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लॉकडाउन से 10 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे, आख़िर क्यों, करोड़ों लोग वोट नहीं डाल पाएंगे : रिपोर्ट

भारत के करीब एक अरब मतदाताओं में से लगभग आधे ऐसे हैं जिनके लिए वोट डालना इतना महंगा काम है कि वे यह खर्च उठा ही नहीं सकते. क्या उनकी किसी को परवाह है?

शफीक अंसारी का मन तो बहुत है कि वोट डालने के लिए नोएडा से अपने घर झारखंड जाएं. इस बहाने तीन बच्चों और पत्नी के साथ भी कुछ समय बिता पाएंगे. लेकिन वह चाहकर भी ऐसा कर नहीं सकते क्योंकि वोट डालने जाने का मतलब होगा दिहाड़ी खोना. दिल्ली की गर्मी में काम करते अंसारी की पहली चिंता तो घर चलाना ही है.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जारी चुनावोत्सव में हिस्सा ना ले पाने की यह कसमसाहट झेलने वाले अंसारी अकेले नहीं हैं. 1 जून तक भारत के अलग-अलग राज्यों में वोट डाले जाने हैं और करोड़ों लोग जो अन्य राज्यों में मजदूरी कर रहे हैं, इसी तरह की कशमकश से गुजर रहे हैं.

अंसारी एक दिहाड़ी मजदूर हैं जो सड़क बनाने के काम में लगे हैं. नोएडा में वह 600 रुपये रोजाना कमाते हैं. वोट डालने जाने का मतलब होगा आठ-दस दिन की दिहाड़ी खोना और नौकरी दोबारा ना मिलने का खतरा उठाना. इसके अलावा आने-जाने का खर्च अलग. महीने भर की कमाई वह सिर्फ वोट डालने के लिए खर्च नहीं करना चाहते.

37 साल के अंसारी बताते हैं, “अगर मुझे मुफ्त में ट्रेन का टिकट और तन्ख्वाह के साथ छुट्टी मिल पाती तो जरूर जाता. लेकिन ऐसा तो होगा नहीं. इसलिए जाऊंगा नहीं बस उम्मीद करूंगा कि सब अच्छा हो.”

अंसारी के साथ ही बहुत से लोग काम करते हैं जो पूर्वी राज्यों से आते हैं. उन सबके लिए काम और कमाई मतदान से ज्यादा बड़ी प्राथमिकता है. अगर वे सिर्फ दो दिन के लिए घर जाकर वोट डाल आएं तो भी 4-5 हजार का खर्च होगा, यानी उनकी हफ्ते भर की कमाई.

30 साल के एक अन्य मजदूर ने कहा, “हम मजबूरी में यहां रह रहे हैं. काम के लिए. क्योंकि घर के पास कोई काम नहीं मिला.”

इतने सारे मतदाता
थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन ने दिल्ली और आसपास के इलाकों में काम करने वाले करीब दो दर्जन प्रवासियों से बात की. उनमें से सिर्फ चार ने कहा कि वे वोट डालने अपने गृह नगर जाएंगे. हालांकि उन चार में से तीन का घर पास ही है और वोट डालने के लिए उन्हें बस एक दिन की दिहाड़ी और कुछ घंटे की यात्रा की ही कीमत चुकानी होगी.

भारतमें कितने लोग अपने राज्यों से बाहर काम करते हैं इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है क्योंकि आंतरिक प्रवासियों की गिनती को दस साल से ज्यादा हो चुके हैं. लेकिन विशेषज्ञों का अनुमान है कि लगभग 40 फीसदी मतदाता ऐसे हो सकते हैं. भारत में इस साल लगभग एक अरब लोगों के पास मतदान का अधिकार है.

2011 के आंकड़े बताते हैं कि तब भारत में 45.6 करोड़ लोग अपने राज्यों से बाहर काम कर रहे थे. तब भारत की आबादी 1.21 अरब थी. इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ माइग्रेशन एंड डिवेलपमेंट नामक थिंक टैंक के प्रमुख एस इरुदया राजन कहते हैं कि अब इस संख्या में करीब 15 करोड़ लोग और जुड़ गए होंगे.

राजन कहते हैं, “देश की नीतियों और योजनाओं में ये प्रवासी आज भी अदृश्य हैं. भारतीय जनता पार्टी और अन्य किसी दल ने भी अपनी प्रचार रैलियों में कोविड-19 के प्रवासी संकट का जिक्र नहीं किया है.”

किसी को परवाह नहीं
2020 में जब कोविड-19 महामारी के कारण मोदी सरकार ने पूरे देश में एकाएक लॉकडाउन लगा दिया था तो लगभग 10 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे. तब सैकड़ों लोगों के दसियों किलोमीटर तक पैदल चलते हुए घर जाने की तस्वीरें और वीडियो पूरी दुनिया ने देखे थे.

राजन कहते हैं, “ऐसा तो नहीं हो सकता कि लोग उसे भूल गए हों. सिर्फ चार साल पहले की बात है. यह दिखाता है कि उनकी परवाह किसी को नहीं है.”

राजन कहते हैं कि ज्यादातर प्रवासी मजदूर छोटी अवधि के लिए आते हैं. वे मौसमी काम करते हैं. वे कम पढ़े-लिखे और असंगठित होते हैं इसलिए उनके लिए एकजुट हो पाना और अपने अधिकारों के लिए लड़ पाना बहुत मुश्किल होता है. राजन के मुताबिक चुनावों में अपना पक्ष ना रख पाना उनके शोषण को और बढ़ा सकता है और उनकी मोलभाव की शक्ति को कम कर सकता है क्योंकि वे फैसले लेने की प्रक्रिया से ही बाहर हो जाते हैं.

प्रवासी मामलों के मंत्रालय की जरूरत बताते हुए राजन कहते हैं, “समस्या ये है कि अर्थव्यवस्था में अपने अहम योगदान के बावजूद ये प्रवासी मजदूर वोटबैंक के रूप में नहीं देखे जाते. इसे बदलने की जरूरत है.”

पिछले कुछ सालों में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था धीमी हुई है, जिस कारण आने वाले सालों में आंतरिक प्रवासन और बढ़ने की संभावना है. विशेषज्ञों के मुताबिक आज भी 60 फीसदी लोग गांवों में ही रहते हैं. इनमें से बहुत से लोग, खासकर 35 वर्ष से कम आयु के युवा काम की तलाश में शहरों की ओर जा रहे हैं. वे बड़े शहरों में जाकर दिहाड़ी करने से लेकर घरों में काम करने तक जैसे काम करते हैं.

अधिकारों का संकट
केरल स्थित सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड इन्क्लूसिव डिवेलपमेंट के निदेशक बिनॉय पीटर कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन ऐसे लोगों के लिए एक महासंकट बन सकता है, खासतौर पर खेतों में मजदूरी करने वाले प्रवासियों के लिए.

पीटर बताते हैं कि अगर घर के पास ठीकठाक कमाई हो पाती इनमें से ज्यादातर लोग पलायन कर शहरी केंद्रों में “दोयम दर्जे के नागरिक” बनकर ना जी रहे होते. उन्होंने कहा, “अगर घर के पास अच्छी नौकरी मिल जाए तो लोग एक सम्मानजनक जीवन जी सकते हैं. लेकिन यह तो एक सपना ही बन चुका है.”

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2019 में जब भारत में आम चुनाव हुए थे तो 30 करोड़ से ज्यादा लोगों ने मतदान नहीं किया. इनमें से अधिकतर प्रवासी मजदूर ही थे.

2024 के लोकसभा चुनावों के पहले चरण में मतदान में 2019 के मुकाबले लगभग चार फीसदी की गिरावट हुई है. इसके बाद पूर्व उप राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने एक अखबार में लिखे लेख में चेताया था कि मतदाताओं का यह कष्ट “अन्य लोगों को उनकी जिंदगियों के फैसले लेने का हक दे देता है.”

वीके/एए (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)