दुनिया

गांधी का देश अब अटल नहीं, आतंकवाद के साथ!

फ़िलिस्तीन का मुद्दा एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा है कि जिसके वास्तविक्ता शायद ही किसी से छिपी हो। दुनिया का हर देश यह अच्छी तरह से जानता है कि इस्राईल एक अवैध और आक्रमणकारी शासन है। आज जिस प्रकार वह फ़िलिस्तीनियों पर वह बम बरसा रहा है वही आतंकवाद का असली चेहरा है। क्योंकि जिनकी ज़मीन पर उसने अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर रखा है उन्हीं को वह अब पूरी तरह फ़िलिस्तीन से बाहर निकालने की योजना पर काम कर रहा है।

भारत अपनी आज़ादी के बाद से हमेशा फ़िलिस्तीन का समर्थन देश रहा है। भारत में चाहे जिसकी भी सरकार रही हो उसने खुलकर फ़िलिस्तीन का समर्थन किया है। स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हमेशा इस्राईल को एक आक्रमणकारी शासन और फ़िलिस्तीन को देश के रूप में माना है। महात्मा गांधी ने 1938 में सीमांत प्रदेश के दौरे से लौटने के बाद उन्होंने यहूदियों के बारे में अपने पहले संपादकीय ‘ईसाइयत के अछूत’ शीर्षक के तहत एक लेख में लिखा था कि, “मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है। मैं दक्षिण अफ़्रीक़ा के दिनों से उनको क़रीब से जानता हूं। उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनकी साथ हुई ज़्यादतियों के बारे में जाना है। यह लोग ईसाइयत के अछूत बना दिए गये हैं। अगर तुलना ही करनी हो तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है वैसा हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया है।” “निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं। लेकिन उनके साथ की गहरी मित्रता मुझे न्याय देखने से रोक नहीं सकती है। इसलिए यहूदियों की ‘अपना राष्ट्रीय घर’ की मांग मुझे जंचती नहीं है। इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फ़लस्तीनी इलाक़े में लौटने की बात उठाई जा रही है। लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जन्मे हैं और जहां से अपनी रोज़ीरोटी कमाते हैं, उसे ही अपना घर मानें?”

महात्मा गांधी का कहना था कि “फ़लस्तीन उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेज़ों का है या फ्रांस फ्रांसीसियों का है। यह ग़लत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए। उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जन्मे हैं और कमा-खा रहे हैं वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो। अगर यहूदियों को फ़लस्तीनी जगह ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं? या कि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं? ‘अपने लिए एक राष्ट्रीय घर’ के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था।” केवल महात्मा गांधी ही नहीं भारत के लगभग सभी राजनेताओं का यही मानना था कि इस्राईल, फ़िलिस्तीन के मुक़ाबले में पूरी तरह ग़लत है। आज दिल्ली की सत्ता में जिस पार्टी की सरकार है उस पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपायी का भी यही मानना था। उन्होंने अपने इस विचार को तो एक विशाल जनसभा में भी आम लोगों के सामने रखा था।

लेकिन वर्ष 2014 में जब से भारत सरकार की बागड़ोर नरेंद्र मोदी के हाथ में आई है तब से लगातार यह सरकार फ़िलिस्तीनियों को नज़रअंदाज़ करते हुए दिखाई दे रही है। बारमबार मोदी ने ज़ायोनी प्रधानमंत्री और इस समय दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी बिन्यामिन नेतनयाहू का समर्थन किया है। मोदी सरकार की इस नीति ने न केवल ज़ायोनी आतंकवाद को बढ़ावा दिया है बल्कि उनकी वजह से भारत का मेन स्ट्रीम मीडिया भी इस्राईल का गुणगान करने लगा है। हर दिन इस्राईल द्वारा फ़िलिस्तीनियों के घरों को ध्वस्त किया जाना, मासूम बच्चों का नरसंहार किया जाना, महिलाओं की हत्याएं करना और आम लोगों पर बम बरसाया जाना, भारतीय मीडिया को बिल्कुल नहीं दिखाई देता है। वहीं जब यही मज़लूम फ़िलिस्तीनी इस्राईली आतंकवाद का जवाब देते हैं तो नरेंद्र मोदी खुलकर इस्राईल के समर्थन में आमने आ जाते हैं और वहीं गोदी मीडिया कहे जाने वाला भारतीय मीडिया भी हमास और हिज़्बुल्लाह जैसे जनप्रिय प्रतिरोध आंदोलनों को आतंकवाद से जोड़ने लगते हैं। जबकि वे यह भूल रहे होते हैं कि पश्चिमी एशिया समेत दुनिया में अगर किसी ने आतंकवाद को जन्म दिया है और उसका प्रचार किया है तो वह कोई और नहीं बल्कि इस्राईल है। (RZ)

लेखक- रविश ज़ैदी, वरिष्ठ पत्रकार। ऊपर के लेख में लिखे गए विचार लेखक के अपने हैं। पार्स TEESRI JUNG HINDI का इससे समहत होना ज़रूरी नहीं है।