धर्म

इस्लाम धर्म के अनुसार इंसानों को किस प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं और कौन इन अधिकारों को निर्धारित करता है?

मानवाधिकार का, मानवीय विचारधारा में बड़ा गहरा अर्थ है।

प्राचीन काल से ही दार्शनिकों व विचारकों का मानना था कि मनुष्य के कुछ मूल अधिकार हैं। पश्चिमी दार्शनिकों की दृष्टि से इन अधिकारों का स्रोत मानवीय प्रवृत्ति है और बुद्धि भी इसे स्वीकार करती है। पुनर्जागरण के काल से पहले तक दार्शनिक प्रकृति व बुद्धि के साथ ही ईश्वरीय शिक्षाओं पर भी ध्यान देते थे लेकिन इसके बाद मानववादी विचारों के छा जाने के कारण ईश्वरीय पहलू की ओर लोगों का ध्यान कम हो गया और प्रकृति व इंसानी संकल्प को मानवाधिकार का एकमात्र मानदंड बना दिया गया। अपने इरादे पर मनुष्य का ध्यान इस बात का कारण बना कि वह मानवाधिकारों के निर्धारण के लिए एकमात्र योग्य निर्णयकर्ता के रुप से अपनी बुद्धि व इरादे को मान ले। इसी आधार पर इस विचार के समर्थकों ने मानवाधिकार के बारे में एक सहमति पत्र तैयार किया और उसे वैश्विक मानवाधिकार घोषणापत्र का नाम दिया गया। उन्होंने चाहे अनचाहे में एकेश्वरवाद की विचारधारा और ईश्वर से मनुष्य के संपर्क पर ध्यान दिए बिना संसार के सभी राष्ट्रों के लिए एक सहमति पत्र तैयार किया और उसके सिद्धांतों को वैश्विक व अपरिवर्तनीय बताया। अलबत्ता उस समय भी कुछ ऐसे देश थे जिन्होंने इस बड़ी निश्चेतना पर प्रतिक्रिया दिखाई और ईश्वरीय पहलू और धार्मिक शिक्षाओं की अनदेखी को इस घोषणापत्र की बहुत बड़ी कमी बताया। वास्तविकता यह है कि धार्मिक शिक्षाओं में लोगों के अधिकारों पर बहुत अधिक बल दिया गया है और ईश्वरीय पैग़म्बरों को जब भी और जहां भी भेजा गया उनका मूल लक्ष्य लोगों को उनके अधिकारों और मानवीय परिपूर्णता के संबंध में उनके दायित्वों से अवगत कराना था।

सभी ईश्वरीय धर्मों में मनुष्य के कल्याण और मोक्ष पर बल दिया गया है। हर धर्म ने अपनी शिक्षाओं में मनुष्य पर विशेष ध्यान दिया है और उसके अधिकारों और दायित्वों का निर्धारण करके उसके कल्याम को दृष्टिगत रखा है। सभी धर्मों में मनुष्य को एक मूल्यवान व प्रतिष्ठित या दूसरे शब्दों में पवित्र अस्तित्व के रूप में देखा गया है। बाइबल में कहा गया है कि आदम को ईश्वरीय रूप में पैदा किया गया है और इसका अर्थ है कि मनुष्य की पेशानी पर ईश्वरीय मोहर लगी हुई है जो उसे उच्च प्रतिष्ठा प्रदान करती है। इस संबंध में क़ुरआने मजीद ने भी कहा है कि निश्चय ही हमने आदम की संतान को प्रतिष्ठा प्रदान की है।

धर्मों की दृष्टि से सभी मनुष्य इस दृष्टि से समान हैं कि वे ईश्वर की रचना हैं। इस समानता का कारण कुछ अधिकारों का विश्व व्यापी होना है क्योंकि इनका स्रोत ईश्वर है। ये अधिकार, संसार की नश्वर व समाप्त होने वाली शक्ति से, मनुष्य से छीने नहीं जा सकते। यह बात यहूदियत, ईसाइयत, इस्लाम और अन्य सभी ईश्वरीय धर्मों में देखी जा सकती है। इस्लाम की क़ानूनी व्यवस्था भी एक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें वांछित परिपूर्णता के रूप में मनुष्य के कल्याण पर ध्यान दिया जाता है। इस दृष्टि से ईश्वरीय आदेशों के साथ पैग़म्बरों का भेजा जाना लोगों को यह राह दिखाता है कि वे ईश्वरीय शिक्षाओं और आसमानी किताब की शिक्षाओं से लाभ उठा कर समाज में न्याय स्थापति करें।

इस्लाम एक आदर्श व्यवस्था है जिसमें एक ओर तो महत्वकांक्षी समाज का रेखांकन होता है ताकि लोग उसे अपना आदर्श बना सकें और दूसरी ओर लोगों को विशेष स्थान व मानवीय प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, इसके साथ ही उनके कुछ अधिकार और दायित्व भी होते हैं और वे अपने समाज के भविष्य में प्रभावी व भागीदार होते हैं। अब प्रश्न यह है कि इस्लाम धर्म के अनुसार इंसानों को किस प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं और कौन इन अधिकारों को निर्धारित करता है? क्या मानवीय बुद्धि अकेले इस बात की क्षमता रखती है कि मानवाधिकार को निर्धारित कर सके? क्या मनुष्य का अस्तित्व और उसकी प्रकृति, मानवाधिकार के निर्धारण के लिए एकमात्र स्रोत व मानदंड है?

इस बात पर चर्चा से पहले यह देखना आवश्यक है कि इस्लाम और पश्चिम की दृष्टि में अधिकार का अर्थ क्या है? मूल रूप से अधिकारों के बारे में दो तरह के विचार पाए जाते हैं। एक विचार में इरादे और चयन पर बल दिया जाता है जबकि दूसरे विचार में फ़ाएदे और हित पर भरोसा किया जाता है। पहले विचार के अनुसार अधिकार का मतलब है वह शक्ति जो क़ानून ने लोगों को प्रदान की है ताकि वे कोई काम करें या कोई काम न करें। इस विचार के अनुसार अधिकार का स्रोत लोगों का इरादा या चयन है, अर्थात मानव समाज का हर व्यक्ति अपने इरादे और चयन से समाज में अपने संबंधों को निर्धारित करने के लिए कुछ क़ानूनों को स्वीकार करता है। इस आधार पर वह अपने अधिकार को लागू कर सकता है या उसकी अनदेखी कर सकता है।

इस विचार पर कुछ आपत्तियां की जाती हैं, जैसे यह कि जीवन जैसे कुछ व्यक्तिगत अधिकारों को न तो समाप्त किया जा सकता है और न ही दूसरों के हवाले किया जा सकता है। क्या मनुष्य अपने से जीने का अधिकार छीन सकता है या अपने जीवन का अधिकार दूसरों को दे सकता है? एक अन्य आपत्ति यह है कि आज मौसम और पर्यावरण के क्षेत्रों में पशु, वनस्पति और नदी व समुद्र आदि के अधिकारों की बात की जाती है तो पशुओं, नदियों, पर्वतों और जंगलों का क्या इरादा और शक्ति हो सकती है?

दूसरे विचार में अधिकार का लक्ष्य व्यक्ति के इरादे व शक्ति का समर्थन नहीं बल्कि उससे संबंधित कुछ फ़ायदों व हितों की रक्षा है। इस दृष्टिकोण पर पहले विचार वाली आपत्तियां तो नहीं होतीं लेकिन इसमें जो एक कमी दिखाई देती है वह यह है कि लोगों से संबंधित हित, उन्हीं अधिकारों का भाग हैं जो उनके लिए दृष्टिगत रखे गए हैं, अर्थात पहले लोगों के लिए कुछ अधिकार माने जाएं फिर उनके आधार पर अस्तित्व में आने वाले हितों को सुनिश्चित बनाया जाए। अलबत्ता पशुओं और प्रकृति के बारे में जिन अधिकारों की बात की जाती है उनके संबंध में भी यह प्रश्न है कि इस तरह के अधिकार रखने वालों के क्या हित हो सकते हैं?

आइये अब देखते हैं कि इस्लाम में अधिकार का क्या अर्थ है। इसके लिए इस्लाम में हक़ शब्द प्रयोग होता है जिसका अर्थ है, टिकाऊ हस्ती, दूसरे शब्दों में हर वह चीज़ जिसमें स्थायित्व होता है और वह टिकाऊ होती है, हक़ है। सूरए हज की आयत नंबर 62 में कहा गया है। यही कारण है कि ईश्वर हक़ है और वे लोग उसके अतिरिक्त जिसको भी पुकारते हैं असत्य है। अलबत्ता हक़ के विभिन्न चरण हैं क्योंकि हर हक़ का एक ही समान स्थायित्व नहीं होता।

सभी धार्मिक विचार धाराओं में अधिकार का मूल आधार ईश्वर का आदेश है। इस अर्थ में कि जिस प्रकार मनुष्य को अच्छी हवा व पानी से लाभ उठाना चाहिए और उसे अपने आपको इन दो चीज़ों से वंचित करने का अधिकार नहीं है उसी तरह उसका यह भी दायित्व है कि ईश्वर ने उसके लिए जो अधिकार निर्धारित किए हैं उनसे लाभ उठाए। इसका मतलब यह है कि ईश्वर ने मनुष्य को जो भी अधिकार दिया है उसके साथ एक दायित्व भी निर्धारित किया है और यह दायित्व, उस अधिकार की रक्षा से संबंधित है। ईश्वर ने इस लिए यह दायित्व निर्धारित किया है क्योंकि वह चाहता है कि मनुष्य अपने इंसानी अधिकारों से लाभ उठा कर परिपूर्णता व कल्याण तक पहुंच जाए क्योंकि ईश्वर के सभी आदेशों और दायित्वों का आधार मनुष्य के हित हैं। इन आदेशों का एक एक स्थिर आधार है क्योंकि ये सभी आदेश उस ईश्वर की ओर से हैं जो हक़ अर्थात स्थिर व टिकाऊ है।

क़ुरआने मजीद के सूरए तौबा की 33वीं आयत में कहा गया है। वह (ईश्वर) वही है जिसने अपने पैग़म्बर को मार्गदर्शन और हक़ धर्म के साथ भेजा। यहीं से पता चलता है कि धार्मिक आदेश, सामाजिक क़ानूनों की तरह नहीं हैं जिन्हें बाद में बदला या समाप्त किया जा सके। यही कारण है कि ईश्वरीय आदेशों को दृष्टि में रखे बिना मनुष्य जो भी क़ानून बनाता है वह परिवर्तन व रद्द करने योग्य होता है।

एकेश्वरवादी विचारधारा में हर नेमत, एक अधिकार के साथ होती है और संसार की कोई भी अनुकंपा ऐसी नहीं है जिसके प्रति मनुष्य उत्तरदायी न हो। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि हर नेमत में महान ईश्वर के लिए एक अधिकार होता है तो जो कोई उस अधिकार को पूरा कर देता है वह उस अनुकंपा से अधिक लाभ उठाता है और जो कोई उस अधिकार के संबंध में ढिलाई करता है वह स्वयं को ख़तरे में डाल लेता है।

इस आधार पर मनुष्य, अनुकंपाओं से लाभ उठाने में स्वतंत्र नहीं है बल्कि उसे हर नेमत का हक़ अदा करना चाहिए। रही यह बात कि हर नेमत का हक़ क्या है? तो उसे नेमतों के संबंध में ईश्वरीय शिक्षाओं, धार्मिक नेताओं के कथनों और उनके व्यवहार में देखना चाहिए। प्रिय श्रोताओ कार्यक्रम का समय यहीं पर समाप्त होता है, अगले कार्यक्रम में हम आपको बताएंगे कि क्यों मानवाधिकार के संबंध में सबसे योग्य आधार और मानदंड ईश्वर है?