है।

तालिका 2: बीएनएसएस में ड्राफ्टिंग संबंधी मुद्दे

ड्राफ्टिंग संबंधी मुद्दे

क्लॉज

मुद्दे

127

बीएनएस में राजद्रोह शब्द प्रकट नहीं होने के बावजूद बीएनएस (सेक्शन 150, 195, 297) में “राजद्रोही मामलों” का संदर्भ है।

187 (5)

एक मुद्रण संबंधी त्रुटि है जहां नए जोड़े गए प्रोविजो में ‘पुलिस’ के स्थान पर ‘पॉलिसी’ शब्द का उपयोग किया गया है।

217

कहा गया है कि न्यायालय सरकार की पूर्व अनुमति के बिना बीएनएस के अध्याय VI के तहत अपराध का संज्ञान नहीं ले सकता है। बीएनएस के अध्याय VI में मानव शरीर के खिलाफ हमले, अपहरण और हत्या जैसे अपराध शामिल हैं। सीआरपीसी में संबंधित सेक्शन आईपीसी के अध्याय VI (राज्य के खिलाफ अपराध) को संदर्भित करता है जो बीएनएस का अध्याय VII है।

482

जमानत की शर्तें बीएनएसएस के अध्यायों को संदर्भित करती हैं। इन्हें बीएनएस के समान अध्यायों का संदर्भ देना चाहिए।

125

शांति बनाए रखने के लिए बांड बीएनएस के अध्याय VIII (जिसमें सेना से संबंधित अपराध शामिल हैं) को संदर्भित करता है। इसे बीएनएस के अध्याय IX (सार्वजनिक शांति के विरुद्ध अपराध) का संदर्भ लेना चाहिए।

377

क्लॉज गायब है। क्लॉज 376 के बाद क्लॉज 378 आता है।

372

बीएनएस ने अनसाउंड माइंड के स्थान पर मेंटल इलनेस का इस्तेमाल किया है। बीएनएसएस के क्लॉज 372 में साउंड माइंड के आरोपी का संदर्भ है।

234, 243

सर्वोच्च न्यायालय ने आईपीसी में ‘व्यभिचार’ के अपराध को निरस्त कर दिया था। बीएनएस में व्यभिचार अपराध नहीं है। हालांकि बीएनएसएस के उदाहरण व्यभिचार को अपराध मानते हैं।

532

बीएनएसएस में ‘संहिता’ के बजाय ‘कोड’ को संदर्भित करता है।

स्रोत: भारतीय न्याय संहिता, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और भारतीय साक्ष्य बिल, 2023; पीआरएस।

हिट एंड रन पर नए कानून में ऐसा क्‍या जिसने उड़ाए ड्राइवरों के होश?

यूपी, बिहार, मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान, गुजरात… तमाम राज्‍यों के ट्रक ड्राइवर और ट्रांसपोर्ट ऑपरेटर सड़कों पर उतर आए हैं। वजह है ‘हिट एंड रन’ पर लाया जा रहा नया कानून। इसमें ‘हिट एंड रन’ को लेकर बेहद सख्‍ती से निपटने का प्रावधान किया गया है। यह भारतीय न्याय संहिता का हिस्‍सा है। इसके तहत ऐसे मामलों में ड्राइवरों को 10 साल तक की सजा या 7 लाख रुपये जुर्माने की बात कही गई है। इसने ड्राइवरों के होश उड़ा दिए हैं। कानून के विरोध में देश के कई राज्‍यों में ड्राइवरों ने चक्‍काजाम करना शुरू कर दिया है। सख्‍त प्रावधान के जरिये सरकार की मंशा सड़क हादसों पर अंकुश लगाना है। इसके उलट ड्राइवरों को लगता है कि यह उनके साथ ज्‍यादती है। यह पूरा कानून क्‍या है? हिट एंड रन के किस क्‍लॉज को लेकर ड्राइवरों में नाराजगी है? अभी तक क्‍या व्‍यवस्‍था थी? आइए, यहां इन सभी सवालों के जवाब जानते हैं।

हिट एंड रन पर नए कानून के किस प्रावधान का विरोध?

ट्रक और बस ड्राइवर भारतीय न्याय संहिता के एक प्रावधान का विरोध कर रहे हैं। इसके तहत लापरवाही से गाड़ी चलाने पर गंभीर सड़क दुर्घटना होने और पुलिस या प्रशासन के किसी अधिकारी को सूचित किए बिना मौके से भागने वाले चालकों को 10 साल तक की सजा या सात लाख रुपये के जुर्माने का प्रावधान है।

हिट एंड रन पर नए कानून के विरोध का क्‍या है कारण?

चक्‍काजाम करने वाले ड्राइवरों का दावा है कि ‘हिट एंड रन’ के मामलों में विदेश की तर्ज पर सख्त प्रावधान लाया गया है। इसे लाने से पहले विदेश की तरह बेहतर सड़क और परिवहन व्यवस्था सुनिश्चित करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए था। ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस (AIMTC) ने कहा है कि नए नियमों के कारण ड्राइवर नौकरी छोड़ रहे हैं। देशभर में पहले से ही 25-30 फीसदी ड्राइवरों की कमी है। ऐसे कानून ड्राइवरों की किल्‍लत को और बढ़ाएंगे। देश की अर्थव्यवस्था में रोड ट्रांसपोर्टरों और ड्राइवरों का बड़ा योगदान है। प्रदर्शनकारी ड्राइवरों का कहना है कि नए कानून के अनुसार, ‘हिट एंड रन’ मामलों में 10 साल तक की जेल और सात लाख रुपये का जुर्माना हो सकता है। ड्राइवर इतनी बड़ी राशि कैसे भर सकते हैं।

हिट एंड रन पर अभी तक क्या रहा है कानून?

अब तक हिट एंड रन मामले में आईपीसी की धारा 279 (लापरवाही से वाहन चलाना), 304A (लापरवाही के कारण मौत) और 338 (जान जोखिम में डालना) के तहत केस दर्ज किया जाता है। इसमें दो साल की सजा का प्रावधान है। खास मामलों में आईपीसी की धारा 302 भी जोड़ी जाती है।

ह‍िट एंड रन कानून में अब क्‍या हो गया है बदलाव?

बदलाव के बाद सेक्शन 104(2) के तहत हिट एंड रन के बाद अगर आरोपी ड्राइवर घटनास्थल से भागता है या पुलिस या मजिस्ट्रेट को सूचित नहीं करता है तो उसे 10 साल तक की सजा भुगतनी पड़ेगी। 7 लाख रुपये का जुर्माना भी देना होगा।

किन-किन राज्‍यों में कानून के विरोध में उतरे ड्राइवर?

उत्तर प्रदेश, महाराष्‍ट्र, बिहार, मध्‍य प्रदेश, गुजरात सहित देशभर के ज्‍यादातर राज्‍यों के ट्रक और बस ड्राइवर नए कानून के विरोध में सड़क पर उतर आए हैं। इसका परिवहन सेवाओं के साथ सप्‍लाई चेन पर असर पड़ सकता है।
क्‍या है ड्राइवरों की मांग?

ड्राइवरों की मांग है कि जब तक सरकार हिट एंड रन पर नए कानून को वापस नहीं लेती तब तक बस और ट्रक नहीं चलाएंगे। तमाम राज्‍यों में चालकों ने बस और ट्रक चलाने से इनकार कर दिया है। केंद्र सरकार के नए परिवहन नियमों का ट्रांसपोर्ट कारोबारियों ने भी विरोध किया है। ऑल इंडिया ट्रक चालक संगठन ने एक जनवरी को हड़ताल का आह्वान किया था।

कन्‍फ्यूजन की स्थित‍ि

ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस की परिवहन समिति के अध्यक्ष सीएल मुकाती के मुताबिक, ‘हिट एंड रन’ मामलों में अचानक पेश किए गए कड़े प्रावधानों को लेकर चालकों में आक्रोश है। उनकी मांग है कि इन प्रावधानों को वापस लिया जाए। चश्मदीदों ने बताया कि मुंबई को आगरा से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर धार और शाजापुर जिलों में चालकों ने चक्काजाम किया। इससे सैकड़ों वाहनों की लंबी कतारें लग गईं।
लैपटॉप, स्मार्टवॉच, हेडफोन और अन्य चीज़ों पर साल के अंत में सेल – 75% तक की छूट

ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (एआईएमटीए) की राज्य इकाई के अध्यक्ष सुनील माहेश्वरी ने कहा कि ट्रक या टैंकर मालिकों की कोई हड़ताल नहीं है। माहेश्वरी ने कहा, ‘कुछ टैंकर और ट्रक चालकों ने अपने वाहन खड़े कर दिए हैं। उन्हें सूचित किया जा रहा है कि नए कानून सिर्फ ट्रक चालकों पर ही नहीं बल्कि वाहन चलाने वाले हर व्यक्ति पर लागू होते हैं। फिलहाल कोई हड़ताल नहीं होगी।’

ग्वालियर जिला पेट्रोल पंप एसोसिएशन के संरक्षक दीपक सचेती ने बताया कि रविवार को कुछ समय के लिए रायरू स्थित पेट्रोल डिपो से कुछ टैंकरों में पेट्रोल-डीजल नहीं आया। सचेती ने कहा कि केवल 10 फीसदी चालकों को नए नियम समझ में नहीं आए हैं, लेकिन उन्हें समझाया जा रहा है।