साहित्य

उसे बस बोलना आता था, वह कुछ भी बोल सकता था : नंदू पूरे गांव में अपने धड़े का इकलौता वक्ता था!

चित्र गुप्त
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वामपंथी
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नंदू पूरे गांव में अपने धड़े का इकलौता वक्ता था। उसके बोलने पर लोग मरने मारने पर उतारू हो जाते थे। उसने कई सारी घटनाओं के इतिहास और भूगोल को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से पढ़कर तोते की तरह कंठस्थ कर रखा था। उसे जब भी मौका मिलता बेलगाम शुरू हो जाता था और सामने वाले को धराशाही करके ही दम लेता। तथ्यों से उसका कोई लेना देना नहीं होता था। उसे बस बोलना आता था। वह कुछ भी बोल सकता था। वह बोलता था तो उसे परवाह सिर्फ अपने वक्ता बने रहने की होती थी लेकिन वह दिखाता ऐसे था जैसे पूरे कुनबे की इज्जत मान मर्यादा सभ्यता संस्कृति आदि का ठेका उसी ने ले रखा हो।

नंदू तब तक जीतता रहा जब तक उसका पाला चंदू से नहीं पड़ा था। चंदू वामियों के धड़े का छुटभैया था। वह सर से लेकर पांव तक आंकड़ों से भरा हुआ था। उसके पास शोषितों वंचितों दलितों और महिलाओं को लेकर ऐसे ऐसे आंकड़े थे जिसको ढूढने के लिए गूगल बाबा भी अपना सिर फोड़ लें। वह अपनी बातों में ऐसी ऐसी घटनाओं का जिक्र ले आता था जो न तो किसी पत्रकार को पता थीं और न ही किसी आम शहरी या ग्रामीण को। वह अपनी बातों में कुछ विदेशी लेखकों को कोट करना कभी नहीं भूलता था जिससे लोगों के बीच उसका भौकाल बिना बनाए ही बना रहे।

चंदू का नंदू से मुकाबला देशी भांग बनाम विदेशी व्हिस्की के बीच का मुकाबला था। चंदू बेचारा क्या करता उसे हारना ही पड़ा। चंदू जैसे ही हारा सारे गांव में उसके धड़े की नाक जो कि पहले भी कभी नहीं थी वह भी सदा के लिए कट गई। जैसे हाथी सबसे ज्यादा प्रेम अपनी सूंड को करता है या घोड़ा अपने पैरों को या मोर अपने पंखों को करता है ठीक वैसे ही जिसकी नाक बिल्कुल भी नहीं होती उन्हे अपने नाक के कट जाने की चिंता भी बहुत रहती है।


बेटी ने प्रेम कर लिया तो इनकी नाक कट गई। बहू ने जोर से हंस दिया तो इनकी नाक कट गई। परीक्षा में बेटे के नंबर नब्बे के पार नहीं गए तो इनकी नाक कट गई। इनकी नाक सूर्पनखा की नाक से भी चंचल और छिपकली की पूंछ से भी कोमल होती है जो कभी एक तिनका लगते ही कट जाती है तो कभी कोई मर्यादा पुरुषोत्तम अपने छोटे भाई को इशारा करके कटवा लेते हैं।

नंदू की दिग्विजय थमते ही दक्षिण वालों में खलबली मच गई। उनकी इकलौती ऊंची नाक का लंबरदार को चंदू ने पटखनी दे दी थी। काफी खोजबीन के बाद उनको पता चला कि चंदू की सारी वाकपटुता की जड़ में उसकी पढ़ाई है। उधर नंदू ने पढ़ाई के नाम पर सिर्फ नकल करके डिग्रियां ही हासिल की थी। इसके अलावा उसे मंदिर प्रसाद व्रत मिन्नतें चढ़ावा इत्यादि के बारे में ही पता था।

गांव में उसके धड़े वालों ने अपना झंडा ऊंचा रखने के लिए यह तय किया कि सब आपस में चंदा करके नंदू को बाहर पढ़ने भेजेंगे।
कुछ दिनों बाद नंदू पढ़ने के लिए बाहर चल दिया। गांव वाले महीने दर महीने उसका खर्चा भेजते रहे। नंदू इस शहर से उस शहर इस लाइब्रेरी से उस लाइब्रेरी रात दिन लगकर किताबें चाटता रहा। उसने दुनिया के सभी बड़े लेखकों को पढ़ा। सारे धर्मग्रंथों को खंगाल डाला। उसने इतिहास के उन पन्नों पर भी अपनी नजरें दौड़ाई जिसे दीमक अब तक आधा चट ही कर चुके थे।

पढ़-लिखकर नंदू बारह वर्षों बाद गांव लौट रहा था। सारा गांव उसकी अगवानी के लिए स्टेशन पर तैयार खड़ा था। आदत के मुताबिक ट्रेन नियत समय से छह घंटे लेट स्टेशन पर आई। ट्रेन के रुकते ही गांव वालों की धड़कने थम गईं ट्रेन का दरवाजा खुला तो उन्होंने देखा नंदू वामपंथ का लाल झंडा थामे ट्रेन से उतर रहा था।
#चित्रगुप्त