साहित्य

मुझे जुगाड़ की ज़िंदगी जीने की आदत हो गई है!

मनस्वी अपर्णा

लक्ष्मी कान्त पाण्डेय
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मुझे याद नहीं है कि मेरी ये सोच कब से बन गई है लेकिन अरसा हुआ है मुझे बनाने वालों से ज़्यादा सुधारने वाले पसंद आते हैं…..आमतौर पर दुनिया उनको सर माथे पर बिठाती है जो कुछ creation करते हैं या construction करते हैं, ठीक भी है उनकी योग्यता और विशेषज्ञता का सम्मान होना भी चाहिए, लेकिन मुझे भाते हैं वो लोग जो बिगड़े हुए को बना देते हैं, टूटे हुए को सुधार देते हैं, फटे हुए को रफू कर देते हैं यानि वो लोग जो मरम्मत का काम करते हैं, चाहे चीज़ों की हो या व्यवहार की, या फिर इंसानों की….मुझे शहर के ऐसे हर जुगाड़ तुगाड़ करने वालों की खासी जानकारी हैं और उनसे खासी पहचान भी है….. कपड़े ऑल्टर करने वाले दर्ज़ी, mobile और इलेक्ट्रिकल सामान सुधारने वाले जुगाड़ू स्वयंभू इंजीनियर, बर्तनों के पेंच कसने वाले, जूते सुधारने वाले, कार या बाइक के मैकेनिक सब। मेरी नज़र में ये सब बेहतरीन कारीगर है, क्यूंकि ये उस हर चीज़ को फिर से नया और उपयोगी बना देते हैं जिसको हम टूट फूट या बिगाड़ के कारण बस छोड़ने ही वाले होते हैं। इसलिए मैं हमेशा कुछ भी नया लेने की बजाय पुराने को सुधार कर फिर से काम में लेने की मनोदशा में रहती हूं।

मेरे शहर में एक शू रिपेरर्स है वो कमाल के कारीगर है वो बेकार हो रहे जूतों को न सिर्फ दुरुस्त कर देते हैं बल्कि नया भी और कई कई ढंग से…..मेरे ऑल्टर वाले टेलर मासाब कपड़ों को बड़े से छोटा और छोटे से बड़ा करने की महारथ रखते हैं जबकि दूसरा काम वाकई मुश्किल है……कार की डेंट पेंट वाले मेरे तीनों परिचित मैकेनिक बहुत बारीक काम करते हैं और कार एक बार फिर नई हो जाती है, मोबाइल के touch की जुगाड़ ear phone की मरम्मत करने वाले किसी इंजिनियर से ज़्यादा दक्ष होते हैं , मैं जब भी इनमें से किसी के पास अपनी कोई समस्या लेकर जाती हूं उनके पास कोई न कोई हल ज़रूर होता है….ये सब लोग मुझे छोटे मोटे जादूगर जान पड़ते हैं, बहुत कम लागत में मेरी चीज़ें फिर से उपयोगी हो जाती हैं, मैं सच में ही इन सब कारीगरों को दिल से दुआएं देती हूं, मेरा मन उनके प्रति कृतज्ञता से भरता है, इन सबसे मैं मोल भाव नहीं करती, मेरा जी ही नहीं करता करने के लिए….ये सब लोग बहुत मामूली संसाधनों के साथ अपनी दक्षता की वजह से अपनी रिजक कमाते हैं और मुझे लगता है मांगा जा रहा पैसा वाकई उनके हक़ का पैसा है।
ठीक यही मरम्मत का काम हम इंसानों के लिए हमारे mentor करते हैं, या गुरु या जो भी नाम हम उन्हें देना चाहें….वो भी एक बिगड़े हुए इंसान की मरम्मत करके उसे उस रास्ते पर ले कर आतें हैं जो वाकई उसके लिए योग्य और महत्वपूर्ण है, इसलिए ऐसा कोई भी व्यक्ति जो माता पिता और समाज की बिगाड़ी हुई कृति को पुनर्निर्मित कर रहा है मेरी नज़र में ज़्यादा आदरणीय है बनिस्बत उनके जो किसी एक अबोध बच्चे का अपने अनुकूल निर्माण कर रहे हों।

बहरहाल बात का मर्म यह है कि मुझे जुगाड़ की ज़िंदगी जीने की आदत हो गई है, कई जगह पर ये वाकई बहुत कीमती साबित होती है लेकिन कभी कभी इसके नकारात्मक प्रभाव होते हैं…जैसे जुगाड़ लगाते लगाते मैं लगभग भूल ही जाती हूं कि नए और बेहतर पर भी मेरा कोई हक़ बनता है…मेरी सोच कम से कम उससे भी और कम में adjust करने वाली बनती जा रही है, मैं अपने लिए कुछ नया कुछ बेहतर चाहना ही भूल गई हूं….ये आदत ज़िंदगी में हम जैसे लोगों का बहुत नुक्सान करवाती है, हम सदा हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं, हमें कोई priority में गिनता ही नहीं क्यूंकि हम ख़ुद ही जो मिल गया उसी में खुशी खुशी राज़ी हो जातें हैं। ख़ैर तस्वीर के दोनों रुख़ बराबर मायने रखते हैं, सवाल सदा नज़रिए का होता है, अगर वो सधा हुआ है तो बाकि बातें manageable होती हैं।
ऐसा मुझे मेरे मतानुसार लगता है।

By- मनस्वी अपर्णा